भीम राज गर्ग
सनzwj;् 1938 में लाहौर की एक चांदनी रात में हीरा मंडी चौक पर स्थित ‘रामलुभाया पान भंडार’ के बाहर स्टाइलिश परिधान पहने हुए एक स्मार्ट युवक पान और सिगरेट का सेवन कर रहा था। सिगरेट के प्रति उसकी दीवानगी बालपन से थी, वह बड़े अनोखे अंदाज़ से धुएं के छल्ले हवा में उड़ा रहा था। तभी वहां प्रसिद्ध फिल्म-पटकथा लेखक वली मोहम्मद वली आए। उन्होंने इस मनचले युवक को सर से पांव तक निहारा, उन्हें लगा कि उनकी आगामी फिल्म में खलनायक की भूमिका के लिए उन्हें ऐसे ही नौजवान की तलाश थी। वली साहिब ने उसे फिल्म ‘यमला जट्ट’ में अभिनय करने का ऑफर दिया और अपना विजिटिंग कार्ड देते हुए उसे अगले दिन सुबह 10 बजे पंचोली स्टूडियो में मिलने को कहा। लड़के ने इसे गंभीरता से न लेते हुए पूछा- ‘क्या मैं आपका नाम जान सकता हूं?’ वली साहिब ने कहा- ‘वली’। लड़का शरारत भरे अंदाज़ में हंसते हुए बुदबुदाया- ‘आधी रात को कुछ घूंट लेने के बाद हर कोई खुद को वली समझने लगता है’। लड़के ने इसे ‘रात गई बात गई’ समझ कर अगली सुबह जाने की जहमत नहीं उठाई।
संयोग से सामना
कुछ दिनों के पश्चात जब वह प्लाजा सिनेमा में एक अंग्रेजी फिल्म देखने गया, तो संयोगवश फिर से वली साहब का सामना हो गया। वली ने उसे पंजाबी अपशब्दों के साथ खूब सुनाई और सेठ दलसुख पंचोली से तुरंत मिलने के लिए कहा। लेकिन इस बार बगैर कोई जोखिम उठाए, वली ने उसे अगली सुबह कार द्वारा सीधे स्टूडियो भिजवा दिया। स्क्रीन टेस्ट और साक्षात्कार के बाद उस नवयुवक को पंजाबी फिल्म ‘यमला जट्ट’ (1940) में खलनायक की भूमिका करने हेतु 50 रुपये मासिक पर अनुबंधित कर लिया गया। इस प्रकार एक सितारे का जन्म हुआ- एक ऐसा सितारा जो अगले 50-60 वर्षों तक सिने दर्शकों के दिलों पर राज करने के लिए नियत था। वह प्रतिभाशाली युवक और कोई नहीं, बल्कि मशहूर खलनायक व चरित्र अभिनेता ‘प्राण कृष्ण सिकंद’ थे।
रास आयी एंट्री
प्राण ने पंचोली आर्ट पिक्चर्स, लाहौर के बैनर तले बनी फिल्म ‘यमला जट्ट’ (1940) में कुलदीप नामक एक बिगड़ैल, जुआरी और शराबी युवक का नकारात्मक रोल किया था। 11 वर्षीय नूरजहां ने हीरोइन की छोटी बहन (मुन्नी) का चरित्र निभाया था। जबकि 17 वर्षीय अंजना (रानी) और पॉल (रामू) ने फिल्म में मुख्य भूमिकाएं निभाईं थीं। 31 मई 1940 को लाहौर के पैलेस सिनेमा में रिलीज हुई यह फिल्म बॉक्स-ऑफिस पर मेगाहिट रही।
कामयाबी की राह
अगले ही वर्ष, प्राण पंजाबी फिल्म ‘चौधरी’ में एक बार फिर खलनायक ‘जसबीर’ के किरदार में नज़र आए थे। इसी बैनर की हिंदी फिल्म ‘खजांची’ (1941) में भी उसने एक संक्षिप्त भूमिका की थी। इन फिल्मों की सफलता से उत्साहित होकर पंचोली ने प्राण को अपनी बहुचर्चित फिल्म ‘खानदान’ (1942) में अभिनेत्री नूरजहां के समक्ष बतौर एक रोमांटिक हीरो प्रस्तुत किया। नूरजहां उस समय केवल 12/13 वर्ष की थी और उसका कद भी बहुत छोटा था। क्लोज-अप शॉटस के दौरान नूरजहां को ईंट-पत्थर पर खड़ा करना पड़ता था ताकि वह प्राण की ऊंचाई से मेल खा सके! फिल्म ‘खानदान’ की जादुई सफलता ने उन्हें अग्रणी अभिनेता के रूप में स्थापित कर दिया था। उन्होंने लाहौर में बनी बीस-बाईस फिल्मों में नायक और सह-नायक की भूमिकाएं निभाई थीं।
फिर नया सफर
इसके उपरांत उन्होंने बंबई आकर पंजाबी फिल्म ‘छई’ (1950) में एक हास्य भूमिका की थी। फिल्म ‘फुम्मन’ (1951) में वह गीता बाली के सम्मुख नायक की भूमिका में नज़र आए थे। उन्होंने ‘मुटियार’ (1951) और ‘वसाखी’ (1951) में भी काम किया था। हिंदी फिल्मों में व्यस्तता के कारण, वह कुछ वर्ष तक पंजाबी सिनेमा से लुप्त हो गए थे। उन्होंने ‘नानक दुखिया सब संसार’ (1971) में एक सुधारवादी निहंग-सिंह की सकारात्मक भूमिका को बखूबी निभाया था।
संघर्ष का दौर भी
विभाजन के बाद, उन्हें बंबई में काम के लिए बहुत धक्के खाने पड़े! होटल का बिल चुकाने के लिए अपनी पत्नी के गहने भी बेचने पड़े। लाहौर के मित्रों सादत हसन मंटो के सौजन्य से बंबई में पहली फिल्म बॉम्बे टॉकीज की ‘जिद्दी’ (1948) साइन की। फिर एक हफ्ते में, उसे तीन और फिल्में ‘गृहस्थी’, ‘अपराधी’ और ‘पुतली’ मिल गईं। जब प्राण ने एवीएम की पहली हिंदी फिल्म ‘बहार’ साइन की, तो फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा, वह सफलता के अनगिनत सौपान चढ़ते हुए आगे बढ़े।
जो अदाएं बन गयीं ट्रेडमार्क
प्राण ने हीरोइन गीता बाली के सामने धुएं के छल्ले उड़ाते हुए फिल्म ‘बड़ी बहन’ (1949) में एंट्री की थी। फिल्म ‘दस लाख’ (1966) में वह सिगार पीते हुए प्रवेश करते हैं। फिल्म ‘मर्यादा’ में वह एक अनूठा करतब दिखाते हैं। प्राण की ये अदाएं उनका ट्रेडमार्क बन गईं थीं। धूम्रपान उस दौर में आम लोगों में फैशन व आधुनिकता माना जाता था। परन्तु तंबाकू सेवन से जानलेवा कैंसर होने के कारण अब धूम्रपान के दृश्यों और प्रचार-प्रसार को पूर्णतया वर्जित कर दिया गया है।
सैकड़ों फिल्में, यादगार भूमिकाएं
मूल रूप से सौम्य-सज्जन विलियन, प्राण ने सेल्युलाइड पर घाघ सहजता के साथ बुराई के अनंत रंगों को चित्रित किया। उन्होंने सकारात्मक भूमिकाओं के लिए सफल क्रॉसओवर करते हुए ‘उपकार’ और ‘जंजीर’ फिल्मों में दो यादगार भूमिकाएं निभाई थीं। अधिकांश फिल्मों में उनका नाम कलाकारों की सूची के अंत में बड़े अक्षरों में ‘और प्राण’ लिखा जाता था। उन्होंने हिंदी के अतिरिक्त तेलुगू, कन्नड़, पंजाबी, बंगाली व अन्य भाषाओं की लगभग साढ़े तीन सौ फिल्मों में अभिनय किया। सिनेमा में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हें कई पुरस्कार प्रदान किये गए। साल 2001 में प्राण भारत सरकार द्वारा ‘पद्म भूषण पुरस्कार’ से अलंकृत किए गए और 2013 में उन्हें ‘दादा साहब फाल्के पुरस्कार’ से भी सम्मानित किया गया है। प्राण कृष्ण सिकंद का 93 वर्ष की आयु में 12 जुलाई, 2013 को निमोनिया से निधन हो गया।
‘प्राण’ का अर्थ जीवन है, और प्राण कभी मरा नहीं करते!