डॉ. मोनिका शर्मा
इंसानों के लिए याद रखने के नाम पर बीते कल की स्मृतियां भर नहीं होतीं। रोजमर्रा की जिन्दगी में भी बहुत कुछ याद रखना जरूरी होता है। वरना संवाद-प्रतिवाद से लेकर दैनिक कामकाज को पूरा करने तक, मुश्किलें बढ़ जाती हैं। चिंतनीय है कि आम जीवन से जुड़ी सहज गतिविधियों को भी भूल जाने की बीमारी अब स्वास्थ्य से जुड़ा एक बड़ा खतरा बन रही है। डिमेंशिया के मरीजों के बढ़ते आंकड़े बताते हैं कि कुंद होती यादzwj;्दाश्त अब केवल जीवन के आखिरी पड़ाव पर पहुंचे बुजुर्गों की परेशानी भर नहीं रही। द लैंसेट जर्नल में छपी हालिया रिपोर्ट बताती है कि 2050 तक दुनिया में डिमेंशिया से पीड़ित लोगों की संख्या 5.7 करोड़ से बढ़कर 15.2 करोड़ से ज्यादा हो जाएगी। हमारे देश में भी कमजोर होती यादzwj;्दाश्त के मरीज तेजी से बढ़ रहे हैं। लैंसेट में प्रकाशित यही रिपोर्ट बताती है कि अगले तीन दशक में देश में इस बीमारी के मरीजों की संख्या में 197 फीसदी तक इजाफा होगा। नतीजतन, भारत में करीब 1.14 करोड़ मरीज इस बीमारी का शिकार बन चुके होंगे।
अनगिनत मुश्किलों की वजह
तकलीफदेह है कि मात्र सोचने-समझने और चीज़ों को रखकर या बातों को बोलकर भूल जाने की यह समस्या जिन्दगी को हर मोर्चे पर मुश्किल बना देती है। घर का रास्ता भूल जाने से लेकर असुरक्षित सामानों को छूने, रंगों और चित्रों को पहचानने में दिक्कत आने से लेकर बोलने-लिखने की परेशानी आती है वहीं अपनों को न पहचानना, अवसाद और अकेलेपन जैसे तकलीफदेह नतीजे इस बीमारी से जुड़े हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस बीमारी को मृत्यु के मामले में 7वां प्रमुख कारण माना है। डब्ल्यूएचओ के आंकड़े बताते हैं कि डिमेंशिया की व्याधि के हर साल करीब एक करोड़ मामले सामने आते हैं। इतना ही नहीं, दुनियाभर में इस बीमारी के शिकार 60 फीसदी मरीज निम्न और मध्य आय वाले देशों में रहते हैं।
रोग का बढ़ता दायरा
चिंतनीय है कि कम उम्र में ही धुंधलाती याददाश्त कई समस्याओं का सबब बन जाती है। दिमाग की क्षमता का लगातार कम होते जाना असुरक्षा से लेकर अवसाद तक, हर समस्या के बढ़ते जाने के डरावने हालात बना देता है। कभी जिन्दगी से जुड़े दायित्व के निर्वहन के बाद गिनती के लोगों को यह परेशानी घेरती थी। तब घर-परिवार के लोग भी उनके आसपास होते थे। बच्चों का साथ-सहयोग बहुत कुछ भुला देने के बाद भी जीवन से जोड़े रखता था। मौजूदा हालात में अकेले रह रहे बुजुर्गों और घर से दूर जिन्दगी की जद्दोजहद को जी रहे छोटी उम्र के लोगों में घटती यादzwj;्दाश्त कई तकलीफों की वजह बन गई है। गौरतलब है कि डिमेंशिया से जुड़ी सबसे आम परेशानी अल्जाइमर्स रोग है। सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक, अल्जाइमर्स आमतौर पर 60 साल की उम्र के बाद व्यक्ति को अपना शिकार बनाता है। बढ़ती उम्र इस बीमारी का जोखिम बढ़ाती जाती है। अब कम उम्र में ही यह समस्या लोगों को घेरने लगी है।
तकनीक भी जिम्मेदार
दरअसल, हालिया बरसों में बदली जीवनशैली ने इस व्याधि को भी बढ़ाया है। स्मार्ट गैजेट्स ने विजुअल माध्यम की भूमिका बढ़ा दी है। हर मुठ्ठी में मौजूद जानकारियों की स्क्रीन ने दिमाग पर जोर डालकर सोचने और याद रखने की जरूरत कम कर दी है। यह शोध भी बताता है कि शारीरिक, सामाजिक और मानसिक गतिविधियों में कमी स्मृति कम होने के जोखिम को और बढ़ाती है। दुखद यह भी कि इस बीमारी को लेकर लोगों में जागरूकता की कमी है। वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों के मुताबिक, इस रोग में दिमाग के अंदर अलग-अलग प्रोटीन बनने के चलते मस्तिष्क के टिश्यूज़ पर असर पड़ता है। जो सीधे-सीधे इंसान की यादzwj;्दाश्त, समझने की क्षमता और कहने-सुनने की मानसिक स्थिति को प्रभावित करता है। लैंसेट आयोग ने बारह कारणों की एक फेहरिस्त को प्रमुख रूप से इसका जिम्मेदार माना है। इनमें शिक्षा का निम्न स्तर, उच्च रक्तचाप, सुनने की क्षमता में कमी, मोटापा, अवसाद, शारीरिक गतिविधि की कमी, डायबिटीज, सामाजिक संपर्क में कमी जैसे जोखिम शामिल हैं।
जरूरी हैं बचाव के प्रयास
निस्संदेह, डिमेंशिया के कारणों की सूची को देखते हुए जीवनशैली में बदलाव कर कुछ हद तक धुंधलाती स्मृतियों की समस्या का सामना किया जा सकता है। छोटी उम्र में तो इसका शिकार होने से बचना संभव है ही। इसके लिए सामाजिक-शारीरिक सक्रियता, दिमागी कसरत, स्मार्ट गैजेट्स के इस्तेमाल में अनुशासन और प्रकृति से जुड़ाव काफी मददगार साबित हो सकता है। इस बीमारी के प्रति सतर्कता और जागरूकता वाकई जरूरी है। ताकि समय रहते इसके संकेत पहचाने जाएं। बचाव के लिए जरूरी चिकित्सकीय सलाह ली जाए।