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जहां सुबह की धूप खिले चिड़ियों की बोली से

भरतपुर

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भरतपुर, राजस्थान का मोहक बर्ड सेंचुरी, जहां सर्दियों में देश-विदेश से पर्यटक और लंबी उड़ान भरने वाले विदेशी पक्षी एकत्रित होते हैं। केवलादेव घना राष्ट्रीय उद्यान में 230 से अधिक पक्षी प्रजातियां देखी जा सकती हैं। सुबह की पैदल सैर, कलरव और प्राकृतिक नजारों का आनंद अनूठा अनुभव देती है।

सर्दियों में आसपास के प्रदेशों से ही नहीं, सात समुद्र पार के देशों से भी सैलानी भरतपुर उमड़ पड़ते हैं। विदेशी परिंदे भी लम्बी उड़ान भरते-भरते यहीं डेरा डालने आने लगते हैं। पहले यही भरतपुर बर्ड सेंचुरी (पक्षी विहार) कहलाता था, अब नाम है केवलादेव घना राष्ट्रीय उद्यान। ​फैला है करीब 29 वर्ग किलोमीटर इलाके में और यहां कम से कम 230 प्रजातियों के पक्षियों के दीदार होते हैं। कभी भरतपुर के राजा की शिकारगाह था, आज जानी-मानी बर्ड सेंचुरी है। और तो और, आज इसे देश की सबसे ज्यादा घूमने वाली बर्ड सेंचुरी कह सकते हैं।

सर्दियों के अलावा बाकी मौसमों में भी बढ़-चढ़कर अलग- अलग आकर्षण होते हैं। वसंत तो और भी खास है- घोसले बनाने का मौसम जो होता है। फिर बारिशों के दिन नवजात परिन्दों के कूदने-फुदकने का दौर और भी मतवाला लगता है।

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अलग-अलग वक्त में सैर

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भरतपुर का भरपूर मज़ा लूटना चाहें, तो दिन के अलग- अलग समय जंगल- जंगल की पैदल सैर पर निकलिए। सबसे पहले सुबह- सवेरे पक्षियों की दुनिया में पहुंच जाएं और मधुर कलरव का आनन्द लीजिए। सुबह-सवेरे की सैर का मतलब है कि पार्क के मेन गेट पर साढ़े 6 बजे तक हर हाल में पहुंच जाएं। टिकट लीजिए और फिर गाइड जरूर बुक कर लीजिए। भीतर मोटर- कारें मना हैं, इसलिए साइकिल रिक्शा की सवारी ले सकते हैं। खुद साइकिल चलाना चाहें, तो भी हाज़िर है। पक्षियों को बेहतर ढंग से निहारने के लिए पगडंडियों के किनारे-किनारे चलने की सलाह दी जाती है। सबसे पहले प्रमुख ताल सपन मोरी का रुख कीजिए, जहां से दाएं मुड़ कर केवलादेव (शिव) मन्दिर आता है। सर्दियों में तो इस रास्ते गुजर कर, दूधिया सफेद साइबेरियन सारस जैसे स्टार मेहमानों को देखने का नायाब मौका हाथ लगता है।

पानी में परिन्दों के खेल-कूद को देखने रोशन दिन में जाना बेहतर है। और सूरज ढलने के साथ रात के परिन्दों से रू-ब-रू होना भी अनुभव है। अपने साथ दूरबीन जरूर रखें, ताकि दूर-दूर चिड़ियों को करीब से निहारने में मदद मिल सके। भरतपुर का पूरा मज़ा लेने वाले टूरिस्ट बताते हैं कि अपने साथ डॉ. सलीम अली की किताब ‘बर्ड्स ऑफ भरतपुर’ रखने और बीच-बीच पन्ने पलटने से साहूलियत रहती है।

अजगर देखने का रोमांच

दोपहर के बाद की सैर भी कम रोमांचक नहीं है। दोपहर के वक्त परिन्दे तो कम ही दिखाई देते हैं, लेकिन यहां- वहां अजगर को नजदीक से देखने का मौका जरूर मिलता है। अजगरों का डेरा सपन मोरी से ज्यादा दूर नहीं है। खामोश रहें और शोर-शराबा न मचाएं, तो बिलों के इर्द-गिर्द गोल-गोल मोटे-मोटे गुच्छेदार सुस्ताते अजगर देख-देख अचरज होता है। वहीं ज़रा आगे बढ़ते-बढ़ते बड़ी-बड़ी बत्तखों को देख-देख मन खिल उठता है। कहीं-कहीं तो छोटी-छोटी बत्तखों के झुंड के झुंड पर्यटकों को घेर लेते हैं। कभी-कभार तो घने जंगलों में सियार भी दिख जाते हैं। अगर बोटिंग का सीजन चालू है, तो बोटिंग का निराला लुत्फ क्या मजेदार है।

गाइड की अहमियत

भरतपुर की बर्ड सेंचुरी की सैर का भरपूर मज़ा गाइड के बगैर अधूरा ही समझिए। गाइड भांति-भांति के पक्षी- परिन्दों के नाम बताते जाएंगे और सभी एकदम सही भी होंगे। कमाल की बात तो यह है कि गाइड की नज़रें इस कदर दूरी तक देख सकती हैं, जिसे आम आदमी दूरबीन से बमुश्किल देख पाता है। यहीं नहीं, गाइड बखूबी बताने में सक्षम हैं कि साइबेरियन सारस फिलहाल किस ठिकाने पर मौजूद है। असल में, गाइड हरदम घूमते रहते हैं और सेंचुरी के चप्पे-चप्पे के वाकिफ होते हैं। सभी गाइडों को वन विभाग से बाकायदा ट्रेनिंग दी जाती है। इसलिए वह टूरिस्ट को परिन्दों की आदतों और रोजमर्रा के कार्यक्रमों से परिचय करवाना नहीं भूलते। इससे सैलानी अगले दिन खुद ही सैर पर निकल सकते हैं। और अगर सैलानी साइकिल चलाने से परहेज करना चाहें, तो गाइड ई-रिक्शा चालक बनकर डबल रोल निभाने में जुट जाता है।

डीग और लोहागढ़ के किले

नजदीक ही है डीग, महज 32 किलोमीटर परे। विशाल किले का दिलकश राजस्थानी शहर है। यह भरतपुर की दूसरी राजधानी भी कहलाता था। यहीं राजा सूरजमल ने मुगल और मराठों की 80,000 जवानों की साझी फौज पर फतह हासिल की थी। जीत से उत्साहित होकर राजा सूरज मल ने दिल्ली के लाल किले पर भी हमला बोला था। ​डीग किले की 28 मीटर ऊंची दीवारें देखने लायक हैं। राजा सूरजमल का महल तो और भी खास है। गाइड राजा और महल की कई सुनी-अनसुनी कहानियों से रू-ब-रू करवाते हैं। महल से श्री हनुमान मन्दिर को जाता गुप्त रास्ता जरूर देखना बनता है। महाराजा इसी रास्ते से रोज मन्दिर माथा टेकने जाते थे।

लोहागढ़ का किला भी ज्यादा दूर नहीं है। राजा सूरजमल ने 18वीं सदी में बनवाया था। मुगल और राजपूत आर्किटेक्चर का अद्भुत नमूना है। किले में म्यूजियम भी है, जहां प्रांत की कला और संस्कृति की झांकी प्रस्तुत की गई है। ऐसा सुन्दर और दिलचस्प है कि सैलानी देखना पसन्द करते हैं।

डीग में लालकिले का झूला

दिल्ली के लाल किले के अंदर सावन और भादों नाम के दो मंडप हैं। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की जानकारियों के मुताबिक़ शुरुआती दौर से सावन और भादों मंडपों के बीच संगमरमर का नक़्क़ाशीदार, मेहराबनुमा और खूबसूरत झूला बना था। शाही झूला ज़ंजीरों से लटकता था। हालांकि इस पर सभी बेगमें शौक़ से झूलती थीं, लेकिन बेगम नूर जहां के झूलने का ख़ास ज़िक्र मिलता है। भरतपुर के राजा सूरजमल (1707- 1763) के नेतृत्व में राजपूतों ने लाल क़िले पर धावा बोला। इसी दौरान, साल 1754 में झूला लूट कर ले गए और उसे ले जाकर, राजा सूरजमल ने अपने भरतपुर स्थित डीग महल में लगवा दिया। जहां आज भी शान से शोभा बढ़ा रहा है।

रक्त-रंजित क्रूरता का इतिहास

भरतपुर बर्ड सेंचरी का इतिहास सवा तीन सौ साल पीछे तक जाता है। साल 1726 से 1763 के बीच महाराजा सूरज मल ने बाणगंगा और गम्भीर नदियों के संगम स्थल पर बांध की स्थापना की थी। फिर 1850 से 1899 के मध्य समूचे जंगली इलाके को हिरणों के शूटिंग साइट के तौर पर रिजर्व किया गया। 1925 आते-आते भरतपुर शिकार विभाग से हटकर वन विभाग के तहत आ गया। 12 नवम्बर, 1938 को शिकार दस्ते की कार्रवाई के दौरान, भारत के वायसराय लॉर्ड लिनलिथगोउ ने 4,273 पक्षियों को मार गिराया था। यह अब तक का सबसे ऊंचा शिकार आंकड़ा है। साल 1956 में, भरतपुर बर्ड सेंचुरी में तब्दील हो गया। और 1965 तक शिकार का अधिकार केवल भरतपुर के राजा के हाथों में रहा। इसी साल आखिरी दफा बंदूक से तेंदुए का वध किया गया। और 1985 में पार्क वर्ल्ड हेरिटेज साइट करार दिया गया।

कब जाएं और दूरी

राजस्थान में है भरतपुर। दिल्ली से करीब 185 किलोमीटर दूर है। सड़क के रास्ते पहुंचने में करीब 4 घंटे लगते हैं। रेल से करीब 3 घंटे में पहुंच जाते हैं। नजदीकी रेलवे स्टेशन भरतपुर जंक्शन है। हवाई सफ़र से जाना चाहें तो दिल्ली से आगरा उड़ान (करीब 35 मिनट में) से, फिर आगे करीब डेढ़ घंटे में 60 किलोमीटर का सड़क सफर तय कर भरतपुर पहुंच सकते हैं।

भरतपुर की सैर के लिए अक्तूबर से मार्च तक सबसे बढ़िया वक्त है। दिसम्बर और जनवरी में तो बेशक कड़ाके की ठंड पड़ती है, फिर भी घूमना-फिरना मजेदार है। गर्मियों में तो पूरा इलाका तपता है। सो, तब न जाना ही बेहतर है।

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