डॉ. मोनिका शर्मा
बीते कुछ बरसों में वैवाहिक रिश्तों को जोड़ने से लेकर निभाने तक कई बदलाव आये हैं। कुछ बदलाव वाकई सकारात्मक हैं तो कई बातों का छूट जाना जज्बातों को फीका भी कर रहा है। ऐसे में रिश्ते बिखर रहे हैं। रिवायतें बोझ लगने लगी हैं। आधुनिकता के नाम पर जीवन में आने वाला हर बदलाव खुलापन ही नहीं बल्कि कई ख़ामियां भी साथ ला रहा है। ऐसे में इस बदलाव की दिशा को लेकर सोचना जरूरी है, क्योंकि दो इन्सानों का यह रिश्ता दो पीढ़ियों का सेतु होता है। वैवाहिक जीवन की बुनियाद पर हमारी पारिवारिक-सामाजिक व्यवस्था टिकी है। मौजूदा दौर में इस नींव को मजबूती देने की जिम्मेदारी लड़के-लड़की दोनों के हिस्से है। थोड़ी सी समझ और सहज तालमेल का भाव सम्बन्धों को निभाने का आधार बन सकता है।
संवेदनाओं के धरातल पर शुरुआत
शादी को ज़िंदगी की नई शुरुआत भी माना जाता है। नए रिश्तों से मिले अपनेपन की नई दुनिया में कदम रखते ही अनगिनत खुशियां आपके हिस्से आती हैं। अपनों का साथ और संबल जीवन में दस्तक देते हैं। मगर ये कुछ जिम्मेदारियां और चुनौतियां भी लाते हैं। इसीलिए बहुत सहज और व्यावहारिक ढंग से इस रिश्ते की शुरुआत होनी चाहिए। जीवनसाथी ही नहीं, परिवारजनों के साथ भी सहज और स्नेहभरा रिश्ता बनाने के लिए पति-पत्नी न तो एक-दूसरे से अजब-गज़ब वादे करें और न ही मन में कोई नकारात्मक इरादे रखें। शुरुआत का समय एक-दूसरे को समझने में लगाना चाहिए। आजकल छोटी-छोटी बातों पर पति-पत्नी अपनी राहें अलग कर रहे हैं। ऐसे में रिश्ते के पहले सोपान पर ही सही समझ भरी बुनियाद बनना जरूरी है। शुरुआती तालमेल उम्रभर के इस रिश्ते को पुख्ता बुनियाद देता है। भावनाओं से पोषण पाने वाले शादी के रिश्ते में आज भी साथ, संवाद और संवेदनाएं ही अहम हैं।
परंपरा के सकारात्मक रंग रहें
कहा गया है कि ‘दूसरों के जीवन में शामिल होना और दूसरों को अपने जीवन में शामिल करना ही संस्कृति है।’ हमारी संस्कृति के अनगिनत रंगों और परम्पराओं के मेल का सुंदरतम उदाहरण है शादी का रिश्ता। शादी से जुड़ी रस्मों के सकारात्मक पक्ष से जुड़कर जीवन में खुशियों के रंग भरे जा सकते हैं। हल्दी, मेहंदी की रस्मों में कहीं न कहीं एक-दूसरे के रंग में रंग जाने का संदेश है तो सात फेरों की रिवायत अपने हक़ और जिम्मेदारियों को समझने की रीत। शादी के रिश्ते के लिए जरूरी स्नेह और सामंजस्य की सीख हमारी परम्पराओं का अहम हिस्सा है। सुखद है कि रीत-रिवाज़ और परम्पराओं का स्वरूप तो समय संग नहीं बदला, पर उन्हें निभाने के तौर-तरीके ज़रूर बदल गए हैं। अब यह बंधन नहीं बल्कि भावनाओं के स्तर पर मन-जीवन को जोड़ने वाले साबित हो रहे हैं। सकारात्मक रंग समेटते हुए नई जिंदगी का स्वागत हो।
अपनों के साथ को जियें
ससुराल हो या मायका, दोनों ही घरों से जुड़े लोग आपके वैवाहिक जीवन के हर सरोकार से ताल्लुक रखते हैं। उनका साथ भी इस रिश्ते की निबाह में बहुत अहमियत रखता है। आज की युवा पीढ़ी इस साथ को बंधन समझने लगी है। जबकि भावी जीवन में आने वाले सुख-दुख और संघर्ष पूर्ण परिस्थितियों में सिर्फ पति-पत्नी ही नहीं उनके परिवार जन भी साथ होते हैं। इसीलिए अपनों को भी स्नेह और सम्मान आवश्यक है। नई रिश्तेदारी के सभी संबंधों की नींव प्यार, भरोसे और सम्मान पर ही टिकी होती है। इस लगाव को मजबूती देने में अपनों का रोल अहम होता है- यह वैवाहिक रिश्ते की शुरुआत कर रहे युवक-युवतियां दोनों समझें। आज़ादी और आदर एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। कभी आप उनकी बात समझें और कभी अपना नज़रिया उन्हें समझायें। अपनेपन के खुशनुमा साथ को जीने के लिए बड़ों से मिलने वाले संबल के मायने समझना बेहद आवश्यक है।
भावनात्मक जुड़ाव के मायने समझें
शादी को केवल ज़िन्दगी साथ बिताने वाला रिश्ता नहीं बल्कि आत्मिक संबंध भी कहा गया है। इसीलिए इस गठजोड़ में आपसी विमर्श, मान-सम्मान और सकारात्मक सहभागिता आदि हर पहलू पर बात होनी चाहिए। जीवनसाथी से दुराव-छिपाव नहीं होना चाहिए। मन की कहने-सुनने के साथ ही कैरियर और व्यक्तिगत आज़ादी के जुड़ी कई बातों को समझना भी जरूरी है। ऐसे अहसास ही इस बंधन को मजबूती देते हैं, जो एक-दूसरे की ज़रूरतों को समझने का आधार बन सकें। आमतौर पर इन बातों को समझने की अपेक्षा दुल्हन से ही की जाती है। लेकिन आजकल शिक्षित कामकाजी युवतियां जब जीवनसंगिनी बनती है तो उनकी भी ऐसी ही उम्मीदें होती हैं। पति और परिवारजनों से सहयोग की उनकी भी अपेक्षाएं होती हैं। उनकी भागमभाग को भी समझने और सराहने की दरकार होती है। वहीं कई बार नई पीढ़ी बड़ों की बातों-जज्बातों को ज़्यादती समझने की गलती करती है। बहू हों या दामाद, आप अपने अभिभावकों की तरह ही जीवनसाथी के माता-पिता के भाव और जुड़ाव को समझने का प्रयास करें।