हेमंत पाल
वैधव्य औरत के जीवन का ऐसा पड़ाव है, जहां आकर उनकी जिंदगी ठहर सी जाती है। ये वो मुकाम है, जहां स्त्री को भेदभाव, अवमानना और अन्याय सहते हुए जीवन जीने को बाध्य होना पड़ता है। लेकिन, समय के साथ समाज का नजरिया बदला है। सिनेमा ने भी विधवा नारी के जीवन पर केंद्रित फ़िल्में बनाकर इस बदलाव का संकेत दिया। लेकिन, यह सब एक दायरे तक ही सीमित रहा! विधवा उद्धार पर फ़िल्में बनाने में फिल्मकार आज भी हिचकिचाते हैं। इसलिए कि सिनेमा की रंगीनियत में वैधव्य का सफेद रंग कहीं कमाई में बाधक न बन जाए! इस दमदार विषय को उठाने वाली फिल्मों का अभाव तो लगता है। लेकिन, ऐसे निर्माता-निर्देशक भी हैं, जिन्होंने विधवाओं की ज़िंदगी पर फ़िल्म बनाने का साहसिक फैसला किया। इनमें महबूब खान, राजकपूर, वी शांताराम, यश चोपड़ा से लेकर शक्ति सामंत और राकेश रोशन जैसे बड़े फिल्मकार हैं।
पर्दे पर व्यथा-कथा
फिल्मों में विधवाओं को महज फिलर की तरह उपयोग में लाया जाता रहा। दिखाया जाता कि हीरो की मां विधवा है, जो सिलाई-कढ़ाई करके अपने बेटे का लालन-पालन करती थी। बाद में ये बच्चा या तो ‘त्रिशूल’ के अमिताभ की तरह अच्छा निकलता है या ‘दीवार’ के अमिताभ की तरह बिगड़ जाता है। सबसे पहले महबूब खान ने विधवा महिला के संघर्ष को लेकर 1940 में फिल्म ‘औरत’ बनाई! बाद में 1957 में उसका रंगीन संस्करण ‘मदर इंडिया’ बनाकर एक विधवा की व्यथा-कथा पेश की। नरगिस ने इसमें विधवा का सशक्त रोल निभाया था। दिखाया गया था कि पति की मौत के बाद अकेली औरत कैसे बच्चों को पालती और खुद को ज़माने की गंदी नजरों से भी बचाती है।
विधवा विवाह बना विषय
शक्ति सामंत ने भी विधवा प्रेम और विवाह को लेकर कई सफल फिल्में बनाई। इसकी शुरुआत गुलशन नंदा के उपन्यास पर बनी फिल्म ‘कटी पतंग’ से की, जिसमें आशा पारेख ने विधवा की भूमिका निभाई थी। ‘कटी पतंग’ की कहानी विधवा विवाह पर केंद्रित थी। इससे पहले उन्होंने शर्मिला टैगोर को ‘आराधना’ में विधवा के रूप में दिखाया था। ऐसे ही शक्ति सामंत की दो फिल्मों ‘खून भरी मांग’ और ‘करण अर्जुन’ में विधवाओं के संघर्ष को मनोरंजक अंदाज में पेश किया गया।
कथानक में विधवा
ऐसी फिल्मों में एक 1975 में आई ‘शोले’ भी थी। इसमें जया बच्चन ने विधवा बहू राधा के किरदार को बेहद संजीदगी से निभाया। अमिताभ ने फिल्म में जय का किरदार निभाया था। राज कपूर बैनर की ‘प्रेम रोग’ इस विषय पर केंद्रित बेहतरीन फिल्म थी। इसमें ऋषि कपूर (देवधर) ने गरीब अनाथ का किरदार निभाया, जिसकी बचपन से पद्मिनी कोल्हापुरी (मनोरमा) से दोस्ती थी। लेकिन, मनोरमा की शादी अमीर लड़के से करवा दी जाती है लेकिन उसके पति का निधन हो जाता है। जेठ ही उसकी इज्जत लूट लेता है। वो पिता के घर लौट आती है। यहां फिर उसकी मुलाकात देवधर से होती है, वो उसे नई जिंदगी देने की कोशिश करता है। निरूपा रॉय को की ‘दीवार’ (1975) और वहीदा रहमान की ‘त्रिशूल’ (1978) को भुलाया नहीं जा सकता! कल्पना लाजमी ने अपनी ‘रुदाली’ में राजस्थान की उन विधवाओं की व्यथा कही, जो दुख के अवसरों पर जाकर रोने का काम करती हैं।
सशक्त किरदार भी शामिल
1997 में आई फिल्म ‘मृत्युदंड’ में माधुरी दीक्षित ने दृढ़ विश्वासी महिला की भूमिका निभाई थी। वो ऐसी महिला की भूमिका में थी, जो अपने साथ दूसरी औरतों के अधिकारों के लिए लड़ती है। बाद में पति की मौत का बदला भी लेती है। रानी मुखर्जी की फिल्म ‘बाबुल’ में भी पति की मौत के बाद के हालात थे। साल 2005 में आई ‘वाटर’ का कथानक विधवा आश्रम के आसपास घूमता है। ओटीटी पर आई फिल्म ‘पगलैट’ में सान्या मल्होत्रा ने भी विधवा की भूमिका निभाई थी। इसी विषय पर हेमा मालिनी और ऋषि कपूर की फिल्म ‘एक चादर मैली सी’ भी आई।
कुछ अभिनेत्रियां इस रोल में सिद्धहस्त
कुछ फिल्मों में विधवाओं को अलग अंदाज में भी दिखाया गया। इसका मकसद भले हास्य रचना रहा हो, पर पहले शशिकला और बाद में बिन्दु ने कई फिल्मों में जवान विधवा का यह चरित्र निभाया। जबकि, कुछ अभिनेत्रियों को इस विधवा चरित्र निभाने में सिद्धहस्त माना गया। मीना कुमारी ने विधवा की भूमिका में परदे पर कई बार आंसू बहाए। दुश्मन, मेरे अपने, फूल और पत्थर इसके उदाहरण हैं। राखी को भी अपनी पहली फिल्म ‘जीवन मृत्यु’ में विधवा विलाप करना पड़ा था। इसके बाद रेशमा और शेरा, करण-अर्जुन, दूसरा आदमी, राम लखन सहित आधा दर्जन फिल्मों में वे कभी सफेद तो कभी काली साड़ी पहने दिखाई दी। जबकि, रेखा ने ‘खून भरी मांग’ और ‘फूल बने अंगारे’ में विधवा बनकर बदला लिया। पुरानी अभिनेत्रियों में लीला चिटनिस, सुलोचना, ललिता पवार, लीला मिश्रा, दुर्गा खोटे और अचला सचदेव को भी दर्शकों ने ज्यादातर विधवा रूप में ही देखा है।
नायिकाओं का सीमित वैधव्य!
हिन्दी फिल्मों में अक्सर महिलाओं को विधवा तब दिखाया जाता है, जब वे हीरो या हीरोइन की मां होती है। जिन फिल्मों में मुख्य नायिका को विधवा दिखाया गया, वो भी कुछ समय के लिए! उनके पति के मरने की झूठी खबर आती है या पति इन्हें छोड़कर चला जाता है। फिल्म के अंत तक वो लौट आता है। राज कपूर की संगम, देव आनंद की हम दोनों, ऋषि कपूर-शाहरुख खान की दीवाना, शशि कपूर और आशा पारेख की ‘कन्यादान’ भी ऐसी ही फिल्में थी। रोहेना गेरा की फिल्म इज लव इनफ, इरफान खान और पार्वती थिरूवोथू अभिनीत करीब-करीब सिंगल और विद्या बालन, अरशद वारसी और नसीरुद्दीन शाह की’ इश्किया’ भी विधवाओं को केन्द्र में रखकर बनाई गई फ़िल्में थीं।