फीफा वर्ल्ड कप में भारत जैसे बड़े देश की टीम का न होना खलता है। आजादी के बाद हमारी टीम 4 ओलंपिक खेली भी लेकिन सिलसिला ऐसा टूटा कि फिर उबरे ही नहीं। अब जब दुनिया का हरेक देश इस खेल में खुद को स्थापित करने की जुगत में है तो बतौर एक उभरती आर्थिक शक्ति हमारे लिए भी अच्छे खिलाड़ी व ढांचा तैयार कर बड़े फुटबॉल आयोजनों में मजबूत दावेदारी जताना जरूरी है। यूं भी इस खेल में टीम भावना, रणनीति, ऊर्जा-उल्लास का जो उछाल नजर आता है, वह किसी और खेल में कहां।
डॉ. संजय वर्मा
लेखक बैनेट यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।
दुनिया गोल है। फुटबॉल भी गोल है। लेकिन क्रिकेट के मुरीदों वाले हमारे जैसे देश से पूछिए,तो कुछ कहेंगे कि फुटबॉल में तो हमारा डिब्बा गोल है। ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं है। कतर में चल रहे फीफा वर्ल्ड कप 2022 में हमारी टीम नदारद है। फीफा की रैंकिंग (अक्तूबर 2022 में जारी) के मुताबिक भारत 106वें स्थान पर है। पर उससे क्या होता है। भारत आज दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था है। दुनिया में हमारे राजनीतिक नेतृत्व की तूती बोल रही है। हालत यह है कि हम रूस से तेल खरीद रहे हैं और कोई चूं तक नहीं कर पा रहा है। कहा भी जा रहा है कि बहुत संभावना है कि अगले कुछ वर्षों या एकाध दशक में भारत महाशक्ति देश बनकर उभर सकता है। ऐसा हो भी क्यों न। हम अंतरिक्ष में निजी कंपनियों के रॉकेट छोड़ रहे हैं। हमारी विकास दर ठीक-ठाक गति से चल और बढ़ रही है। विदेशी निवेश में भी कोई कमी नहीं है। हम खाद्यान्न उत्पादन में आत्मनिर्भर हैं। दवाओं के मामले में दुनिया की फॉर्मेसी बनने की हैसियत रखते हैं। ऐसे में क्या जरूरी है कि हम फुटबॉल में भी बढ़त हासिल करें। क्यों खेलें हम फुटबॉल। क्रिकेट तो भली तरह खेल ही रहे हैं।
कुछ खास बात
हमारा फुटबॉल खेलना क्यों जरूरी है, इसके समर्थन में कुछ बातें कर लेते हैं। असल में, फुटबॉल के खेल में ही कुछ खास बात है। यह एक सरल-सा खेल है जिसमें टीम भावना और रणनीति के अलावा एक व्यक्ति की ऊर्जा और उल्लास का उछाल भी देखने को मिलता है। इसमें मनुष्य की गति, स्फूर्ति, चपलता और दूसरों को छकाने का जो कौशल है, वह किसी और खेल में नहीं दिखता। न तो तकनीक का इस खेल में कोई खास दखल है, न ही इसमें टेनिस जैसा स्टाइल स्टेटमेंट नजर आता है। फुटबॉल अमीर-गरीब की खाई और गोरे-काले का भेद मिटा देती है। लैटिन अमेरिका और अफ्रीका जैसे अपेक्षाकृत गरीब इलाकों से महान फुटबॉलर निकलते रहे हैं। यह खेल जीवन को भरपूर जीने की आकांक्षा का प्रतीक है। इसलिए हर चार साल पर आने वाले इस महाकुंभ का हर किसी को इंतजार रहता है। अगर दूसरे विश्वयुद्ध के दौर को छोड़ दें तो तमाम रंजिशों और कूटनीतिक घेरेबंदी के बावजूद विभिन्न देश इसमें शामिल होते रहे हैं। हम खुद ओलंपिक में फुटबॉल खेलते रहे हैं।
फुटबॉल बनाम ‘बूटबॉल’
भारतीय फुटबॉल टीम का पहला ओलंपिक दौरा लंदन में 1948 में हुआ था। ब्रिटिश गुलामी से आजाद होने के एक साल बाद भारतीय फुटबॉल टीम पहली बार स्वतंत्र भारत के रूप में खेल रही थी। राजनीतिक तथ्यों और बहुत से अलग मुद्दों को हटाकर भारतीय खिलाड़ी अपने देश के सम्मान के लिए मैदान में उतरे थे और वहां उनका सामना फ्रांस जैसी बड़ी टीम से हुआ था। उस टीम की कप्तानी तालिमेरेन एओ ने की थी। फ्रांस से 31 जुलाई 1948 में हुए मुकाबले में भारतीय टीम जिस वजह से ज्यादा चर्चा में आई थी, वह यह थी कि हमारी टीम के 11 सदस्यों में से आठ खिलाड़ियों के पास मैदान में पहनने को जूते नहीं थे। जूतों के बगैर हुए मुकाबले में भारत ने फ्रांस को कड़ी टक्कर दी और अपना इरादा जता दिया, तो अखबारों ने कप्तान एओ के बयान को हेडलाइन में जगह दी कि ‘भारत में हम फुटबॉल खेलते हैं, जैसे कि आप यहां ‘बूटबॉल’ खेलते हैं।’ इस मशहूर वाकये के बाद भारतीय फुटबॉल टीम ने 1952 के हेलसिंकी और 1956 में मेलबर्न ओलंपिक्स में भी हिस्सा लिया। रोम ओलंपिक गेम्स (1960) भारतीय फुटबॉल के इतिहास का आखिरी ओलंपिक रहा था। इसके बाद भारत ने फुटबॉल के ज़रिए इस प्रतियोगिता में कभी शिरकत नहीं की।
देशों में होड़
हमें फुटबॉल में ताकत बनकर उभरने की जरूरत है। फुटबॉल फीवर सिर्फ कोलकाता तक सीमित रहे, यह एक उभरती आर्थिक शक्ति के लिए ठीक नहीं। हालांकि बहुतों को यह एक अटपटा विचार लगेगा कि हमें फुटबॉल में जोर-आजमाइश करने की जरूरत है। आखिरकार फुटबॉल महज एक खेल ही तो है। उसका भारत के वैश्विक शक्ति के रूप में उभरने से भला क्या संबंध हो सकता है? लेकिन अगर हम इस खेल के विभिन्न आयामों का विश्लेषण करें, तो यह समझ में आ सकता है कि क्यों आज अधिकतर ताकतवर देशों में यह खेल लोकप्रियता के शिखर पर खड़ा है और क्यों हर देश इस खेल में खुद को स्थापित करना चाहता है। इसका एक उदाहरण कतर में चल रहे फीफा वर्ल्ड कप की शुरुआत में हुए उलटफेर हैं। यहां मोरक्को ने 27 नवंबर 2022 को बेल्जियम को मात देकर विश्व कप का तीसरा उलटफेर कर दिया। टूर्नामेंट में पहला उलटफेर सऊदी अरब ने अर्जेंटीना की टीम के खिलाफ किया था। इसके बाद जापान की टीम ने जर्मनी को हराते हुए इस विश्व कप का दूसरा उलटफेर कर दिया था। ये उलटफेर दर्शाते हैं कि क्यों मोरक्को और सऊदी अरब जैसे देश भी फुटबॉल में खुद को स्थापित करना चाहते हैं। यूं भारत में हालांकि डूरंड कप जैसा फुटबॉल का टूर्नामेंट है, जो 1988 में ही शुरू हो गया था। लेकिन 1948 में ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करने और 1951 में पहले एशियाड में फुटबॉल का गोल्ड मेडल जीतने के अलावा भारत अब तक कोई कमाल नहीं दिखा पाया है। शुरू में अमेरिका ने भी फुटबॉल को गंभीरता से नहीं लिया था। वह फुटबॉल को छोड़ अपने यहां बेसबॉल, बास्केटबॉल और रग्बी जैसे खेलों को लोकप्रिय बनाना चाहता था। मगर बाद में उसे महसूस हुआ कि इस खेल को अधिक उग्रता से अपना कर उसे वैश्विक फुटबॉल में अपनी उपस्थिति दर्ज करनी चाहिए।
क्रिकेट वाला करिश्मा
यह सही है कि हमें खेलों को उनमें निहित खेल भावना के अनुरूप देखना-अपनाना चाहिए, पर यह हमारे लिए दूसरों से पिछड़ने का बहाना भी नहीं बनना चाहिए। आज खेलों में खेल भावना और राष्ट्रवादी भावनाओं के अलावा उनके अर्थशास्त्र का एक नया समीकरण जुड़ चुका है। यह इसी समीकरण के कारण है कि हमारी क्रिकेट टीम के दुनिया की सर्वश्रेष्ठ टीम नहीं होने के बावजूद भारतीय क्रिकेट बोर्ड दुनिया के सभी क्रिकेट बोर्डों से कई गुना अधिक धनी होने का दावा करता है। क्रिकेट खिलाडि़यों को बढ़-चढ़ कर मिलने वाले आर्थिक लाभों को भी शामिल कर लिया जाए, तो क्रिकेट हर पहलू से हमारे देश के लिए बेहद फायदे का सौदा बन चुका है। यही करिश्मा फुटबॉल में भी किया जा सकता है। सबसे सकारात्मक यह कि फुटबॉल की हमारे देश में लोकप्रियता काफी है। समस्या इसे एक व्यापक कारोबारी रूप देने की है। इसके लिए हमें बड़े देशों से तुलना करने की जरूरत नहीं। हमारे लिए यह जानना ही बहुत है कि 30 लाख से कम की जनसंख्या के साथ कोस्टारिका जैसा छोटा सा देश भी इटली में 1990 के फुटबॉल विश्व कप के क्वार्टर फाइनल तक पहुंच गया था। हम इराक और कैमरून जैसी टीमों से भी सबक ले सकते हैं। दक्षिण अमेरिकी देशों के लिए तो फुटबॉल तमाम विपरीत स्थितियों में पोषित एक राष्ट्रीय जश्न बन चुका है। ऐसे में शर्मसार होने की बात है कि 140 करोड़ आबादी में हम बाइचुंग भूटिया और सुनील छेत्री जैसे एकाध खिलाड़ी ही पैदा कर सके हैं।