राजेश कृष्ण
पेंडेमिक, इन्क्यूबेशन, एरोसोल्स, सोशल डिस्टेंसिंग, लॉकडाउन, सेनेटाइज, क्वारंटाइन, आइसोलेशन जैसे अनेक ऐसे शब्द हैं जिनसे हम चाहे कितना ही घृणा करें, लेकिन ये शब्द हमारे जीवन का हिस्सा बन गये हैं। साल पूरा होने को है कोरोना जैसी महामारी को, आयेदिन उक्त शब्दों का कहीं न कहीं प्रयोग हो ही जाता है। हममें से शायद ही कोई ऐसा होगा जो रोजाना किसी न किसी माध्यम से-चाहे वह अखबार हो, टेलीविजन, दोस्त या फिर परिवार का कोई सदस्य-इन शब्दों को पढ़ता, सुनता या इस्तेमाल न करता हो। बच्चे भी महामारी से जुड़े अंग्रेजी भाषा के ऐसे अनेक शब्दों का उच्चारण और प्रयोग बखूबी सीख गए हैं। ऐसे में इन्ही शब्दावली के प्रयोगों को देखते हुए अगर नयी भाषा सीखने की कोशिश की जाये तो उसमें बुराई क्या है?
करीब एक माह पूर्व हमारे यहां एक केक आया। गर्मी के कारण उसे फ्रिज में रख दिया गया। घर के सबसे छोटे सदस्य ने अपनी विशेष टिप्पणी में कहा, ‘क्या केक को क्वारंटाइन करना जरूरी है?’ इसके बाद उसके बड़े भाई, जो कि उम्र में उससे दो ही साल बड़ा है, ने कहा, ‘नहीं भाई, उसे टेम्परेरी लॉकडाउन में रखा है। कुछ देर में वह अनलॉक हो जाएगा।’ कहने का भाव यह है कि बच्चे अपने आसपास, अपने परिवेश से बहुत प्रभावित होते हैं और उससे निरंतर कुछ न कुछ सीखते रहते हैं और यह बात भाषा पर भी लागू होती है। तो ऐसे में बच्चों की भाषा सीखने की स्वाभाविक प्रवृत्ति को मात्र कोरोना की शब्दावली तक सीमित क्यों रखा जाये? इस संक्रमणकाल में, जबकि बच्चों के जीवन में रचनात्मक कार्यों की पहले के मुकाबले काफी कमी आई है और वे अपना अधिकांश समय घर की चारदीवारी में रहकर व्यतीत करते हैं क्यों ना उन्हें एक नयी भाषा सीखने का मौका दिया जाये?
… तो कुछ नये मौके
वर्तमान दौर में अगर बच्चे नयी भाषा सीखने की ओर उन्मुख होंगे तो इससे न केवल महामारी की विभीषिका के प्रति उनका ध्यान हटेगा, बल्कि भविष्य में यह उनके लिए वरदान भी साबित होगा। यूं भी देखा जाता है कि बच्चे नयी संस्कृति, नयी जीवनशैली, पहनावे, खान-पान और रहन-सहन के प्रति एक विशेष आकर्षण रखते हैं। इन सबके लिए उनमें एक स्वाभाविक जिज्ञासा और रुचि होती है और नयी भाषा का ज्ञान उन्हें इन बातों को समझने और उनसे जुड़ने का मौका देता है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे बच्चे अपने पसंदीदा कार्टून चरित्रों के माध्यम से नयी संस्कृतियों के बारे में जानते और सीखते हैं। जैसे कि ‘डोरेमोन’ से जापान की जीवनशैली का पता चलता है तो ‘ओग्गी एंड द कोक्रोचिस’ में फ्रांसीसी सभ्यता की झलक देखने को मिलती है और दुनिया के सबसे पुराने कार्टून चरित्रों में से एक ‘मिक्की माउस’ से अमेरिकी जीवन से जुड़ जानकारियों से रूबरू होने का मौका मिलता है। बेशक एक नयी भाषा सीखना कार्टून देखने जैसा सरल कार्य नहीं है, इसके लिए एकाग्रता और समर्पण की आवश्यकता होती है। पर ध्यान रहे कि बात जब बच्चों द्वारा नयी भाषा सीखने की होती है तो उनकी सीमा आकाश तक होती है। भाषा के विशेषज्ञ तो यहां तक मानते हैं कि द्विभाषी या बहुभाषी होना मस्तिष्क के लिए बहुत फायदेमंद होता है और एक से अधिक भाषा सीखने वाले की मानसिक सक्रियता और कार्य क्षमता पर सकारात्मक एवं सार्थक प्रभाव डालता है। कई बार इस तरह के शोध हो चुके हैं कि अगर बच्चे को एक से अधिक भाषाएं आती हैं तो उसके सोचने का ढंग भी विस्तृत होता है।
भाषा और रोजगार
बात रोजगार के अवसरों की करें तो विदेशी भाषाओं जैसे कि फ्रेंच, जर्मन या अग्रेजी में निपुणता किसी के लिए भी विदेश मंत्रालयों, दूतावासों, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं, एयरलाइंस, ब्रॉडकास्ट मीडिया, पब्लिशिंग आदि क्षेत्रों में अनेक अवसर खोल देती है। आईटी, मल्टीनेशनल कंपनियों, होटल एवं बीपीओ क्षेत्र में तो बहुभाषी अच्छा खासा करिअर बना सकते हैं। इसके अतिरिक्त ट्रांसलेटर, इंटरप्रेटर, टूरिस्ट गाइड, लेखक या टीचर जैसे विकल्प मौजूद हैं।
नो प्रेशर पॉलिसी जरूरी
अक्सर देखने में आता है कि कुछ अभिभावक अपनी महत्वाकांक्षाओं और स्वार्थ के चलते बच्चों पर जल्दी सीखने और अच्छे परिणाम लाने का मानसिक दबाव बनाने लगते हैं। बच्चों पर प्रेशर बनाना या कुछ नया सीखने के उनके प्रयास को लेकर उन्हें डांटना बिल्कुल उचित नहीं। बात जब नयी भाषा को सीखने की होती है तो उस प्रक्रिया में गलतियां होना स्वाभाविक है। बेशक अभी कोरोना काल चल रहा है, लेकिन भाषायी दरवाजे तो हमेशा बुलंद ही रहेंगे। इसलिए इस काल में अगर बहुभाषी बनने की ओर अग्रसर हुआ जाता है तो इसमें अच्छाई ही अच्छाई है। आज कई संस्थाएं ऑनलाइन भाषा सिखाने का भी काम कर रही हैं। कई वेबसाइट्स भी हैं। इसलिए जिस भाषा को सीखने के लिए बच्चे प्रेरित हो रहे हैं, उन्हें अच्छी साइट्स पर अच्छी जानकारियां मिल ही जाएंगी। तो यही मौका है संकट को अवसर में बदलने का।