पंजाबी फिल्मों ने दी हुनर को रवानगी : The Dainik Tribune

मोहम्मद रफी

पंजाबी फिल्मों ने दी हुनर को रवानगी

पंजाबी फिल्मों ने दी हुनर को रवानगी

मोहम्मद रफ़ी ने अपने मधुर स्वर से विभिन्न शैली के हजारों गीतों में नवरस घोले। शुरुआत पंजाबी फिल्मों के संगीत से की लेकिन हिंदी सिनेमा को भी शिद्दत से सुर-समृद्ध किया। पंजाबी गीतों में उनकी आवाज का जादू चला तो बॉलीवुड के पार्श्वगायन में भी बुलंदियों को छुआ। रफी की आवाज़ में कलाकार के अभिनय की अनुकूलता थी वहीं उन्होंने गायन की नयी शैली प्रस्तुत कर फिल्म संगीत को समृद्ध किया।

भीम राज गर्ग

साल में दो बार विश्वभर से मोहम्मद रफ़ी के अनेक प्रशंसक उनकी जन्मस्थली गांव कोटला सुल्तान सिंह (अमृतसर) में एकत्रित होते हैं। मौका उनकी जयंती और पुण्यतिथि का होता है। रफ़ी की वाणी में मानो सरस्वती का वास था। सहस्राब्दी के गायक मोहम्मद रफ़ी ने अपने समृद्ध एवं मधुर स्वर में विभिन्न शैली के हजारों गीतों में नवरसों का सुमेल किया। रोमांटिक गीतों,ग़ज़लों में उनका कोई सानी नहीं था।

संगीत-देवदूत मोहम्मद रफी का जन्म 24 दिसंबर,1924 को हाजी अली मोहम्मद के घर हुआ था। बचपन में फीकू (रफी), एक फकीर की मधुर तान 'माए नी खेडन दे दिन चार' से बहुत सम्मोहित हुए। परिवार को रफ़ी की संगीत के प्रति अनुरक्ति रास नहीं आई। उसे नौ वर्ष की अल्पायु में पारिवारिक हेयर सैलून में काम करने लाहौर भेज दिया। वहां उनकी गायन-प्रतिभा को रेडियो लाहौर के संगीतज्ञ पंडित जीवनलाल मट्टू ने पहचाना और अपना शागिर्द बना लिया। उन्होंने अब्दुल वहीद खान और छोटे गुलाम अली खान से भी संगीत की बारीकियां सीखीं।

इसके उपरांत उन्हें अखिल भारतीय प्रदर्शनी, लाहौर के मंच पर प्रसिद्ध गायक कुन्दनलाल सहगल की उपस्थिति में गाने का अवसर मिला। वहीं रफी को फिल्मों में लाने का श्रेय संगीत निर्देशक श्याम सुंदर को जाता है, जिन्होंने सर्वप्रथम पंजाबी फिल्म ‘गुल बलोच’(1945) में ज़ीनत बेगम और मोहम्मद रफ़ी की आवाज़ में 'परदेसी... सोहनेया, ओए हीरिए ओए’ गीत रिकॉर्ड किया था। इस फिल्म के दो और गीतों 'आ चन्न वे' एवं 'सुन सुन निक्की जेही गल्ल' को भी रफ़ी ने गाया था। फिल्म के गीत-संगीत ने पंजाब भर में धूम मचाई और रफी लोकप्रिय गायक बन गए।

कामयाबी के पीछे का परिश्रम

फिल्म ‘पहले आप’(1944) के गीत को मार्चिंग प्रभाव देने के लिए भारी सैन्य-जूतों से लयबद्ध ध्वनि उत्पन्न करते हुए रफी के पांव खून से लथपथ हो गए, लेकिन उनका चेहरा खुशी से चमक रहा था। उन्होंने ‘अनमोल घड़ी’(1946), ‘शाहजहां’(1946) आदि हिट फिल्मों में मधुर गीत गाये, परन्तु युगल गीत 'यहां बदला वफ़ा का' (जुगनू-1947) ने उन्हें लोकप्रियता नयी ऊंचाइयां प्रदान की। उनका कठोर परिश्रम और सच्ची लगन रंग लाई और उन्हें पार्श्व-गायन के साथ अभिनय करने के अवसर भी मिलने लगे। रफ़ी ने 'वो अपनी याद दिलाने को' गाने पर कैमियो परफॉर्मेंस दी थी। वह लैला मजनूं (1945), शाहजहां(1946), समाज को बदल डालो (1947) तथा शहीद (1948) फिल्मों में बड़े पर्दे पर नजर आए।

पार्श्व गायन का दौर

विभाजन के बाद, वे हिंदी और पंजाबी फिल्मों में पार्श्व गायन के लिए समान रूप से समर्पित हो गए। उन्होंने 105 पंजाबी फिल्मों में 262 गाने गाकर पंजाबी सिनेमा में बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने पंजाबी फिल्म ‘लच्छी’(1949) में पांच गीत गाए थे, जिनमें 'जग वाला मेला यारो' और 'काली कंघी नाल' अभी भी सरहद के आर-पार प्यार से सुने जाते हैं। अंततः वह पंजाबी सिनेमा में सबसे अधिक मांग वाले पार्श्वगायक बन गए। भाईया जी, छई, मदारी, पोस्ती, जुगनी, भंगड़ा, दो लछियां, गुड्डी, गीत बहारां दे, खेडन दे दिन चार, परदेसी ढोला, जैसी दर्जनों पंजाबी फिल्मों में उनकी आवाज़ का जादू सिर चढ़कर बोला।

लोकप्रियता के स्वर

रफी के अत्यंत लोकप्रिय पंजाबी फिल्म गीतों में 'अजी ओ मुंडा मोह लेया' (छई); 'दढ़ वट ज़माना कट भले दिन आवणगे' (जुगनी); 'जट्ट कुड़ियां तो डरदा मारा' (भंगड़ा); 'दाना-पानी खिच के लिआउंदा' (गुड्डी); 'जी करदा ऐ इस दुनिया नूं' (गीत बहारां दे); 'मित्तर प्यारे नूं' (नानक नाम जहाज है); 'रुस्के तूं चल्ली गई' (पापी तारे अनेक) इत्यादि शुमार किए जाते हैं।

1950-60 के दशक में मोहम्मद रफ़ी की अलौकिक आवाज़ में रिकार्डेड सर्वकालिक गुरबाणी शब्द ‘हर को नाम सदा सुखदाई’ और ‘जिस सर ऊपर तू स्वामी’ सुबह नियमित रूप से गुरुद्वारों के सामुदायिक लाउडस्पीकरों से सुनाई पड़ते थे। उनके कई पंजाबी लोक गीत जैसे 'साडी रुस गई झांझरां वाली' और 'हीर रांझा' ओपेरा बेहद लोकप्रिय हुआ। रफ़ी द्वारा संगीतबद्ध किये आठ गैर-फ़िल्मी गीतों का एक एलपी भी जारी हुआ था।

संगीत की नयी अवधारणा

मोहम्मद रफी की आवाज़ में कलाकार के अभिनय की अनुकूलता का अनूठा समावेश था। उन्होंने ‘सामान्य सप्तक’ के बजाय ‘डेढ़ सप्तक' में गायन अवधारणा को प्रस्तुत करके हिंदी फिल्म संगीत में आमूल परिवर्तन किया। मोहम्मद रफी ने श्याम सुंदर से लेकर बप्पी लाहिड़ी तक सभी संगीतज्ञों के साथ पार्श्व-गायन किया। रफी की पार्श्व-गायन यात्रा में फिल्म ‘बैजू बावरा’(1952) मील का पत्थर साबित हुई। उन्होंने अंग्रेजी, फारसी, अरबी, सिंहली, क्रियोल व डच लेंग्वेज के साथ ही भारत की विभिन्न भाषाओं में छह हज़ार से अधिक गीत-गाने गाए हैं। फिल्म ‘आस पास’ का टाइटल गीत उनके जीवन का अंतिम गीत था।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की स्मृति में कालजयी 'सुनो सुनो ऐ दुनिया वालो' गीत के लिए उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने रजत-पदक प्रदान किया था। 1965 में उन्हें 'पद्मश्री' से अलंकृत किया गया। उन्होंने छह बार सर्वश्रेष्ठ पार्श्वगायक होने पर फिल्मफेयर पुरस्कार जीते और वर्ष 1977 में 'क्या हुआ तेरा वादा' गीत के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार प्राप्त किया। 31 जुलाई, 1980 को मोहम्मद रफी की असामयिक मृत्यु हो गई, परन्तु वो अब भी संगीत-क्षितिज पर एक ध्रुव तारे की तरह चमक रहे हैं।

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