राखी पर्व पर मन की उमड़-घुमड़ पहले की ही तरह है, लेकिन बाहर एक ‘खाौफ’ का माहौल है। सभी भाई-बहन यही दुआ कर रहे हैं कि यह खौफनाक वक्त जल्दी टले और हालात सामान्य हों। कभी दूरी के कारण डाक व्यवस्था के जरिये प्यार के संदेश भेजे जाते थे तो आज कोरोना जैसी महामारी ने दूरी को जरूरी बना दिया है। समय की रफ्तार के साथ हर त्योहार के तौर-तरीकों में बेशक बदलाव आया हो, लेकिन यादों के झरोखों से झांकें तो सबको वे भावुक पल याद आते हैं जब इंतजार होता था अपने भाई या बहन का। रक्षाबंधन के ऐसे ही पलों को याद करते हुए इसमें आये बदलावों की चर्चा कर रही हैं क्षमा शर्मा
रेलवे स्टेशन पर गाड़ियां आ रही थीं। जा रही थीं। आठ-नौ साल की बच्ची बड़ी आशाभरी नजरों से हर आती गाड़ी को देख रही थी, लेकिन जिस गाड़ी का उसे इंतजार था, उसका दूर तक पता नहीं था। जब वह रेलवे स्टेशन के लिए घर से निकली थी, तब पास से एक साइकिल सवार निकला था, उसकी साइकिल पर एक ट्रांजिस्टर लटका था। उस पर राखी के गाने बज रहे थे। वह स्टेशन पर बहुत देर से खड़ी थी, लेकिन गाड़ी आ ही नहीं रही थी। फिर अचानक अखबार बेचने वाले शर्मा चाचा जी ने उसे बताया कि अब जो गाड़ी आएगी, वह दिल्ली से ही आएगी। बच्ची खुश हो उठी। उसे डाउन हुआ सिग्नल भी दिखने लगा। जल्दी ही एक काला गोला नजर आया। फिर इंजन नजर आने लगा। गाड़ी दौड़ी चली आ रही थी। गाड़ी प्लेटफार्म पर शोर करती रुकी तो बच्ची इधर से उधर दौड़ने लगी। हर डिब्बे और दरवाजे के पास जाकर वह देखने लगी। आखिर के ब्रेक से लेकर इंजन तक दौड़ी कि अचानक गाड़ी ने सीटी बजा दी और डिब्बे खिसकने लगे और रफ्तार पकड़ ली। सवेरे से बच्ची को जिनका इंतजार था, वह बड़े भाई तो आए ही नहीं। रातभर उसे नींद भी नहीं आई थी। बड़े भाई दिल्ली के एक कॉलेज में पढ़ाते थे। उससे उन्नीस साल बड़े थे। वह अपने माता-पिता के साथ रहती थी। भाई रक्षाबंधन, होली, दिवाली पर जरूर आते थे। बाकी परिवार के लोग-चाचा, ताऊ उनके बच्चे भी इकट्ठे हो जाते थे, लेकिन इस बार गांव से कोई नहीं आया। भाई ने कहा था कि वह आएंगे, लेकिन वह भी नहीं आए। बच्ची जोर-जोर से रोती घर पहुंची। मां ने उसे समझाया कि हो सकता है गाड़ी निकल गई हो। शाम की गाड़ी से आते हों। लेकिन शाम की गाड़ी भी बिना भाई को लाए ही चली गयी। बच्ची रूठ गई। वह नाराज तो थी ही, इस बात से दुखी भी थी कि भाई के लिये उसने पिता जी से खास रेशमी राखी मंगवाई थी। अब वह राखी किसको बांधेगी।
तब पिता जी ने उसे बताया कि भाई की चिट्ठी आ चुकी है। दिल्ली में उत्तर प्रदेश की तरह राखी की छुट्टी नहीं होती है, इसलिए वह नहीं आएंगे। उस दिन उनका कालेज खुला है। नयी नौकरी है, इसलिए छुट्टी भी नहीं ले सकते। बच्ची नाराज होती हुई बोली-तो पहले क्यों नहीं बताया। इसलिए कि तू रोती और रोती ही जाती। पिता की बात सुनकर बच्ची जोर-जोर से रोने लगी। उन्होंने उसे मनाया, लेकिन वह नहीं मानी। वह बड़े भाई से बहुत नाराज थी। बच्ची उदास थी तभी ऐन रक्षा बंधन के दिन भाई के पक्के दोस्त वीरेंद्र भाई साहब आ पहुंचे थे। वह उसके लिए रक्षाबंधन के उपहार के रूप में मिट्टी के बने दो चमकते हुए काले घोड़े लाए थे। उन्होंने उससे राखी बंधवाई, सिर पर हाथ फेरा, पांव छुए, पैसे भी दिए, मां के आग्रह पर खाना भी खाया। बच्ची को मेरी प्यारी बहन कहकर दुलारा। कहा कि अब हर साल वह उससे राखी बंधवाने आया करेंगे।
कुछ दिन बाद डाक से एक बड़ा लिफाफा आया। भाई ने दिल्ली से भेजा था। उसमें उसके लिए नयी दो फ्रॉक, प्लास्टिक का एक मोर, बिस्कुट और टॉफी के डिब्बे थे। भाई ने विशेष तौर से उसके लिए चिट्ठी भी लिखी थी और कहा था कि जैसे ही छुट्टी मिलेगी वह आएंगे और अपनी प्यारी गुड़िया को मना लेंगे। उन्हें पता है कि उनकी छोटी बहन कभी उनसे नाराज नहीं हो सकती।
असल में राखी के पर्व की यह भावुकता हर दौर में रही है, लेकिन अब तो दौर ही अजीब हो गया है। उन दिनों इस बच्ची की तरह बहुत सी बच्चियां भाइयों का इंतजार करती थीं। कुछ विवाहित स्त्रियां जो किसी कारण से मायके नहीं जा पाती थीं, उन्हें अपने-अपने भाइयों के आने का इंतज़ार रहता था। जिन लड़कियों के भाई या बहन नहीं होती थीं वे अपने रिश्तेदारों, पड़ोसियों के लड़के, लड़कियों को भाई-बहन बना लेती थीं। यह रिश्ता जीवन भर चलता था।
फिल्मों का भी रहा पसंदीद विषय
आज स्त्री विमर्श रक्षा बंधन में जुड़े रक्षा शब्द से बहुत नाक-भौं सिकोड़ता है। वे कहते हैं कि इस शब्द में ही यह छिपा है कि लड़कियां कमजोर होती हैं। वे अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकतीं। हालांकि आज भी समाज में महिला सुरक्षा बड़ा मसला है। लड़कियां इन दिनों भी रात-बिरात बिना किस पुरुष के साथ बाहर नहीं निकल सकतीं। भाई और बहन के आपसी प्यार को हमारी फिल्मों ने भी खूब सेलिब्रेट किया है। बहना ने भाई की कलाई से प्यार बांधा है या भैया मेरे राखी के बंधन को निभाना- गाने आज भी अकसर रेडियो पर रक्षाबंधन के अवसर पर सुने जाते हैं। घर में रक्षा बंधन के अवसर पर खीर, पूरी, आलू की सब्जी, रायता और सेंवइयां विशेष रूप से बनती थीं, कंडों पर गेहूं बोए जाते थे। जिनके कुल्लों को कानों में लगाया जाता था। यह एक तरह से नयी फसल अच्छी हो, इसकी चाहत भी होती थी।
एक दिलचस्प किस्सा
मशहूर कथाकार पदमा सचदेव ने अपनी आत्मकथा बूंदबावड़ी में एक दिलचस्प प्रसंग का जिक्र किया है। बचपन में वह गम्भीर रूप से बीमार हुई थीं। कश्मीर के एक अस्पताल में दाखिल थीं। रक्षाबंधन के दिन बहुत उदास थीं। तभी डॉक्टर साहब अपने मरीजों को देखने आए। उन्होंने देखा कि पदमा सचदेव रो रही हैं। कारण पूछा तो बता दिया कि आज रक्षाबंधन है। यहां किसे राखी बांधें। डॉक्टर साहब ने अपनी कलाई आगे कर दी। और यह रिश्ता तब तक चला जब तक डॉक्टर साहब इस दुनिया में रहे। यह डॉक्टर साहब मुसलमान थे।
बदलता गया त्योहार का स्वरूप
बदले वक्त ने चाहे इस त्योहार के रूप को बदल दिया हो, जीवन में अनेक पकवानों, तरह-तरह के महंगे उपहारों का प्रवेश हो गया हो, मगर बहन की नजरों में भाई और भाई की नजरों में बहन की जरूरत कम नहीं हुई है। बचपन में जो राखियां मिलती थीं, उनमें बहुत सी राखियों में सफेद प्लास्टिक के हनुमान जी, शिव जी गणेश जी, राम परिवार , मोर , गाय, कमल, गुलाब के फूल आदि चिपके रहते थे। बच्चों में इन्हें बटोरने की होड़ लगी होती थी। बाकी राखियों में चिपके गोटे, चमकीली पन्नियां गुड़ियों के घर सजाने के काम आती थीं। रंग-बिरंगी रेशमी लच्छियां लाकर, उन्हें मोड़कर कैंची से काटकर, दो-चार टांके लगाकर, घर में भी सुंदर राखियां बनाई जाती थीं। आज अनेक किस्म की डिजाइनर राखियां मौजूद हैं। बेशक कोरोना काल का असर राखी के कारोबार पर पड़ा हो, लेकिन भावनाएं अपनी जगह पर हैं। यूं तो सावन का महीना ही जैसे उत्सवों से जुड़ा था। रिमझिम बारिश, ऊंचे , मजबूत तनों वाले पेड़ों पर पड़े झूले, सावन के सोमवार, शिवजी की विशेष पूजा, फिर रक्षा बंधन। जैसे कि हमारे खेत, नदी तालाब बारिश के होने का जश्न मनाते थे और बारिश अच्छी हो तो कृषि और फसलों के अच्छे होने की उम्मीद बंधती थी, इसलिए सावन, भादों और बारिश से जुड़े महीनों का खासा महत्व था।
राखी पर होता था बहन का इंतजार, भैया दूज पर भाई का
उत्तर प्रदेश के बहुत से इलाकों में एक नियम सा था कि रक्षाबंधन के दिन विवाहित बहनें भाइयों को राखी बांधने अपने मायके जाती थीं और भैया दूज के दिन भाई टीका करने विवाहित बहन के घर जाते थे। इस अवसर पर कहानियां भी कही जाती थीं। दरअसल सावन के महीने में अकसर महिलाएं अपने मायके आती थीं। अपनी बचपन की सखी-सहेलियों के संग मिलना, बोलना, झूले झूलना, सावन और झूलों के गीत गाना और वह सब करती थीं, जिसे ससुराल में नहीं कर सकती थीं। एक तरह से ये कृषि समाजों और संयुक्त परिवार के नियम थे, लेकिन जैसे–जैसे लोग गांवों से बाहर निकले, दूर–दराज के इलाकों में नौकरियां करने लगे, इससे यह भी होने लगा कि कि कई बार बहनें या कई बार भाई, इन अवसरों पर नहीं आ पाते थे। इसीलिए डाक से राखी और टीका भेजने का चलन बढ़ा। एक समय ऐसा भी था जब डाकघरों को इस तरह की चिट्ठियां समय पर पहुंचाने के लिए विशेष व्यवस्था करनी पड़ती थी। हालांकि कूरियर सेवाओं के चलते चीजें समय पर पहुंचनी शुरू हुईं। रक्षाबंधन के नाम में रक्षा इसीलिए जुड़ा कि अपने समाज में लड़कियों को खासी असुरक्षा का सामना करना पड़ता था। ऐसा होता दिखाई भी देता था। ग्रामीण समाजों में उसी परिवार की कद्र होती थी जिसका बाहुबल ज्यादा होता था और बाहुबल उनका ज्यादा माना जाता था, जहां लड़के होते थे। यह बात नजर भी आती थी। यहां तक कि जिन लड़कियों के भाई नहीं होते थे, कई बार इस कारण से उनकी शादियां भी रुक जाती थीं। बहुत बार ससुराल में उन्हें सताया जाता था और ये ताने भी दे जाते थे कि तुझे बचाने कौन आएगा। तेरा कौन सा कोई भाई बैठा है।
ऑनलाइन व्यवस्था बनी जरूरत आज परिवहन के ज्यादातर साधन बंद हैं। लोग कोरोना के डर से बाहर नहीं निकलना चाहते। सवाल यही कि त्योहार कैसे मनेगा। बाजार से खरीदी जाने वाली राखियां या मिठाइयां कैसे खरीदी जाएंगी। यदि डाक से भी राखी भेजनी हो तो या तो कूरियर वाले के पास जाना पड़ेगा या उसे घर बुलाना पड़ेगा। इन दिनों जब कहा जा रहा है कि न कहीं जाएं, न किसी को घर बुलाएं, तो क्या होगा। बहनें अपने भाइयों के घर और भाई अपनी बहनों के घर कैसे जाएंगे। पिछले साल तक तो दिल्ली की मेट्रो और सरकारी बसों में इस अवसर पर महिलाओं के लिए मुफ्त यात्रा की व्यवस्था होती थी। इतनी भीड़ दिखाई देती थी कि सड़कों पर घंटों का जाम भी लग जाता था। सवेरे से शाम तक सड़कों पर पैर रखने की जगह नहीं होती थी। मगर इस बार तो मेट्रो बंद है। बसें भी बहुत कम संख्या में हैं। हालांकि बहुत सी ऑन लाइन कम्पनियां कह रही हैं कि वे राखी और मिठाई को सही जगह पहुंचा देंगी। आप बस ऑनलाइन ऑर्डर करके आन लाइन पेमेंट कर दीजिए। बेशक कुछ समय पहले तक ऑनलाइन व्यवस्था क्रेजी लगती थी, लेकिन आज यह जरूरत सी बन गयी है। बाजार में अब तक चीनी राखियों का बोलबाला रहा है, वे सस्ती भी होती हैं, मगर अब लोग भारत में बनी राखियां खरीदना पसंद कर रहे हैं। इन दिनों ऑनलाइन राखियों के बहुत से विज्ञापन दिख रहे हैं। इनमें राखियों का कोम्बो आफर तरह-तरह के उपहारों के साथ है। यही नहीं राखियों के नाम भी बहुत दिलचस्प हैं। जैसे कि फेंगशुई रुद्राक्ष, मौली, कार्टून, डिवोशनल, पर्ल, गोल्ड राखी आदि। राखियों की कीमत भी तीन सौ रुपए से लेकर छह हजार रुपए तक है। बाजार में सोने , चांदी, और हीरे जड़ी राखियां भी मिलती हैं। कुछ मजेदार शेर-ओ-शायरी भी ऑन लाइन चल रहे हैं जैसे-रेशम की डोर नहीं एक कलावा बांध देना कलाई पर, मगर चीन की राखी मत खरीदना, तेरा भाई गया है, लड़ाई पर।
विभिन्न गलियारों के चर्चित बंधन
उत्तर प्रदेश भाजपा के कद्दावर नेता लाल जी टंडन जिनका हाल ही में निधन हुआ, उन्हें उत्तर प्रदेश की ही दूसरी बड़ी नेता मायावती राखी बांधा करती थीं। जबकि उनकी बहुजन समाज पार्टी भाजपा का विरोध करती रही है। रक्षाबंधन के दिन भारत के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री भी बच्चों और अपनी मुंहबोली बहनों से राखी बंधवाते दिखते हैं। कई राज्यों में मुख्यमंत्री को भी बच्चे राखी बांधते हैं। इस बार चूंकि दूरी है जरूरी के सिद्धांत पर चलना है इसलिए हो सकता है राखी का यह बंधन भी कुछ-कुछ ऑनलाइन ही हो। अपने देश में बहुत महिलाएं सैनिकों को राखी बांधती हैं। उन्हें राखी डाक से भी भेजी जाती हैं। जब सैनिक मोर्चे पर जा रहे होते हैं तो बहुत सी महिलाएं उनका टीका भी करती हैं।