
इशिता चौधरी का सरोकार बेशक ग्रामीण महिलाओं खासकर लड़कियों की सेहत व सफाई पर अकादमिक कार्य से था लेकिन उसने उनकी जिंदगी के विभिन्न आयामों पर समग्र दृष्टिकोण बतौर ‘जखीरा-ए-जुनून’ सामने लाने की गंभीर कोशिश की। गर्मी में, राजस्थान के गांवों में लोगों के बीच रहकर उनके परिवेश का हर पहलू महसूस करना, तस्वीरों में सहेजना और पुस्तक रूप देना आसान तो नहीं।
अरुण नैथानी
तीन राज्यों की आधुनिक राजधानी में संपन्न परिवार में नाजों से पली एक बेटी अपनी वातानुकूलित सुख-सुविधाएं छोड़ कर जून की तन झुलसाती गर्मी में राजस्थान के गांव-गांव में महिलाओं के दुख-दर्द महसूस करने पहुंचे तो अचरज ही होता है। पंजाब विश्वविद्यालय में सेंटर फॉर सोशल वर्क की छात्रा रही इशिता चौधरी अपने पाठ्यक्रम का व्यावहारिक ज्ञान चंडीगढ़ के आसपास के किसी गांव से भी हासिल कर सकती थी। लेकिन उसने अलग राज्य की भिन्न ग्राम्य संस्कृति वाले गांवों को चुना। पत्थरों का शहर कहे जाने वाले चंडीगढ़ की इस बिटिया की संवेदनशीलता गजब की है। वह जून माह में करीब दो दर्जन गांवों में खाक छानती रही। यह प्रोजेक्ट सेंटर फॉर कम्युनिटी इकनोमिक्स एंड डेवलपमेंट कंसल्टेंट्स सोसायटी (सीइसीओइडीइसीओएन) नामक संस्था जयपुर के तहत था जिसकी संचालन शाखा सिलकी डूंगरी, चाकशू थी। यह महज अकादमिक दृष्टि से औपचारिक यात्रा नहीं थी, उसने ग्राम्य जीवन के यथार्थ, रस्म-रिवाजों व रूढ़ियों में बंधे महिला जीवन की टीस करीब से महसूस की। वहीं इन अनुभवों की अपने आई फोन से खींची तस्वीरों को संजोकर एक कॉफी टेबल बुक को साकार किया। कहते हैं कोई एक जीवंत चित्र हजार शब्दों के गहरे अहसास दे जाता है, उसे सार्थक किया। बोलते चित्र ग्राम्य जीवन की खूबसूरती, जीवंतता व विसंगतियों का खाका उकेर देते हैं।
पांच खंडों में यथार्थ की छवियां
पांच खंडों में विभाजित यह किताब जीवंत फोटोग्राफी के जरिये बिना सौंदर्य प्रसाधन के ग्रामीण महिला की खूबसूरती को उकेरती है। इशिता चौधरी की पुस्तक ‘जखीरा ए जुनून’ सही मायनों में समाज सेवा के जुनून का दस्तावेज ही है। जिसमें ग्रामीण बचपन की मासूमियत, ग्रामीण जीवन की सादगी, सरलता और जीवट के संघर्ष शिद्दत से उभरते हैं। ऐसे इलाके में जहां इंटरनेट नहीं है, अस्पताल नहीं है और बिजली का आना-जाना लगा रहता है, लेकिन लोग फिर अपनी फकीरी में मस्त हैं। जिन सुविधाओं के उपलब्ध होने पर शहरी लोग पल-भर में बेचैनी से भर जाते हैं, ग्रामीण जीवन में लोग उसे आसानी से नजरअंदाज कर देते हैं।
बेटी का बालपन, मां का संघर्ष
अपने इस सर्वेक्षण में इशिता ने महिलाओं में कुपोषण, मासिक धर्म से जुड़ी स्वच्छता, स्वावलंबन के लिये सहकारिता के आर्थिक उपाय, बच्चों की शिक्षा, लड़कियों के साथ भेदभाव तथा ग्रामीण जीवन के तमाम पक्षों से जुड़े तथ्यों को जुटाया। इस दौरान जयपुर के निकट स्थित एक जनपद के 27 गांवों में सर्वेक्षण के दौरान इशिता ने जातिवादी संस्कृति के दंश भी गहरे तक महूसस किये। जिसका वर्गीकरण उनके पहनावे व खान-पान तक में नजर आता है। लेकिन वह इस बात को शिद्दत के साथ महसूस करती हैं कि ग्रामीण महिलाओं के चेहरे पर तमाम विसंगतियों के बावजूद एक अनूठी चमक नजर आती है। उनका दृष्टिकोण मानवीय है और गांव के लोग गहरे तक एक दूसरे के सुख-दुख के साझेदार रहते हैं। मकानों के नंबर नहीं हैं लेकिन हर किसी के ध्यान में हैं। ग्रामीण जीवन में बच्चों द्वारा रेत-मिट्टी से सफाई करना इशिता को चौंकाता है। लेकिन इन गांवों में इशिता पूरी तैयारी से पहुंची। उसने एक महीने पहले बिना एसी व इंटरनेट के अभ्यास करके अपनी यात्रा को अंजाम दिया। स्कूलों में हाथ से घंटी बजा मिड-डे मील की सूचना व छुट्टी होते देखना उसे रोमांचित कर गया।
अभावों की टीस, उद्यम की राह
इशिता ने महसूस किया कि कैसे ग्रामीण महिलाओं के स्वयं सहायता समूह वित्तीय प्रबंधन और लोन लेने में सहभागिता करते हैं। कैसे महिलाएं व बेटियां छोटी दुकान से घर की आर्थिक मदद करती हैं। इसके बावजूद कि बेटियों को पढ़ाई-लिखाई के अवसर बेटों जैसे नहीं मिले हैं। आधे घंटे की दूरी पर अस्पताल होने के बावजूद लोग चिकित्सा सुविधाओं का लाभ नहीं उठा पाते हैं। लेकिन इशिता ने इस काम को महज इंटर्नशिप की तरह अंजाम न दिया बल्कि ग्राम्य जीवन से गहरे तक रूबरू हुई और उसमें रम कर अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। ग्रामीणों की सहजता-प्रेम से इशिता अभिभूत हुई। उन महिलाओं ने उसे गहरे तक प्रभावित किया जो अपने हाथ में फलां व्यक्ति की पत्नी का टैटू बनवाए हुई थी। वहीं पेयजल सुविधाओं का अभाव तथा खुले में शौच की समस्या इशिता को जरूर परेशान करती रही।
अनूठी पहल पर प्रतिसाद
बहरहाल, गांव-गांव भाषा के लहजे में विभिन्नता, नारी सशक्तीकरण की तस्वीर तथा समृद्ध सांस्कृतिक विरासत ने इशिता को गहरे तक प्रभावित किया। जब उसने अपने अनुभवों पर यह जीवंत किताब लिखी तो अपने शिक्षकों व मार्गदर्शकों का सकारात्मक प्रतिसाद मिला। पंजाब वि.वि. में सेंटर फॉर सोशल वर्क विभाग के चेयरपरसन डॉ. गौरव गौर इशिता के प्रेरक कार्य व पुस्तक छपने से खासे आह्लादित हैं। वे गर्व से कहते हैं कि ऐसा जमीनी काम करके उसे पुस्तक के रूप में प्रकाशित करने वाली विभाग की पहली छात्रा हैं। अध्ययन के दौरान भी उसका काम प्रशंसनीय रहा। वि.वि. में स्कूल ऑफ कम्युनिकेशन्स स्टडी की चेयरपर्सन डॉ. भवनीत भट्टी उसके काम की मुक्त कंठ से प्रशंसा करती हैं। विश्वविद्यालय की वाइस चांसलर के साथ ही एडिशनल सॉलिसिटर जनरल ऑफ इंडिया एवं पूर्व सांसद सत्यपाल जैन तथा शहर के अन्य प्रतिष्ठित लोगों ने भव्य समारोह में पुस्तक जखीरा-ए-जुनून का विमोचन करके इशिता चौधरी के मनोबल को बढ़ाया। निश्चित रूप से इशिता की पहल नई पीढ़ी के लिये प्रेरणादायक है।
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