प्रतिभा नैथानी
पहाड़ों-जंगलों में जितना भरपूर प्राकृतिक सौंदर्य बिखरा होता है उतनी ही प्रचुरता वहां कुदरती उगने वाले फलों-फूलों व अन्य खाद्य पदार्थों की भी होती है। मिसाल के तौर पर, उत्तराखंड व हिमाचल के पर्वतीय क्षेत्रों के जंगलों में बहुतायत में उगने वाले मौसमी प्राकृतिक फलों हिसालु, किनगोड़ा व काफल को ही लें। इनका स्वाद बागों में उगाये गये फलों से बेशक अलग हो लेकिन कम हरगिज नहीं। जानिये इन फलों के बारे में –
रसभरा हिसालु
बूंदी के लड्डू जैसे दिखने वाले नन्हे-नन्हे फल को ‘हिसालु’ कहा जाता है। कांटेदार झाड़ियों में उगते हैं। क्या कहें कि इनका स्वाद क्या होता है! अमृत जैसा अगर कुछ है तो वो हिसालु का रस है। उत्तराखंड के पहाड़ों से अन्यत्र यह फल नहीं देखा। यहां भी यह सिर्फ़ जंगलों में मिल सकता है। गर्मियों की सुबह गाय-भैंस चराने जाते लोग दोपहर में अपने साथ अक्सर हिसालु लेकर आते हैं। यह फल रसभरा अधिक होता है इसलिए इसे तोड़ना भी चुनौतीपूर्ण है। हिसालु की कंटीली झाड़ियों में हाथ डालकर पत्तों की कटोरी में इन्हें इकट्ठा करना जैसे मधुमक्खियों के छत्ते से शहद निकालना। बचपन में एक-दो बार यह जतन इस लेखिका ने भी किया है। इसके अद्भुत स्वाद पर तुरंत दादी की याद आई थी। सोचा कुछ उनके लिए भी तोड़ कर ले जा लूं तो कैसा लगेगा! कटोरी भर हिसालु देखकर दादी अचंभित रह गई थीं। नाजुक हाथों पर पड़ी खरोंचों को जाने कितनी देर तक वो चूमती रहीं। कहती रहीं ‘अब कभी हिसालु की झाड़ियों की तरफ़ नहीं जाना’।
नन्हीं लड़ियों सा किनगोड़ा
ऐसी ही हिदायत दादी तब भी देती थीं जब बच्चों के नीले दांत देखकर उन्हें पता चल जाता था कि वे किनगोड़ा खाकर आए हैं। किनगोड़ा नन्ही लड़ियों सा लटकता बैंगनी रंग का फल होता है। हिसालु की तरह ही इसका झाड़ भी बहुत कांटेदार होता है, उससे कुछ ज्यादा ही। स्वाद में इसका भी जवाब नहीं। खाने लगो तो फिर खाते ही जाओ। अगल-बगल से चुभ रहे कांटों की कोई परवाह नहीं।
काफल यानी जंगल में मंगल
जंगल में मंगल लेकर इन दिनों एक और फल आता है -‘काफल’। काफल का झाड़ नहीं होता बल्कि पूरा पेड़ होता है। फल पहले ही बहुत छोटे होते हैं उस पर इनके अंदर गुठली भी होती है। रंग में बैंगनी के साथ गुलाबी मिला लीजिए तो तैयार हो गया काफल का रंग। हिसालु और किनगोड़ा की तरह ही जेठ के महीने में प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला यह फल बस 10-15 दिन का ही मेहमान होता है। इसे तोड़ पाना बच्चों के बस की बात नहीं होती। पेड़ पर चढ़ने के अभ्यस्त बड़े लोग ही इन्हें तोड़कर कंडी में लेकर आते हैं। इनमें सरसों का तेल और नमक मिलाकर फिर सबको बांटा जाता है। यह ऐसे फल हैं जो आपको शहर की मंडियों में नहीं मिलेंगे। इनके लिए पहाड़ के जंगलों की ख़ाक छाननी ज़रूरी है। काफल भले ही दिख जाए मगर तोड़ने के बाद एक दिन से ज़्यादा रखने पर मुरझा जाता है। मन भी काफल सा सूखने लगता है जब जेठ के महीने में हिसालु और किनगोड़ा याद आते हैं। तीन दशक से ज़्यादा बीते गांव छोड़े हुए, और ठीक इतने ही बरस हुए जब आख़िरी बार यह सब चखे थे।