शारा
‘आरजू’ और ‘मेरे महबूब’ में अपने उत्कृष्ट अभिनय की छाप छोड़ने वाली साधना के करिअर की बुलंदियों को नया आसमान देने वाली फिल्म ‘मेरा साया’ भी है। दरअसल, इस फिल्म को संगीत-निर्देशक मदन मोहन और गीत रचयिता मेहंदी अली हसन की फिल्म के तौर पर याद किया जाता है, मगर इसे राज खोसला की सस्पेंस फ़िल्मों की तिकड़ी के रूप में भी याद किया जाता है। साधना के साथ राज खोसला की केमिस्ट्री खूब बनती थी। एक निर्देशक के रूप में उनकी हीरोइन के रूप में पहली पसन्द साधना ही हुआ करती थीं। तभी तो उन्होंने तीनों ही सस्पेंस मूवीज में साधना को बतौर नायिका चुना था। ‘वो कौन थी’ में उनके हीरो थे मनोज कुमार। ‘अनीता’ मनोज कुमार के साथ दूसरी सस्पेंस थ्रिलर थी और बतौर निर्देशक राज खोसला की तीसरी फिल्म। दूसरी फिल्म में साधना के साथ सुनील दत्त हीरो थे। लेकिन ‘मेरा साया’ में वह सभी कुछ था जो एक मसाला फिल्म के हिट होने के लिए चाहिए। हीरो- हीरोइन की ऑन स्क्रीन केमिस्ट्री मन्त्र विमुग्ध व चालित करता सस्पेंस तो था ही, लेकिन आपकी स्मृतियों में बसने वाला संगीत, अदालती सीन (बेशक बेतुके ही हों) गुदगुदाने वाली कॉमेडी, रोमांस बरसाते सीन, संवाद और कहानी को कहने का अंदाज-160 मिनट तक आप बोर नहीं होते, मनोरंजन के पॉपकॉर्न खाते-खाते। यह सब निर्देशक की सोच थी इसलिए ही तो वह ‘मेरा साया’ को ‘वो कौन थी’ व ‘अनीता’ की तरह विशुद्ध सस्पेंस थ्रिलर बनाने से बचा पाये। ऐसा करते भी क्यों नहीं आखिर यह पंजाबी पुत्त गुरुदत्त का सहायक रह चुका था, जिसने ‘बम्बई का बाबू’ और सीआईडी (गुरुदत्त) में विभिन्न निर्देशकों को सहयोग दिया था। रोमांस की पिक्चराइजेशन में जितनी बड़ी आंख राज खोसला के पास थी, किसी अन्य निर्देशक के पास नहीं। ‘एक मुसाफिर एक हसीना’ साधना की इस मूवी को देख लीजिए। फिर ‘दो बदन’ फिल्म को भी लोग नहीं भूले होंगे। ‘मेरा गांव मेरा देश’, जिस फिल्म ने ‘शोले’ जैसी फिल्म के लिए पृष्ठभूमि तैयार की। प्रेम कहानी, ‘दो रास्ते’ में प्रेम को नफ़ासत देने वाले राज खोसला की कौन-कौन सी फ़िल्मों के नाम लूं। इस फिल्म के संगीतकार मदन मोहन से आजकल की पीढ़ी बहुत ज्यादा परिचित नहीं होगी। पहले वह सेना में लेफ्टिनेंट थे। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होते ही सेना छोड़कर गाने-बजाने के काम में आ गए। घरवालों की इच्छा के खिलाफ। इनके पिता राय बहादुर चुनीलाल बम्बई टॉकीज के मालिकों में से एक थे। इसलिए वह नहीं चाहते थे कि उनका बड़ा बेटा छोटे-मोटे निर्माताओं के पास नौकरी मांगने जाए। यह बात अलग है कि चुनीलाल ने अपने छोटे बेटे प्रकाश को फोटोग्राफी का कोर्स कराने के लिए विदेश भेजा था ताकि वह फिल्मों की सिनेमैटोग्राफी कर सके। शुरू-शुरू में चुनीलाल बगदाद में रहते थे। बाद में वह लाहौर आ गए। यहीं पर मदन मोहन की प्रारंभिक संगीत शिक्षा हुई। घरवालों की मर्जी के खिलाफ उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो लखनऊ और बम्बई में भी काम किया। शुरू-शुरू में वह ग़ज़लों के लिए प्रोग्राम किया करते थे। यहीं उनकी मुलाकात बेगम अख्तर और तलत महमूद जैसी फिल्मी हस्तियों से हुई। उन्हीं के सहयोग से उन्होंने फिल्मों में जो पैर रखा तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। पाठकों को उनका संगीत शायद याद नहीं आ रहा हो। ‘वीरजारा’ फिल्म के गीतों को जो धुनें दी हैं, वे सभी उन्हीं के ही नोट्स थे जो उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे संजीव के सौजन्य से बीआर चोपड़ा ने इस्तेमाल किये थे। फिल्म हकीकत (पुरानी), मौसम, दस्तक, अनपढ़ के गीतों को धुनें देने वाले मदन मोहन ही थे। ‘मेरा साया’ फिल्म में भी जो धुन फिल्म के बैक ग्राउंड में चलती है—‘तू जहां-जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा।’ लगता है कि कोई आत्मा ही गुनगुना रही होगी। यह संगीत भी देने वाले मदन मोहन ही थे। प्राय: ऐसा होता है कि फिल्मों में एक-दो ही गीत लोकप्रिय होते हैं लेकिन मदन मोहन के संगीत की बदौलत ‘मेरा साया’ के सभी गीत लोकप्रिय हुए। ‘बरेली के बाजार में झुमका गिरा’ को कितनों ने गाया होगा। हर पार्टी में बजने वाला गीत। रफी द्वारा गाया गीत ‘आपके पहलू में आ कर रो दिए’ हर चोट खाए मजनूं के गले की शोभा बनता है। ‘नैनों में बदरा छाए’ ब्याहता युवतियों का अपने प्रेमी-पति को निमंत्रण है। सभी गाने साठ और सत्तर के दशक के लोगों के पसंदीदा रहे हैं। साधना और सुनील दत्त की एक्टिंग इस फिल्म में सिर चढ़कर बोली है। कोर्ट रूम में सुनील दत्त की जिरह (बेशक फिल्मी ही सही) बाद की फिल्मों के लिए लाइट-हाउस की माफिक रही। हालांकि, सुनील दत्त का समीक्षकों को कोर्ट रूम में शर्ट उतारना अटपटा-सा लगा, मगर फिल्म दीवानों को यह ठीक लगा। इस फिल्म की शूटिंग उदयपुर में हुई थी और उदयपुर की झीलों को जितना खूबसूरत इस फिल्म में दिखाया गया, वैसा किसी अन्य फिल्म में नहीं। शुरू-शुरू में यह फिल्म बांग्ला भाषियों को इसके टॉपिक के कारण पसंद नहीं आई थी क्योंकि बांग्ला में ‘मेरा साया’ का अर्थ है साड़ी और पेटीकोट। मतलब मेरी साड़ी और पेटीकोट। लेकिन फिल्म की गम्भीरता उन्हें फिल्म को देखने के बाद पता चली। यह फिल्म बॉक्स आफिस पर खूब कमाऊ फिल्म साबित हुई। देखते ही देखते सुपर हिट हो गयी। यह फिल्म 1966 में रिलीज हुई थी और मराठी फिल्म ‘पठलाग’ की रीमेक है। फिल्म की स्टोरी शहर के नामी वकील ठाकुर राकेश सिंह की पत्नी गीता की मौत से शुरू होती है। ठाकुर राकेश सिंह अपनी पत्नी के निधन से टूट-सा गया है और हर दम पत्नी की यादों में खोया रहता है। उसकी यह हालत उस वक्त सुधरने लगती है, जब पुलिस उसकी पत्नी गीता जैसी रैना नामक लड़की को गिरफ्तार करती है जो स्वयं को ठाकुर राकेश सिंह की पत्नी बताती है। यही वह किरदार है जो कहानी को आगे बढ़ाता है कि कैसे विदेश पढ़ने गए ठाकुर राकेश सिंह को अपनी बीमार पत्नी की सूचना मिलती है जिसे वह ठीक-ठाक छोड़कर आया था। हालांकि, अपने तीन साल के वैवाहिक जीवन में उसने कभी भी अपनी पत्नी गीता को बीमार नहीं देखा था। फिक्रमंद ठाकुर राकेश सिंह स्वदेश लौटते हैं लेकिन दस मिनट के बाद ही गीता उसकी बाहों में दम तोड़ देती है (मानो उसी का ही इन्तजार कर रही हो, बॉलीवुड फिल्मों का यह पसन्दीदा सीन है, जिससे कई फिल्में शुरू होती हैं)। उसके बाद वह गीता की याद में दीवाना-सा हो गया। उसकी दीवानगी की नींद तब टूटती है जब पुलिस अफसर दलजीत उसे महिला से मिलवाता है। उसे देख राकेश भी हैरान हो जाता है कि दो महिलाओं की सूरत इतनी कैसे मिलती है? मुकदमे के दौरान गीता उसे दोनों के बीच अंतरंग क्षणों के बारे में बताती हैं तो ठाकुर राकेश को गहन आश्चर्य होता है। कोर्ट में वह लड़की ठाकुर राकेश के हर सवाल का ठीक से जवाब देती है और बताती है कि उसका तीन दिन पहले अपहरण हुआ था। हालांकि, ठाकुर राकेश सिंह के मंगलसूत्र और डायरी के सवाल पर झूठी पड़ जाती है। फैसला अपने हक में न आते देख वह कोर्ट में बेहोश हो जाती है। जज उसे मेंटल अस्पताल भेज देते हैं जहां से वह हर रात घर आ जाती है और ठाकुर राकेश सिंह को वह पूरी कहानी बताती है कि उस रात क्या हुआ था? कि गीता की एक अन्य बहन निशा भी थी, जिसकी शादी एक डाकू से हुई थी क्योंकि वह भी उसकी मां की तरह डाकू ही थी। गीता ने ठाकुर राकेश से लव मैरिज के लिए यह राज छुपाया था क्योंकि ठाकुर राकेश का उच्च घराना था। जब राकेश विदेश गया हुआ था निशा एक दिन बीमार हालत में गीता के घर छुपती-छिपाती आयी थी। उसने गीता से एक दिन के लिए शरण मांगी थी। गीता उसके लिए दवा लेने बाजार गयी और जाने से पूर्व वह अपने कपड़े व मंगलसूत्र पहना गयी थी ताकि घरवालों और नौकरों को शक न हो। लेकिन छिपकर बैठे निशा के पति ने निशा समझ गीता को ही अपहृत कर लिया। जब निशा के पति रणजीत (प्रेम चोपड़ा) को गीता का पता चला तो वह उसे वापस गीता के घर छोड़ना चाहता था। गीता यह कहानी ठाकुर राकेश को सुना रही थी तभी रणजीत छिपते-छिपाते वहां पहुंच जाता है और इस पर सहमति प्रकट करता है। चारों ओर पुलिस पहरे से घिरी हवेली पर रणजीत पर ताबड़-तोड़ गोलीबारी होती है और वह निशा की स्मारक छतरी पर दम तोड़ देता है जबकि ठाकुर राकेश और गीता फिर मिल जाते हैं। कहानी खत्म।
निर्माण टीम
निर्देशक : राज खोसला
प्रोड्यूसर : प्रेम जी
मूल कहानी : पठलाग (1964 की मराठी फिल्म)
पटकथा : जीआर कामथ
संवाद : अख्तर-उल-रहमान
गीत : राजा मेहंदी अली खान
संगीत : मदन मोहन
सिनेमैटोग्राफी : वी. बाबासाहब
सितारे : सुनील दत्त, साधना, केएन सिंह, प्रेम चोपड़ा
गीत
झुमका गिरा रे : आशा भोसले
आपके पहलू में आकर रो दिये : मोहम्मद रफी
तू जहां-जहां चलेगा, मेरा साया साथ होगा : लता
नैनों में बदरा छाये : लता
नैनों वाली ने हाय मेरा दिल लूटा : लता मंगेशकर