राम लोकमंगलकारी हैं। गरीब नवाज हैं। मर्यादित व्यक्तित्व के स्वामी हैं। राम नाम पर देश में आदर्श शासन की कल्पना हुई। उसी रामराज्य के सपने को पूरा करने के लिये गांधी अंग्रेजी साम्राज्य से लड़ गये। राम जाति-वर्ग से परे हैं। रिश्तों में संस्कारों की मर्यादा है। शासक के रूप में नीति कुशल और न्याय प्रिय , लेकिन लोकतांत्रिक व सामूहिकता को समर्पित। तभी गांधी जी ने देश को एकता के सूत्र में पिरोने के लिये राम की मर्यादित तस्वीर उकेरी।
हेमंत शर्मा
ये राम का देश है। यहां कण-कण में राम हैं। भाव की हर हिलोर में राम हैं। कर्म के हर छोर में राम हैं। राम यत्र-तत्र हैं। राम सर्वत्र हैं। जिसमें रम गए वही राम है। यहां सबके अपने-अपने राम हैं। गांधी के राम अलग हैं। लोहिया के राम अलग। वाल्मीकि और तुलसी के राम में भी फर्क है। भवभूति के राम दोनों से अलग हैं। कबीर ने राम को जाना। तुलसी ने माना। निराला ने बखाना। राम एक ही हैं पर दृष्टि सबकी भिन्न। भारतीय समाज में मर्यादा, आदर्श, विनय, विवेक, लोकतांत्रिक मूल्यवत्ता और संयम का नाम है राम। आप ईश्वरवादी न हों, तो भी घर-घर में राम की गहरी व्याप्ति से उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम तो मानना ही पड़ेगा। स्थितप्रज्ञ, असंपृक्त, अनासक्त। एक ऐसा लोक नायक, जिसमें सत्ता के प्रति निरासक्ति का भाव है। जो जिस सत्ता का पालक है, उसी को छोड़ने के लिए सदा तैयार है।
राम हमारे देश की उत्तर-दक्षिण एकता के अकेले सूत्रधार हैं। राम अयोध्या के थे। हमारे ज़माने के महान विचारक डॉ़ राममनोहर लोहिया भी अयोध्या के ही रहने वाले थे। डॉ़ लोहिया ने हमारे तीन देवताओं को एक लाईन में परिभाषित किया है। उनका कहना है कि राम मर्यादित व्यक्तित्व के स्वामी थे तो कृष्ण उन्मुक्त और शिव असीमित व्यक्तित्व के स्वामी। राम पूरी तरह धर्म के स्वरूप हैं। जिसे राम प्रिय नहीं हैं उसे धर्म प्रिय नहीं है। कबीर राम को परम ब्रह्म मानते हैं। ‘कस्तूरी कुण्डल बसे मृग ढूंढे बन माही, ऐसे घट घट राम हैं दुनिया देखे नाहीं।’
आख़िर ये राम हैं कौन? जिनका नाम लेकर एक बूढ़ा गांधी अंग्रेज़ी साम्राज्य से लड़ गया। जिसके नाम पर इस देश में आदर्श शासन की कल्पना की गयी। उसी राम राज्य के सपने को देख देश आज़ाद हुआ। गांधी ने यही सपना देखा था। विनोबा इसे प्रेम योग और साम्य योग के तौर पर देखते थे। वाल्मीकि राम राज्य की व्याख्या करते हैं।
काले वर्षति पर्जन्य: सुभिक्षंविमला दिश:
हृष्टपुष्टजनाकीर्ण पुरू जनपदास्तथा।
नकाले म्रियते कश्चिन व्याधि: प्राणिनां तथा।
नानर्थो विद्यते कश्चिद् पाने राज्यं प्रशासति।
यानी जिस शासन में बादल समय से बरसते हों। सदा सुभिक्ष रहता हो, सभी दिशाएं निर्मल हों। नगर और जनपद हृष्ट पुष्ट मनुष्यों से भरे हों। वहां अकाल मृत्यु न होती हो, प्राणियों में रोग न होता हो, किसी प्रकार का अनर्थ न हो। पूरी धरा पर एक समन्वय और सरलता हो, प्रकृति के साथ तादात्म्य ही रामराज्य है।
निर्गुणिया कबीर भी राम की बहुरिया बन कर रहना चाहते हैं। जब मैं जीवन के सबसे कठिन दौर से गुज़र रहा था, उस वक्त यही राम मेरे भी अवलंब बने। इनके सहारे ही मैंने जीवन का सबसे बड़ा काम पूरा किया। अयोध्या पर किताब लिखने का काम। हालांकि अयोध्या से मेरा निजी, सांस्कृतिक, धार्मिक और भावनात्मक रिश्ता रहा है। बाप-दादा वहीं के रहने वाले थे। इसलिए अयोध्या मेरे संस्कारों में है। वह मन से उतरती नहीं। श्रद्धा का वह स्तर है कि मेरी दादी कभी अयोध्या नहीं कहती थीं। उनके मुंह से हरदम ‘अयोध्या जी’ ही निकलता था। इस निकटता में मैंने राम को संस्कारों में जीया है।
हमारे राम लोक मंगलकारी हैं। ग़रीब नवाज़ हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। ईक्ष्वाकू वंश के राजा थे। इक्ष्वाकू मनु के पुत्र थे। इनके वंश में आगे चल कर दिलीप, रघु, अज, दशरथ और राम हुए। रघु सबसे प्रतापी थे इसलिए वंश का नाम रघुवंश चला। रघु वंश के कारण ही राम को राघव, रघुवर, रघुनाथ भी कहा गया। महाराज दशरथ के तीन रानियां थीं लेकिन कोई पुत्र नहीं था। इसलिए उन्होंने पुत्रेष्टि यज्ञ के लिए श्रृंगमुनि को बुलाया। यज्ञ के आख़िर में अग्नि से देव प्रकट हुए और दशरथ को खीर भेंट की। दशरथ ने खीर अपनी रानियों को खिलायी। आधी खीर कौशल्या को दी, आधी कैकेयी को। दोनों ने अपने-अपने हिस्से की आधी खीर सुमित्रा को दी। नतीजतन कौशल्या ने राम को जन्म दिया व कैकेयी ने भरत को। सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुघ्न- दो जुड़वां बच्चे पैदा हुए। यही राम के होने की कहानी है।
राम का आदर्श, लक्ष्मण रेखा की मर्यादा है। लांघी तो अनर्थ। सीमा में रहे तो खुशहाल और सुरक्षित जीवन। राम जाति, वर्ग से परे हैं। नर, वानर, आदिवासी, पशु, मानव, दानव सभी से उनका करीबी रिश्ता है। अगड़े-पिछड़े से ऊपर। निषाद राज हों या सुग्रीव, शबरी हों या जटायु, सभी को साथ ले चलने वाले वे अकेले देवता हैं। भरत के लिए आदर्श भाई। हनुमान के लिए स्वामी। प्रजा के लिए नीतिकुशल न्यायप्रिय राजा हैं। परिवार नाम की संस्था में उन्होंने नए संस्कार जोड़े। पति-पत्नी के प्रेम की नई परिभाषा दी। ऐसे वक्त जब खुद उनके पिता ने तीन विवाह किए थे, पर राम ने अपनी दृष्टि सिर्फ एक महिला तक सीमित रखी। उस निगाह से किसी दूसरी महिला को कभी देखा नहीं। जब सीता का अपहरण हुआ वे व्याकुल थे। रो-रो कर पेड़, पौधे, पहाड़ से उनका पता पूछ रहे थे। इससे उलट जब कृष्ण धरती पर आए तो उनकी प्रेमिकाएं असंख्य थीं। फिर राम ने पिता की आज्ञा का पालन कर पिता-पुत्र के सम्बन्धों को नई ऊंचाई दी।
बेशुमार ताकत से अहंकार का एक खास रिश्ता हो जाता है। पर उनमें अहंकार छू तक नहीं गया था। यही वजह है कि अपार शक्ति के बावजूद राम मनमाने फैसले नहीं लेते थे। वे लोकतांत्रिक हैं। सामूहिकता को समर्पित विधान की मर्यादा जानते हैं। धर्म और व्यवहार की मर्यादा भी और परिवार का बंधन भी। नर हो या वानर, इन सबके प्रति वे अपने कर्तव्यबोध पर सजग रहते हैं। वे मानवीय करुणा जानते हैं। वे मानते हैं- परहित सरिस धर्म नहीं भाई। डॉ. लोहिया कहते हैं- ‘जब कभी गांधी ने किसी का नाम लिया तो राम का ही क्यों लिया? कृष्ण और शिव का भी ले सकते थे। दरअसल राम देश की एकता के प्रतीक हैं। गांधी राम के जरिए हिन्दुस्तान के सामने एक मर्यादित तस्वीर रखते थे।’ वे उस राम राज्य के हिमायती थे जहां लोकहित सर्वोपरि था। जो गरीब नवाज था। तुलसी कहते हैं- ‘मणि मानिक महंगे किये, सहजे तृण जल नाज। तुलसी सोई जानिए, राम गरीब नवाज।’ इसीलिए लोहिया भारत मां से मांगते हैं- ‘हे भारत माता हमें शिव का मस्तिष्क दो, कृष्ण का हृदय दो, राम का कर्म और वचन दो।’ लोहिया जी अनीश्वरवादी थे। पर धर्म और ईश्वर पर उनकी सोच मौलिक थी।
राम साध्य हैं, साधन नहीं। गांधी का राम सनातन, अजन्मा और अद्वितीय है। वह दशरथ का पुत्र और अयोध्या का राजा नहीं है। जो आत्मशक्ति का उपासक प्रबल संकल्प का प्रतीक है। वह निर्बल का एकमात्र सहारा है। उसकी कसौटी प्रजा का सुख है। यह लोकमंगलकारी कसौटी आज की सत्ता पर हथौड़े-सी चोट करती है- जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, सो नृपु अवस नरक अधिकारी। वह सबको आगे बढ़ने की प्रेरणा और ताकत देता है। हनुमान, सुग्रीव, जाम्बवंत, नल, नील सभी को समय-समय पर नेतृत्व का अधिकार उन्होंने दिया। उनका जीवन बिना हड़पे हुए फलने की कहानी है। वह देश में शक्ति का सिर्फ एक केन्द्र बनाना चाहते हैं। देश में इसके पहले शक्ति और प्रभुत्व के दो प्रतिस्पर्धी केन्द्र थे। अयोध्या और लंका। राम अयोध्या से लंका गए। रास्ते में अनेक राज्य जीते। राम ने उनका राज्य नहीं हड़पा। उनकी जीत शालीन थी। जीते राज्यों को जैसे का तैसा रहने दिया। अल्लामा इकबाल कहते हैं- ‘है राम के वजूद पे हिन्दोस्तां को नाज, अहले नजर समझते हैं, उसको इमाम-ए-हिन्द।’
राम का जीवन बिल्कुल मानवीय ढंग से बीता। उनके यहां दूसरे देवताओं की तरह किसी चमत्कार की गुंंजाइश नहीं है। आम आदमी की मुश्किल उनकी मुश्किल है। लूट, डकैती, अपहरण और भाइयों से सत्ता से बेदखली के शिकार होते हैं। जिन समस्याओं से आज का आम आदमी जूझ रहा है। कृष्ण और शिव हर क्षण चमत्कार करते हैं। राम की पत्नी का अपहरण हुआ तो उसे वापस पाने के लिए अपनी गोल बनाई। लंका जाना हुआ तो उनकी सेना एक-एक पत्थर जोड़ पुल बनाती है। वे कुशल प्रबन्धक हैं। उनमें संगठन की अद्भुत क्षमता है। जब दोनों भाई अयोध्या से चले तो महज तीन लोग थे। जब लौटे तो एक पूरी सेना के साथ। एक साम्राज्य का निर्माण कर। राम कायदे-कानून से बंधे हैं। उससे बाहर नहीं जाते। एक धोबी ने जब अपहृत सीता पर टिप्पणी की तो वे बेबस हो गए। भले ही उसमें आरोप बेदम थे। पर वे इस आरोप का निवारण उसी नियम से करते हैं जो आम जन पर लागू है। वे चाहते तो नियम बदल सकते थे। संविधान संशोधन कर सकते थे। पर उन्होंने नियम-कानून का पालन किया। सीता का परित्याग किया। तो मर्यादा पुरुषोत्तम क्या करते? उनके सामने एक दूसरा रास्ता भी था, सत्ता छोड़ सीता के साथ चले जाते। लेकिन जनता (प्रजा) के प्रति उनकी जवाबदेही थी। इसलिए इस रास्ते पर वे नहीं गए।
राम अगम हैं। संसार के कण-कण में विराजते हैं। सगुण भी हैं निर्गुण भी। कबीर कहते हैं निर्गुण राम जपहुं रे भाई। मैथलीशरण गुप्त मानते हैं कि राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय सहज सम्भाव्य है। यह राम से ही सम्भव है कि मैथली शरण गुप्त जैसा सामान्य कवि भी राष्ट्र कवि बन जाता है।
मान्यता है कि सबसे पहले राम की कथा भगवान शंकर ने देवी पार्वती को सुनाई थी। उस कथा को वहां मौजूद एक कौवे ने भी सुन लिया। उसी कौवे का पुनर्जन्म काकभुशुण्डि के रूप में हुआ। काकभुशुण्डि को पूर्व जन्म में शंकर के मुख से सुनी वह रामकथा पूरी याद थी। उन्होंने यह कथा अपने शिष्यों को सुनाई। तुलसी अपने रामचरित मानस में इसका जिक्र करते हैं। बाद में यही कथा ‘अध्यात्म रामायण’ के नाम से प्रसिद्ध हुई। हालांकि रामकथा के बारे में एक और मत प्रचलित है जिसके मुताबिक़ सबसे पहले रामकथा हनुमानजी ने लिखी ‘हनुमन्नाटक’। उसके बाद महर्षि वाल्मीकि ने संस्कृत महाकाव्य ‘रामायण’ की रचना की। ‘हनुमन्नाटक’ को हनुमानजी ने एक शिला पर लिखा था। मान्यता है कि जब वाल्मीकि ने अपनी रामायण तैयार कर ली तो उन्हें लगा कि हनुमानजी के हनुमन्नाटक के सामने यह टिक नहीं पाएगी और इसे कोई नहीं पढ़ेगा। हनुमानजी को जब महर्षि की इस व्यथा का पता चला तो उन्होंने उन्हें बहुत सांत्वना दी और अपनी रामकथा वाली शिला उठाकर समुद्र में फेंक दी, जिससे लोग केवल वाल्मीकि जी की रामायण ही पढ़ें और उसी की प्रशंसा करें। समुद्र में फेंकी गई हनुमानजी की रामकथा वाली शिला राजा भोज के समय में निकाली गयी। भगवान राम के बारे में आधिकारिक रूप से जानने का मूल स्रोत महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण है। हालांकि पुराणों में भी रामकथा का उल्लेख मिलता है। वामन, वाराह, नारदीय, लिंग, अग्नि, ब्रह्मवैवर्त, पद्म, स्कन्द, गरुड़ पुराण में रामकथा के प्रसंग हैं। रामायण संस्कृत साहित्य का आरम्भिक महाकाव्य है व अनुष्टुप छन्दों में लिखा गया है। महर्षि वाल्मीकि को ‘आदिकवि’ माना जाता है और इसीलिए यह महाकाव्य ‘आदिकाव्य’ माना गया। इस ग्रंथ में 24 हजार श्लोक, 500 उपखंड, तथा 7 काण्ड हैं। इसके रचना काल के बारे में अनेक मत हैं। कामिल बुल्के इसके रचनाकाल को 600 ईसा पूर्व मानते हैं। आठवीं शताब्दी में संस्कृत के महान कवि और नाटककार भवभूति हुए। उनकी किताब उत्तर रामचरित राम के राज्याभिषेक के बाद की कथा ज्यादा प्रभावशाली ढंग से कहती है। लोक में सबसे ज्यादा व्याप्ति तुलसी की रामचरित मानस की है। तुलसी ने लोकभाषा में रामकथा का बखान कर इसे लोक तक पहुंचाया। पन्द्रहवीं शती में लिखे इस ग्रन्थ का बड़ा हिस्सा बनारस में लिखा गया है। 7 काण्डों में बंटे रामचरित मानस में छन्दों की संख्या के अनुसार बालकाण्ड और किष्किन्धा काण्ड क्रमशः सबसे बड़े और छोटे काण्ड हैं। मध्यकाल में जब हिन्दू धर्म के ऊपर अनेक तरह के संकट थे। वेद शास्त्रों का अध्ययन कम हो गया था तो इस ग्रन्थ ने समूचे हिन्दू समाज में नए जीवन का संचार किया था। तुलसी दास ने इसे आम लोगों तक पहुंचाने के लिए रामलीलाएं भी कराईं। रामचरित मानस पर प्रत्येक हिंदू की अनन्य आस्था है और इसे हिन्दुओं का पवित्र ग्रन्थ माना जाता है।संस्कृत में रामकथा पर कालिदास का रघुवंश महाकाव्य भी है। इस महाकाव्य में 19 सर्गों में रघु के कुल में उत्पन्न बीस राजाओं का इक्कीस प्रकार के छन्दों का प्रयोग करते हुए वर्णन किया गया है। इसमें दिलीप, रघु, दशरथ, राम, कुश और अतिथि का विशेष वर्णन किया गया है। वे सभी समाज में आदर्श स्थापित करने में सफल हुए। राम का इसमें विषद वर्णन किया गया है। 19 में से छः सर्ग उनसे ही संबन्धित हैं।
अपने-अपने राम
बंगाल की कृतिवास रामायण और तमिल की कंब रामायण भारतीय भाषाओं में रामकथा की सर्वोत्कृष्ट कृति हैं। तेलुगू में बारहवीं शताब्दी में लिखी रंगनाथ रामायण, मलयालम की भास्कर रामायण, मोल्ला रामायण प्रसिद्ध हैं। गुजराती, असमिया, उड़िया और मराठी में भी रामकथा पर ग्रन्थ लिखे गए। नेपाली की अपना रामायण घर-घर में है। बौद्ध ग्रन्थों में भी इसका पर्याप्त उल्लेख है। बौद्धों ने बोधिसत्व के रूप में और जैनियों ने आठवें बलदेव के रूप में राम को अपने यहां स्थान दिया है। उनकी जातक कथाओं में राम कथा के अलग अलग सन्दर्भ हैं। पर बौद्ध धर्म सनातन धर्म के ख़िलाफ़ पैदा हुआ था इसलिए उसमें रामकथा के बिगड़े सन्दर्भ हैं।
रामकथा की व्यापकता
भारत के बाहर भी रामकथा का विस्तार व्यापक रहा है। रामायण के अध्येता फ़ादर कामिल बुल्के ने रामायण के तीन सौ आख्यानों की चर्चा की है। थाईलैंड की रामकथा रामकियेन के नाम से जानी जाती है। जबकि इंडोनेशिया में रामायण काकावी के नाम से प्रसिद्ध है। कंबोडिया में रामकेर तो बर्मा (म्यांमार) में रामवत्थु। तुर्की में रवोतानी रामायण, लाओस में फ्रलक-फ्रलाम (रामजातक)। और फिलिपींस में मसलादिया लाबन नाम से रामकथा का प्रचलन है। मलयेशिया में हिकायत सेरीराम, श्रीलंका में जानकी-हरण, नेपाल में भानुभक्त कृत रामाजान, जापान में होबुत्सुशू रामकथा पर आधारित ग्रन्थ है। चीनी साहित्य में राम कथा पर आधारित कोई मौलिक रचना नहीं हैं। लेकिन बौद्ध धर्म में त्रिपिटक के चीनी संस्करण में रामायण से संबद्ध दो रचनाएं मिलती हैं- ‘अनामकं जातकम्’ और ‘दशरथ कथानम्’। इससे चीन में भी इस कथा की व्याप्ति का पता चलता है।
नहीं कोई राम-सा
इस संपूर्ण विश्व में राम-सा चरित्र दूसरा नहीं। न कहीं राम-सी मर्यादा है, न राम-सा पौरुष और न ही राम-सी तितिक्षा। राम इस दुनिया का संतुलन हैं। अमीरों की माया है तो गरीबों के राम हैं। उनका नाम भर ही दुनिया भर के गरीब-ग़ुरबों के भीतर जीवन की कठिन से कठिन परिस्थितियों से टकराने का हौसला है। वे इस पृथ्वी पर त्रेतायुग में जन्मे, फिर यहीं के होकर रह गए। भक्तों के मोह में उन्होंने जीवन-मरण के चक्र को भी तोड़ डाला। देश के हर रामभक्त के पास उसके हिस्से की कहानियां हैं। राम कब कब और किन किन परिस्थितियों में उसकी मदद के लिए आए, उसकी ज़ुबान पर चढ़ा हुआ है। राम के आगे विज्ञान का संसार बौना है। चिकित्सा शास्त्र और रसायन शास्त्र के सूत्र अधूरे हैं। ये सब बाहरी आंखों से दीखते हैं। पर राम अंतर्मन के हैं। भाव जगत की लगन के हैं। जीवन की सृष्टि के, सृष्टि के जीवन के हैं। राम जन-जन के हैं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार तथा बहुचर्चित पुस्तक ‘अयोध्या का चश्मदीद’ व ‘युद्ध में अयोध्या’ के रचनाकार हैं।