शारा
‘मेरा रंग रूप बिगड़ गया, मेरा यार मुझसे बिछुड़ गया,
जो चमन खिजां से उजड़ गया, मैं उसी की फसले-बहार हूं,
न किसी की आंख का नूर हूं न किसी के दिल का करार हूं। ’ या
‘बात करनी थी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी।’
और भी कई और कभी न भूल पाने वाली अमर रचनाओं पर अपनी कलम चलाने वाले बहादुर शाह की असली हालत देखनी हो तो लालकिला फिल्म देख लीजिए। आप को पता चल जाएगा हिंदुस्तान की मुगल सल्तनत का यह आखिरी बादशाह किस कदर बेघर हुआ। रातोंरात दिल्ली के सिंहासन से बेदखल करके बादशाह को रंगून के काले पानी में रखा गया अपने परिवार और अजीजों से दूर करके। उस निपट अकेली ज़िंदगी में भी उनकी सृजनता को ब्रिटिश साम्राज्य छीन न सका। उन्होंने उस वक्त भी बेहद उम्दा शे’र कहे :-
‘कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें, इतनी जगह है कहां दिले-दागदार में। लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में।’
इसी ग़ज़ल का एक लोकप्रिय शे’र फ्लैश बैक के पाठकों के जेहन में होगा-
‘कितना बदनसीब है जफर कफन के लिए, इतनी जगह भी न मिली कू-ए-यार में।’
इस फिल्म को बनाया था नानाभाई भट्ट ने, वही भट्ट जो महेश भट्ट व मुकेश भट्ट के पिता थे जिन्हें यशवंत भट्ट के नाम से भी जानते हैं। वह शुरू-शुरू में मूलत: कहानी लेखन का काम करते थे इसलिए आरंभ में उन्होंने बटुक भट्ट के नाम से भी पटकथाएं लिखीं। उनकी नौ संतानों में मुकेश, महेश व रॉबिन भट्ट भी शामिल थे जिन्हें बॉलीवुड में भट्ट बंधु कहा जाता है। बाद में उन्होंने दर्जनों फिल्में प्रोड्यूस कीं तथा डायरेक्ट भी कीं। लालकिला भी उनमें से एक है जिसे नानाभाई भट्ट ने 1960 में रिलीज किया था। बड़ी मजेदार बात यह है कि इसके सारे गीत बहादुर शाह जफर के लिखे हैं। 1960 तक तो बहादुर शाह जफर जीवित नहीं थे, मगर उनकी बेहद मकबूल रचनाओं को नानाभाई भट्ट ने उन्हें फिल्म के गीतों का रूप दे दिया और उनका यह प्रयोग बेहद सफल रहा। एसएन त्रिपाठी ने जैसा संगीत दिया है, लगता है, ये ग़ज़लें ऐसी ही गायी गयीं होंगी और फिर आवाज ने इन रचनाओं को और भी ऊंचा उठा दिया। लता, मोहम्मद रफी, शमशाद बेगम के सुरों में ये ग़ज़लें रच बस गयीं। इस फिल्म की नायिका थीं निरूपा राय यानी अमिताभ बच्चन की फिल्मी मां। तब निरूपा राय जैसी हीरोइनों का ही बोलबाला था। हीरो तो जयराज थे जिन्हें फ्लैशबैक के पाठक कम ही जानते होंगे। मगर ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के लिए यह फिल्म देखनी जरूरी है। यह काल 1857 के आसपास का है जब छोटी-छोटी रियासतों के राजा आपस में लड़ रहे थे और गोरी हुकूमत इसका फायदा उठा रही थी क्योंकि गोरी सरकार ईस्ट इंडिया कंपनी के जरिए तब भारत में पैठ बना चुकी थी। हर छोटी-बड़ी रियासत को उसने किसी न किसी तरह अपने शिकंजे में फंसा लिया था। अब उनकी निगाहें लालकिले पर थीं जहां हिंदुस्तान का बादशाह बहादुर शाह जफर आसीन था। फिल्म की बात शुरू करने से पूर्व इस बादशाह के जीवन पर कुछ प्रकाश डाल दूं तो पाठकों को फिल्म बेहतर ढंग से समझ आयेगी। वैसे भी पीरियड फिल्में समझना दिक्कत का काम है। बहादुर शाह जफर उर्फ मिर्जा अबु जफर सिराजुद्दीन मुहम्मद मुगल सल्तनत के आखिरी बादशाह थे। वह अकबर द्वितीय के दूसरे बेटे थे। वह अपने बड़े बेटे जहांगीर द्वितीय को गद्दी पर बैठाना चाहते थे, लेकिन जहांगीर द्वितीय ने चूंकि अंग्रेजों के आवास पर हमला कर दिया था फलस्वरूप अंग्रेजों ने जहांगीर द्वितीय को बंदी बना लिया था, लिहाजा अंतिम राजशाही का मुकुट बहादुर शाह जफर के हिस्से आया। मुगलिया सल्तनत क्या थी—बस मुट्ठीभर रियाया के राजा। बहादुर शाह का शासन सिर्फ शाहजहांपुर तक ही महफूज था। हां, अंग्रेजों को लालकिला जरूर चुभ रहा था। बहादुर शाह जफर के चार बेगमों से 16 बच्चे थे। शायद यही कारण है कि उनके वंशजों की आज भी कोई न कोई ख्वाबो-खबर मिल ही जाती है। अभी ताजा-तरीन बनायी गयी एक डाक्यूमेंटरी फिल्म में उनकी बेटी कलसूम जमानी के जलावतन होने की कहानी है कि कैसे आधी रात को उसके अब्बा ने उन्हें उनके शौहर व छोटी बेटी समेत लालकिले से भागने की सलाह दी थी क्योंकि सुबह होते ही उन्हें भी जलावतन कर दिया जाना था। कलसूम कैसे भागी थी और आखिर मेें वह मक्का मदीना फिर बगदाद में भी रही थी। नौ बरस के बाद जब वह स्वदेश लौटी थी काफी गुहारों के बाद तो अंग्रेजों ने उन्हें 10 रुपये मासिक पेंशन देेने की बात मानी थी। शायद हिंदुस्तान की कीमत अंग्रेजों ने इतनी ही आंकी थी। लालकिला की कहानी 1857 के गदर में शामिल ‘विद्रोहियों’ की कहानी है जिसे परोक्ष रूप से जफर मदद कर रहे थे। वैसे भी जफर कवि हृदय थे इसलिए क्या हिंदू क्या मुसलमान सभी के लिए उनका रवैया एक सा था। इसलिए अंग्रेजों के खिलाफ एकमुश्त होकर लड़ने वाली रियासतों ने उन्हें हिंदुस्तान का राजा घोषित कर दिया और जफर को विद्रोह का नेतृतव संभालना पड़ा। जो फौजें रियासतों ने भेजी थीं, उनका और अपनी फौज का कमांडर अपने बेटे मिर्जा को सौंपकर खुद जफर विद्रोहियों के साथ अज्ञात स्थान पर चले गये। जैसे ही विद्रोह भड़का दिल्ली की सीमाओं पर लुटेरों ने लूटपाट कर दी। लालकिले की जेल में बंद कई बंदियों की सामूहिक हत्या कर दी। बद-अमनी देखकर अंग्रेजों ने मौका देखा और उन्होंने जफर के पुत्रों की हत्या कर दी। खुद भागे जफर को उन्होंने हुमायूं मकबरे से कैद करके रंगून भेज दिया जहां बीमार हालत में 87 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गयी।
दरअसल यह मूवी दिल्ली के लालकिले के बहाने 1857 मेें उठे विद्रोह के इतिहास पर से पन्ने पलटती है। इसी लालकिले को जफर ने उन विद्राेह के शहीदों को समर्पित किया था जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के सर्वनाश के लिए पहली कील ठोकी थी। किस प्रकार सदियों पुरानी मुगलिया सल्तनत का कुछ ही दिनों में काम तमाम हो गया। इसी लालकिले में सागर सिंह हिंदू विद्रोहियों ने अपने आपको अंग्रेजी हुकूमत से छिपाया था। अंग्रेजों ने जो खून की होली खेली, उसे रोकने के लिए कई संतों, जिनमें रमदास का नाम भी लिया जाता है, के अलावा लक्ष्मी जैसी राजपूत वीरांगनाओं के नाम भी लिये जाते थे जिन्होंने तलवार उठायी थी। हिंदुस्तानी तो इस मौत के तांडव को रोकने की कोशिश कर ही रहे थे, अंग्रेजों में मेजर टेलर व उनकी बेटी हेलन भी काफी बीच-बचाव कर रहे थे। लेकिन लालकिला पर हुई कार्रवाई के बाद समूचे देश में विद्रोह की ज्वाला भड़क उठी। ब्रिटिश फौज से बगावत करने वाले मंगल पांडे भी इसका उदाहरण हैं। फिल्म की कहानी कुछ और नहीं, बल्कि 1857 के गदर की ही कहानी है। बाकी फिल्म देखने पर पता लगेगा।
निर्माण टीम
प्रोड्यूसर : एचएल खन्ना
निर्देशक : नाना भाई भट्ट
गीत : बहादुर शाह जफर, भरत व्यास
संगीत : एसएन त्रिपाठी
सितारे : निरुपाराय, जयराज, हेलेन, कमल कपूर आदि
गीत
चमकेंगे बनके सितारे : रफी
जा रे गोकुल के नटखट चोर : लता, मोहम्मद रफी
लगता नहीं है दिल मेरा : रफी
लालकिला : मोहम्मद रफी, शमशाद बेगम
न किसी की आंख का नूर हूं : मोहम्मद रफी
ओ जाने वाले मेरा जीवन तेरे हवाले : लता मंगेशकर
प्यारा प्यारा यह समां : लता