
बासंती बयार के बीच दिलों में सरसता-मस्ती भरने वाले होली पर्व का संदेश है बुराइयों का दहन करना। असत्य पर सत्य की विजय। होली मनाने से जुड़ी लगभग सभी कथाओं का सार यही है। सत्य की जीत का आनंद होली मंगलाने, देव पूजा, नव संवत के स्वागत, गीतों, रंगों और हंसी-ठिठोली के रूप में प्रकट होता रहा है। मस्ती में सराबोर जन गुलाल उड़ाते नाचते हैं तो मन भी स्नेह से भीग जाते हैं।
राजकिशन नैन
हरियाणवी अंचल में होली संबंधी दो मिथक कथाएं ज्यादा प्रचलित हैं। एक दैत्यराज हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका राक्षसी की व दूसरी ढुंढा राक्षसी की। हिरण्यकश्यपु का पुत्र प्रहलाद भगवान का भक्त था लेकिन उसका पिता हिरण्यकश्यपु भगवान को नहीं मानता था। हिरण्यकश्यपु के लाख समझाने पर भी प्रहलाद ने भगवान विष्णु का नाम लेना नहीं छोड़ा। हिरण्यकश्यपु ने आगबबूला हो आदेश दिया कि प्रहलाद की हत्या कर दी जाए किंतु भगवान की कृपा से प्रहलाद को मारने के सारे प्रयत्न निष्फल हुए। प्रहलाद की बुआ होलिका को यह वरदान प्राप्त था कि वह आग से कभी न जलेगी। इसलिए वह प्रहलाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ गई। भगवद्कृपा से होलिका आग में जलकर खाक हो गई, किंतु प्रहलाद का बाल बांका न हुआ। इस तरह सत्य की विजय तथा असत्य की पराजय हुई। लोगों ने होलिका के मरने की खुशी मनायी पर हिरण्यकश्यपु की आंख तब भी नहीं खुली। उसने प्रहलाद को लोहे के खंभे से बांध दिया और पूछा, ‘बोल, कहां है तेरा भगवान, जिसकी तू रट लगाये रहता है?’ प्रहलाद ने निडरता से उत्तर दिया, ‘पिता जी, भगवान सब जगह है।’ उसके पिता ने क्रोधित होकर कहा, ‘क्या इस खंभे में भी है? यदि है तो मैं तलवार से अभी तुम्हारे दो टुकड़े करता हूं, देख वह तुम्हें कैसे बचाता है?’ यह कहकर हिरण्यकश्यपु ने ज्यों ही प्रहलाद पर तलवार का वार किया त्यों ही लौह-स्तंभ भयावह गर्जन के साथ फट गया और उसमें से नृसिंह प्रगट हुआ। उसका सिर, सिंह का था और शरीर मानव का। नृसिंह भगवान ने हिरण्यकश्यपु को जकड़कर तत्क्षण मार डाला। लोगों को हिरण्यकश्यपु के अत्याचारों से छुटकारा मिल गया। दानवता पर मानवता की विजय हुई। खुशी में लोगों ने आनंदोत्सव मनाया। तभी से होली मंगलाने की प्रथा चली आ रही है।
ढुंढा राक्षसी की कथा
होली मनाने को लेकर ढुंढा राक्षसी की कथा भी है जो भविष्योत्तर पुराण में मिलती है। ढुंढा छोटे बच्चों को उठाकर मार डालती थी। एक दिन दैवयोग से ढुंढा, ग्वालों के हत्थे चढ़ गई। वे उसे पीटते ले गये, घास-फूस से आग जलाई और ढुंढा को उठाकर उसमें पटक दिया। उन्होंने आग के इर्द-गिर्द नाचा-कुदी की। कथा के अनुसार ढुंढा का उपद्रव शांत करने की खुशी में लोगों ने होली जलाई, जिसकी रीत अभी तक है। होली मंगलाने से पूर्व अर्घ्य का मंत्र इस ओर संकेत करता है :-
होलिके च नमस्तुभ्यं,
ढुंढा तेजो विमर्दिनी।
सर्वोपद्रव्व शान्त्यर्थ।
गृहाणार्घ्य नमोस्तुते॥
होलिका दहन को लेकर कुछ और कथाएं भी हैं। एक यह है कि तपस्या भंग करने आए वसंतसखा ‘कामदेव’ को दादा शिव ने इसी दिन भस्म किया था। ब्रज से सटे हरियाणा के गांवों में जो कथा मिलती है उसके अनुसार प्रचंडकाय पूतना राक्षसी का वध करने के बाद उसे आग में जलाया गया। तभी से होली मंगलाने की प्रथा आरंभ हुई। किंतु यह कथा ज्यादा प्रचलित नहीं। लेकिन होली की प्रचलित कथाओं से भी मात्र यही संकेत मिलता है कि होली, मानव मन और प्रकृति के बीच के रिश्ते की एक कड़ी है। ये सभी कथाएं होली के त्योहार के साथ बाद में जुड़ी प्रतीत होती है।
नव संवत पर अग्नि पूजन
असल में होलिका दहन प्राचीन यज्ञाग्नि का प्रतीक है। होलिका दहन क्यों किया जाता है? इस बारे में सयाने लोगों का कहना है यह वसंत आगमन पर नव संवत प्रारंभ होने की खुशी में अग्नि पूजन की नीयत से हवन किया जाता है। गांव भर की गंदगियों को एक जगह एकत्रित करके होली के रूप में जलाने से गंदगी साफ हो जाती है। होलिका दहन के साथ-साथ लोग आपस की ईर्ष्या, द्वेष घृणा, कलह, भेदभाव और मनमुटाव को भी जला देते हैं। इससे उनका मन एवं वचन शुद्ध व निर्विकार हो जाता है। इसी के निमित्त धुलैंढी के दिन होली की अवशिष्ट राख की वंदना की जाती है व उसे माथे पर लगाकर लोग एक-दूसरे से गले मिलते हैं। होली की प्राचीनता भी असंदिग्ध है।
नवान्न महोत्सव
होली हरियाणा की कृषि यज्ञ प्रसूत संस्कृति का सबसे प्राचीन उत्सव है। ऋग्वेद के एक सूक्त में होली के आदिम स्रोत एवं ‘नवान्न महोत्सव’ नामक पावन पर्व की ध्वनि इस तरह मुखरित हुई है
गिरा च श्रुषिृ सभरा
असन्नो नेदीय इत्सृण्य: पक्वमेयात्।।
नये अन्न की बालियों को आग में भूनने की सदियों से चली आ रही परंपरा के कारण ही इस त्योहार का नाम होली पड़ा। संस्कृत में अन्न की बाल्य को ‘होला’ कहते हैं। हरियाणा में चने के भुने हुए छोलियों को ‘होला’ कहा जाता है। होली इसी होला का अपभ्रंश है। होलिका दहन के समय आसपास का तमाम वातावरण आग की लपटों के संपर्क में आने के कारण दूषण रहित हो जाता है।
देवों का स्मरण
होली के आगमन से पूर्व हरियाणावासी दशरथ पुत्र श्रीराम एवं दादा शिव को याद करते हैं। फाल्गुन की नवमी को महिलाएं ‘जानकी नवमी का व्रत रखती हैं। दो दिन बाद कृष्ण पक्ष की एकादशी ‘विजया एकादशी’ के रूप में मनायी जाती है। इस मौके पर श्रीराम का स्मरण किया जाता है। तत्पश्चात कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी एवं चतुर्दशी को महाशिवरात्रि महोत्सव मनाया जाता है। होली से बारह-चौदह दिन पहले हमारी माता बहनें गाय के गोबर के सात बड़कुल्ले बनाती हैं। शुक्ल पक्ष की एकादशी को गोबर से ही ढाल, एक तलवार, सूरज-चंदा व होलिका माता तैयार करती हैं। होली से पांच दिन पूर्व होली के गीत गाना शुरू करती हैं। फाल्गुन सुदी पूर्णिमा को शाम को होली पूजन के बाद होली मंगलाई जाती है। अगले दिन धुलैंढी होती है। धुलैंढी (जिसका शाब्दिक अर्थ धूलिवंदन है) का पर्व तब आता है जब किसानों की कमाई खलिहान में आने को होती है। अपने श्रम को फलते-फूलते देख कृषक समाज खुशी से नाच उठता है। शिशिर की मार से सिकुड़ी हुई प्रकृति वसंत के गर्मगर्म मादक स्पर्श से रोमांचित व प्रफुल्लित हो जाती है। भीतर और बाहर आनंद का पारावार उमड़ पड़ता है।
लोक में धुलैंढी की तैयारियां
धुलैंढी का पर्व अपनी मस्त तानों को छेड़ता हुआ आता है। रंगों की बौछार बिखेरने वाला वसंत का यह उपहार आपस का प्यार बढ़ाता है। इस दिन पूरा हरियाणा अबीर- गुलाल के रंग में नहाकर झूम उठता है। ग्रामीण क्षेत्रों में चहुं ओर रंग-राग, गीत-संगीत, हंसी-ठिठोली और फाग का समा बंध जाता है। लेकिन हर्ष और आत्मीयता का यह महापर्व दिनोंदिन उमंग, उल्लास से दूर हट रहा है। कंप्यूटर युग से पहले हरियाणवी होली का रंग कुछ और ही था। पचासेक बरस पहले की वह विशिष्ट होली लोकजीवन से अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई थी। उन दिनों होली का त्योहार मकर संक्रांति से ही प्रारंभ हो जाता था। होली से पौने दो महीने पूर्व मकर संक्रांति वाले दिन होलिका दहन के स्थल को गोबर से लीपकर सर्वप्रथम भूमि पूजन किया जाता था। तदुपरांत होली का डांडा गाड़कर पालियों का उत्साहवर्द्धन किया जाता था। लड़के लकड़ी ‘बटली’ करने में जुट जाते थे तथा लकड़ियों, झाड़ियों एवं फूस-पाती आदि का अंबार लगा देते थे। बालिकाएं गोबर के ढाल-तलवार व बड़कुल्ले तैयार करने लग जाती थीं। रात भर जागकर होली के गीत गाये जाते थे। त्योहार से पहले चर्मकार से चमड़े की ढाल बनवायी जाती थी। बांस की पिचकारियां गांववासी स्वयं तैयार करते थे। ढोल, मृदंग, ताशे और मंजीरे झाड़-पोंछकर साफ किये जाते थे। टेसू के फूल सुखाकर रखे जाते थे। होली पर इन्हें शाम को कड़ाहे में भिगोते थे व थोड़ी-सी कलई डाल देते थे। सुबह तक प्राकृतिक केसरिया रंग तैयार हो जाता था। ढाक के फूलों को उबालकर भी लाल रंग तैयार किया जाता था। ढाक के फूलों के रंग से होली खेलने का विशेष महत्व होता था। यह रंग शरीर के रोमकूपों के जरिये के आभ्यन्तरिक स्नायु मंडल पर अपना प्रभाव डालता था और संक्रामक बीमारियों को शरीर के पास नहीं फटकने देता था।
फाग की मस्ती
धुलैंढी वाले दिन चौक में कड़ाहे गाड़े जाते थे। एक तरफ बीस-तीस भाभियां और दूसरी तरफ इतने ही देवर फाग खेलने के लिए सन्नद्ध हो जाया करते। भाभियां तड़ातड़ कोरड़े बरसाया करतीं और देवर कोरड़ों को लाठी पर ओटकर भाभियों को पानी से तरबतर किया करते। फाग देखने के लिए सारा गांव उमड़ पड़ता था। सब हंसी-ठट्टा, छेड़छाड़ में लग जाते थे। होली अब भी आती है। अब भी लोग होली मंगलाते हैं। स्त्रियां होली गाती हैं। रंग भी उड़ाते हैं। पर वह होली अब कहां? त्योहारों की सरसता को कंप्यूटरों के मशीनी संसार ने निगल लिया है। कौन जाने कहां खो गई वह होली? कहां गुम हो गई वह सरसता, वह सद्भावना, वह सामंजस्य और आपस की वह निश्छल बोल-बतला? कहां खो गये फगुआ गाने वाले? गाली- गलौज, अश्लील गानों ने धवल धौल फागुनी पूर्णिमा मटमैली कर दी है। जन-परंपरा से जुड़े धूलिवंदन के महापर्व को हमने बिसार दिया है। जी जलाने वाली बात यह है कि नशेड़ियों ने शराब, भांग, सुलफा व गांजा पीने के लिए भी होली का ही दिन नियत कर लिया है।
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