बीते कुछ वर्षों में मानसून बाढ़ और बादल फटने जैसी विभीषिकाएं साथ लाने लगा है जो जान-माल की भारी क्षति करती हैं। इसीलिए इसे मौसम बम कहा जाने लगा है। त्रासदी के बाद अकसर मौसम विभाग निशाने पर होता है। वहीं क्लाउड बर्स्ट या बाढ़ की घटनाओं के पीछे कई तकनीकी तौर पर उन्नत देशों की साजिश की थ्योरीज भी सामने आई हैं जिसके कोई पुख्ता प्रमाण नहीं। वहीं दूसरी ओर यह तथ्य साफ है कि बड़े शहरों के प्रदूषण के चलते अर्बन हीट जैसी वजहें भी मौसम बम से कम नहीं।
डॉ. संजय वर्मा
मॉनसून हमारे देश की अर्थव्यवस्था का अहम आधार है- दशकों से कही जा रही इस बात से शायद ही किसी को इनकार हो। लेकिन मॉनसून सीजन के दौरान होने वाली बारिश के विस्तार और वितरण ने हाल के वर्षों में चर्चा पकड़ ली है। इससे संबंधित दर्ज किया जा रहा तथ्य यह है कि देश के कुछ इलाकों में लोग मॉनसूनी बारिश के चलते बाढ़, बादल फटने और औसत से कई गुना ज्यादा बरसात से हलकान हैं। वहीं दूसरी ओर बारिश औसत के आसपास भी नहीं फटक रही है। हाल ही में राजस्थान के कई जिले ज्यादा बारिश से प्रभावित रहे हैं, तब बिहार, झारखंड, उ. प्र. और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में बारिश औसत से 50-60 फीसदी कम रही। इन राज्यों में जून करीब सूखा गुजरा, जिससे कपास, चावल और सब्जियों की बुआई प्रभावित हुई। बुआई में 19 फीसदी कमी का दावा किया जा रहा है। अक्सर बारिश के उतार-चढ़ाव के गलत अनुमान चर्चा में आ जाते हैं। भारतीय मौसम विभाग को कोसा जाता है कि वह सही पूर्वानुमान नहीं पेश कर पाता है। पर क्या समस्या सिर्फ मौसम विभाग के अंदाजों का गलत होना है या मामला कुछ और है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इंसानी गतिविधियों ने मौसम को बम ही बना डाला है।
मौसमी बदलावों की जानकारी में नाकामी का एक मुद्दा जम्मू-कश्मीर में आठ जुलाई 2022 को बादल फटने की घटना के बाद उठा। इस घटना में पवित्र अमरनाथ यात्रा के लिए पहुंचे करीब डेढ़ दर्जन लोगों की बादल फटने से मौत हो गई। इस घटना का पूर्वानुमान इलाके में मौजूद 15 ऑटोमैटिक वेदर स्टेशन क्यों नहीं लगा पाए- इसे लेकर बहस पैदा हुई। सवाल उठा है कि एक घंटे में सौ मिलीमीटर या इससे ज्यादा बारिश कराने में बादलों का मूवमेंट और उनका वहां जमा होना महज एक असामान्य बात भर है या फिर इसके पीछे कोई साजिश है, इसका अंदाजा हमारी एजेंसियां क्यों नहीं लगा पाईं। हालांकि जब प्रशासन और सरकारों को ऐसी अनहोनियों की कोई ठोस वजह समझ में नहीं आती, तो पड़ोसी मुल्कों की साजिश वाला एंगल अक्सर सामने लाया जाता है। ऐसा एक आकलन हाल में हमारे पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी का हवाला देकर चर्चा में आए पाकिस्तानी स्तंभकार-पत्रकार नुसरत मिर्जा ने किया है।
कॉन्सपिरेसी थ्योरीज़ या साज़िशों की परिकल्पना पेश करने में माहिर नुसरत मिर्जा ने अपने भारत दौरों में यहां से जुटाई गई जानकारियां पाक-खुफिया एजेंसी आईएसआई से साझा करने के अलावा जो एक अन्य बात कही है, वह ‘पाकिस्तान में भूकंप और जापान में सूनामी के लिए अमेरिका को जिम्मेदार’ ठहराने के संदर्भ में है। हालांकि नुसरत इन प्रस्थापनों के लिए भी कोई ठोस तर्क नहीं दे पाए। इसके लिए वह अलास्का में अमेरिका द्वारा बनाए गए एक ऐसे रहस्यमय सिस्टम का दावा करके रह गए, जो उनके अनुसार दुनिया के किसी भी हिस्से का मौसम अतिवादी ढंग से बदल सकता है। ऐसे अंदाजों को भारत से जोड़ने से पहले सवाल यह है कि क्या वास्तव में कोई देश अपने पड़ोस या दुनिया के किसी हिस्से का मौसम बदल सकता है। क्या वह मौसमी बदलाव को हथियार के रूप में इस्तेमाल कर सकता है।
नुसरत मिर्जा ने इसके लिए जैसी साजिशों का संकेत किया है, उसके कुछ उदाहरण मिलते हैं। जैसे 12 बरस पहले लद्दाख में 150 जिंदगियां लीलने वाले बादल फटने (क्लाउड-बर्स्ट) की घटना के पीछे चीन का हाथ होने की कुछ चर्चाएं मीडिया में आई थीं। दावा किया गया कि लेह पर बरसे तबाही के बादल दरअसल चीन की कठपुतली थे। कोल्ड डेजर्ट रीजन कहलाने वाले लेह-लद्दाख में सामान्य बादलों को बादल-बम में बदलना चीनी वैज्ञानिकों के बाएं हाथ का खेल था, इससे संबंधित दावे के मुताबिक उन्होंने बादलों को क्लाउड सीडिंग तकनीक से खास इलाके में बेइंतहा बारिश के लिए मजबूर कर दिया। बीजिंग ओलंपिक्स 2008 में बादल कोई शरारत नहीं कर पाए- इसके पीछे नकली बारिश की इसी तकनीक का रोल बताया गया था। क्लाउड सीडिंग यानी विमानों या रॉकेटों से बादलों पर सिल्वर आयोडाइड या ठोस कार्बन डाईऑक्साइड का छिड़काव किया गया, जिससे इच्छित वक्त और इलाके में बारिश करा ली गई। बताते हैं कि ओलंपिक खेलों के दौरान बारिश रोकने के लिए चीन में सिल्वर आयोडाइड से भरे 1000 से ज्यादा रॉकेट छोड़े गए और बारिश समारोह की जगह पर न कराके बीजिंग के दूसरे दूरदराज के इलाकों में कराई गई। कहा जाता है कि चीन ने अपने इस प्रयोग को 2010 में लेह पर दोहराया जो लेह के लिए एक त्रासदी में बदल गया। हैरानी नहीं कि जून, 2013 में केदारनाथ त्रासदी के पीछे भी कुछ लोगों ने चीन के वेदर बम की भूमिका का उल्लेख किया था।
भारत आती नदियों में ज्यादा पानी छोड़कर या सरहद से सटे इलाकों में कृत्रिम झील बनाकर चीन कैसे हमारी मुसीबतें बढ़ा सकता है, इसकी कुछ और नज़ीरें दी जा चुकी हैं। दो साल पहले (2020 में) तिब्बत में बनाई जा रही कृत्रिम झील अरुणाचल प्रदेश की सियांग नदी घाटी में भारी तबाही ला सकती है- यह चिंता उस वक्त जताई गई थी। कांग्रेस प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने आरोप लगाया था कि मोदी सरकार इसकी अनदेखी कर रही है कि अरुणाचल प्रदेश को हथिया लेने के मंसूबे के तहत चीन तिब्बत में यारलुंग त्सांगपो पर झील बना रहा है। सिंघवी ने इस गतिविधि को चीन के ‘वॉटर बम’ की संज्ञा देकर मामले को अंतर्राष्ट्रीय विवाद समाधान परिषद में ले जाने की मांग की थी। मौसम के बम बन जाने के प्रतीक की चर्चा सिर्फ भारत, पाकिस्तान या चीन तक सीमित नहीं है।
दुनिया भर में मौसम की मार
फरवरी 2022 में ऑस्ट्रेलिया के क्वींसलैंड प्रांत में आई बाढ़ ने दर्जनों शहरों को अस्त-व्यस्त कर दिया और करीब दर्जन भर जानें ले लीं। ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने इस भारी बारिश को ‘मौसमी बम’ करार दिया। वहीं जर्मनी में पिछले साल हुई बारिश और बाढ़ ज्यादातर शहरों पर किसी बम की तरह फटी और देखते-देखते एक विकसित राष्ट्र को बेपटरी कर दिया। ब्रिटिश चैरिटेबल संस्था क्रिश्चियन ऐड का आकलन है कि पिछले साल दुनिया के विभिन्न देशों को 10 बड़ी मौसमी आपदाओं ने बाढ़, आगजनी, तूफान, सूखे और लू के रूप में सताया, जिससे 170 अरब डॉलर से ज्यादा का नुकसान हुआ। इनमें 1075 से ज्यादा मौतें हुईं और 13 लाख से ज्यादा लोग विस्थापित हुए। जन-धन की इतनी हानि बड़े बम के धमाके से कम नहीं है। ज्यादा मुश्किल भारत-बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों की है क्योंकि जलवायु परिवर्तन की भूमिका नगण्य है। इस पर मौसम को बम की तरह इस्तेमाल कर उन्हें दूसरे दर्द और दिए जा रहे हैं। हालांकि इस मामले में जेजी से फैल रहे इन देशों के शहरों को बरी नहीं किया जा सकता।
अपने शहर भी कठघरे में
तीन साल पहले 2019 में अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन के जियोफिजिकल रिसर्च लेटर जर्नल में प्रकाशित एक शोधपत्र ‘अर्बन हीट आईलैंड ओवर दिल्ली पंचेज होल्स इन वाइडस्प्रेड फॉग इन द इंडो-गैंगेटिक प्लेन्स’ में भारतीय शहरों को मौसमी बम तैयार करने के मामले में कठघरे में खड़ा किया गया था। शोधपत्र में बताया गया कि साल 2017 में राजधानी दिल्ली में पिछले 17 सालों के मुकाबले प्राकृतिक कोहरे का सबसे कम असर इसलिए हुआ था, क्योंकि यहां वाहनों के धुएं आदि से पैदा हुए प्रदूषण और गर्मी ने कोहरे में छेद कर दिए थे। आईआईटी, मुंबई और देहरादून स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ पेट्रोलियम एंड एनर्जी स्टडीज ने अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के 17 सालों के उपग्रह डाटा का विश्लेषण कर तैयार कर कोहरा छंटने की प्रक्रिया को फॉग होल नाम देते हुए बताया था कि वर्ष 2017 में दिल्ली में जनवरी में 90 से ज्यादा फॉग होल हो गए थे।
– लेखक बेनेट यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।