
गुरु गोबिन्द सिंह ने खालसा फौज को शस्त्र और युद्ध विद्या में निपुण करने के लिए युद्धाभ्यास के रूप में होला महल्ला खेलने की प्रथा चलाई थी। आज भी गुरु की लाडली फौज हर साल होला महल्ला की रिवायतों को सरंजाम देने का नेतृत्व करती है। दरअसल, होली के उत्साह-आनन्द को पुरुषार्थ-पराक्रम के संकल्पों में बदलने का नाम ही होला महल्ला है।
डॉ. रविन्द्र गासो
‘होला महल्ला’ शिवालिक पर्वतमाला की तलहटी में स्थित पंजाब के ऐतिहासिक स्थल आनन्दपुर साहिब में मनाया जाने वाला सिखों का महान पर्व है। गुरु गोबिन्द सिंह ने स्वयं यहां के एक किले होलगढ़ में दीवान लगाकर चैत्र वदी 1, संवत 1757 (1700 ई़) को ‘होला महल्ला’ खेलने की रीत चलाई थी। होली के अगले ही दिन मनाया जाने वाला यह उत्सव आज दुनियाभर के लिए आकर्षण का केन्द्र है। भाई काहन सिंह नाभा अपने ‘महान कोश’ में इसका परिचय देते हुए लिखते हैं कि होला महल्ला का अर्थ है - हमला और हमले का स्थान। गुरु जी ने खालसा फौज को शस्त्र और युद्ध विद्या में निपुण करने के लिए युद्धाभ्यास की यह प्रथा चलाई थी जिसमें शामिल था दो दल बनाकर प्रमुख सिखों के नेतृत्व में एक विशेष जगह पर कब्जा करने के लिए हमला करना।
खालसा फौज के लिए रीत
कलगीधर दशमेश पातशाह स्वयं इस मसनूई (बनावटी) युद्धाभ्यास को देखते और दोनों दलों को शुभ-शिक्षा देते थे और जो दल कामयाब होता, उसको दीवान में सिरोपा बख़्शते थे। (पृ़ 283) इससे एक वर्ष पूर्व 1699 में यहीं आनन्दपुर साहिब में भारतीय इतिहास की एक महान, अनुपम घटना ‘खालसा पंथ’ की स्थापना के रूप में हो चुकी थी। गुरु जी ने इसी खालसा फौज के लिए होला महल्ला की रीत चलाई थी। आज भी गुरु की लाडली निहंग सिंहों की फौज होला महल्ला की रिवायतों को सरंजाम देने का नेतृत्व करती है।
महल्ला शब्द के अर्थ
पंजाबी कवि भाई वीर सिंह ‘कलगीधर चमत्कार’ में लिखते हैं कि ‘महल्ला’ शब्द से भाव है ‘मय हल्ला।’ मय का भाव है ‘बनावटी’ तथा हल्ला का भाव है -हमला।’ वहीं भाई काहन सिंह नाभा ‘महान कोश’ में इसका अर्थ करते हैं - ‘जिस स्थान को फतेह (जीत) कर फौज जा उतरे, हलूल का स्थान अथवा दौड़ने का स्थान। (महान कोश, पृ़ 934)
घुड़दौड़, गत्तका और नेज़ाबाजी
प्रत्येक वर्ष होने वाले इस महोत्सव का हाल ब्यान करते हुए एक लेखक का कथन है कि तख़्त श्री केशगढ़ साहिब से पांच-प्यारे साहिबान होले महल्ले की अरदास करके किला आनन्दगढ़ साहिब में पहुंचते हैं। वहां से निहंग सिंह शस्त्रों से लैस हाथियों, घोड़ों पर सवार होकर एक-दूसरे पर गुलाल फेंकते हुए, नगाड़े व बैंड-बाजा बजाते किला होलगढ़, माता जीतो जी का देहरा से होते हुए चरण गंगा (छोटी नदी) के मैदान में पहुंचते हैं। वहां कई तरह के मार्शल-खेल, घुड़दौड़, गतका, नेज़ाबाजी आदि की जाती है। आखिर में बाकी गुरुद्वारा साहिबान की यात्रा करता हुआ नगर कीर्तन श्री केशगढ़ साहिब में पहुंच कर समाप्त होता है। बड़ी संख्या में देश-विदेश से आये यात्री भारत का यह गौरवशाली, शौर्य-पराक्रम का उमंग-उत्साह भरा रंगोत्सव देख आनन्द-विभोर होते हैं। उत्सव के दिनों में दीवान सजते हैं, कथा-कीर्तन, वीर-रस की वार-गायन, कवि-दरबार, गोष्ठ-संवाद होते रहते हैं।
निहंग सिंहों का बाना
होला महल्ला की इस कवायद की धमक का चमकदार केन्द्र निहंग सिंह होते हैं। यह सिखों का एक संप्रदाय है; जो शीश पर फरहरे वाला ऊंचा दमाला, चक्र, तोड़ा, खण्डा, कृपाण, गजगाह आदि शस्त्र और नीला बाना पहनते हैं। निहंग सिंह मृत्यु की शंका त्याग कर, सदैव शहीदी पाने के लिए तैयार और माया से निर्लिप्त रहता है, इसीलिए यह नाम है। (महान कोश, पृ़ 704)
चढ़दी कला का दर्शन
‘हिन्द की चादर’ यानी हिन्दुस्तान की अस्मिता के रक्षक नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर ने 1666 ई़ में आनंदपुर साहिब शहर बसाया था। दसवें गुरु श्री गुरु गोबिन्द सिंह ने यहीं पर 1699 ई़ में खालसा-पंथ सजाया और 1700 ई़ में होला-महल्ला की रीत चलाई थी। यह सरबंसदानी गुरु गोबिन्द सिंह जी का भारतीय जन-मानस, धर्म-दर्शन, राजनीति, संस्कृति-समाज को दिया महान अवदान है। यह ‘चढ़दी कला’ का वह सिद्धान्त है जिसने औरंगजेब के निरंकुश शासन और जुल्मों को मिट्टी में मिलाया।
त्योहार को बड़ा दायरा
होली के त्योहार को बड़ा दायरा, विस्तृत क्षितिज़ देने वाला यह उत्सव मानव को चढ़दी कला में रहकर नेक कामों के लिए, जुल्मों के विरुद्ध लड़ने की प्रेरणा देता है। यह शौर्य, पराक्रम और पुरुषार्थ का उत्सव है। बसंत-ऋतु के इस उत्सव का मतलब है गुलाल, इत्र-फुलैल की सुगंध, फूलों के रंगों की फुहार और सबसे बढ़ कर सब भेदभाव, ऊंच-नीच भुलाकर, प्यार मोहब्बत के मानवतावादी-सागर में आनन्द की लहरों संग मस्त होना।
शौर्य और भ्रातृत्व का संदेश
भारतीयों में शौर्य, निडरता, संगठन-एकता-उत्साह, बल, बलिदान, फतेह (विजय), सम्मान-समता, भ्रातृत्व, साझापन पैदा करने के लिए हमेशा चढ़दी कला में रहने का दर्शन स्थापित करने , दबे-कुचले, मेहनतकश कमेरे लोगों को बराबरी का दर्जा देने, अन्धविश्वास-रूढ़ियों की जंजाल-कारा को तोड़ आज़ादी का भाव पैदा करने के लिए गुरु नानक की दसवीं ज्योति श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने धर्म-दर्शन, रीति-रिवाज़ों, त्योहार मनाने के रंग-ढंग में क्रान्तिकारी बदलाव किया। खालसा-पंथ को स्थापित करते हुए उन्होंने गुरु की चरन-पाहुल (चरणामृत) की जगह खण्डे-बाटे का अमृत छकाने की रीत चलाई तो ‘श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी’ को ग्यारहवें गुरु के रूप में स्थापित कर देहधारी-गुरु की रूढ़ि को समाप्त किया।
होली के प्राचीन त्योहार शब्द की सकारात्मकता और उत्साह-आनन्द को पुरुषार्थ-पराक्रम के संकल्पों में बदलने का नाम है ‘होला महल्ला।’ यह पर्व परमार्थ के लिए बलिदान, आत्मोत्सर्ग ही नहीं बल्कि विजयी होने का संकल्प है। अनन्त-प्रभु के गुणगान द्वारा बेचिन्त होकर महान आनन्द के बसंत को आत्मसात करने का पर्व है होला महल्ला।
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