मोहन मैत्रेय
हिंदी साहित्य में भक्ति काल को स्वर्ण युग के रूप में स्मरण किया जाता है। इस युग में कबीर, तुलसी, सूरदास ने साहित्य साधना की। तुलसी और सूरदास का मार्ग प्रशस्त करने वाले कबीर ‘स्वर्ण युग’ के अग्रदूत थे। कबीर का लक्ष्य किसी पंथ या संप्रदाय की स्थापना नहीं था। कबीर का ध्येय था सामान्य समाज एवं सामान्य धर्म का स्वरूप प्रस्तुत करना, जो सबको स्वीकार हो। इसी से मानवता के लक्ष्य की पूर्ति सुलभ थी। आज भी समाज जातिवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद के कारण बुरी तरह से असंगठित है। धर्म तो जोड़ने का साधन है, न कि तोड़ने का। आज धर्मनिरपेक्षता तथा सांप्रदायिकता की व्याख्या अपने-अपने ढंग से हो रही है। धर्म के नाम पर हिंसा का तांडव देखने को मिलता है। कबीर ने धर्म के तथाकथित ठेकेदारों को कठोरता से लताड़ा था-
हिंदू तुरक झूठि कुल दोऊं, अरे इन दोउन राह न पाई। हिंदुन की हिंदुवाई देखी तुरकन की तुरकाई। कहै कबीर सुनो भई साधो कौन राह ह्वै जाई।
धर्म विधि-विधान तक ही सीमित नहीं, यह तो कर्तव्य पालन में है। ईश्वर या खुदा तो सर्वव्यापक है, इसे मंदिर या मस्जिद तक सीमित क्यों किया जाये-
जोरे खुदाई मसीति बसत है और मुलक किस केरा।
महात्मा कबीर ने संप्रदायों के आडंबरों के प्रति भी क्षोभ व्यक्त किया है।
इक तीरथ व्रत करि काय जीति, ऐसे राम-नाम सूं करै न प्रीति।… इक धोम ध्यूंटि तन होहिं स्याम, यूं मुकति नहीं बिन राम नाम।
वह धार्मिक नेता या साधु किस काम का जो दूसरों की आत्मा का हनन करे-
साधु भया तो क्या भला, बोलै नाहिं विचारि। हतै पराई आत्मा, जीभ बांधि तरवारि।
कबीर ने जातीय पृथकता की भावना की कठोर शब्दों में निंदा की है-
गहना एक कनक ते गहना, ता मे भाव न दूजा। कहन सुनन को दुईं कर पाते, इक नेवाज इक पूजा।
कबीर सीधी-सच्ची बात कहने में ही नहीं, भाव-सुकुमारता में भी किसी से कम नहीं थे। प्रेम की यह अनन्यता है। नैनों में लेने की कैसी सुंदर कल्पना है-
सुपने में साईं मिले, सोवत लिया जगाय। आंख न खोलूं डरपता मत सपना ह्वै जाय।
व्यंग्य कसने और चुटकी लेने में भी कबीर अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं जानते। पंडित और काजी, अवधूत और जोगिया, मुल्ला और मौलवी- सभी उनके व्यंग्य से तिलमिला उठते हैं। कबीर की भाषा चाहे सधुक्कड़ी हो, चाहे खिचड़ी, परंतु यह तो स्वीकार करना ही पड़ेगा कि उनकी आध्यात्मिक रस की गगरी से छलकते रस से पाठक को तृप्ति अवश्य प्राप्त हुई है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन अत्यंत सार्थक है- ‘उन्होंने एक सफल वैद्य की भांति जनता के भयानक रोग का निदान किया। औषध, निर्वाचन और अपथ्य-वर्जन के निर्देश में बिल्कुल गलती नहीं की।’ भक्ति काल में तुलसीदास का व्यक्तित्व कबीर सदृश था, परंतु मस्ती, फक्कड़ाना अंदाज में सबको झाड़-फटकार कर चल देने वाले कबीर हिंदी साहित्य के अद्वितीय व्यक्ति थे।