मोनिका शर्मा
जीवन की जंग हो या खेल का मैदान बहुत कुछ एक सा है। कड़ी मेहनत, जीतने का ज़ज्बा, हौसला, लीडरशिप, दृढ़ता, गंभीरता, अनुशासित दिनचर्या और नाकामयाबी पर भी असीम धैर्य। जो कुछ जि़न्दगी से जूझने के लिए चाहिए वही खेल के मैदान में भी बेहद ज़रूरी है। ऐसे में नयी पीढ़ी को खेलों से जोड़ना ज़रूरी है। उनके व्यक्तित्व को ठहराव और संघर्ष का पाठ पढ़ाने के लिए खेलना बेहद ज़रूरी है।
शारीरिक सक्रियता
हाल के बरसों में बच्चों का निष्क्रिय लाइफस्टाइल वाकई चिंता का विषय बन गया है। मोटापा और कम उम्र में दूसरी बीमारियों की दस्तक अभिभावकों को भी डरा रही है। ऐसे में गेम्स फिजिकल एक्टिविटीज के साथ ही मानसिक स्वास्थ्य की बेहतरी में भी मददगार हैं। खेलने से तो हर उम्र के लोगों को मानसिक स्फूर्ति मिलती है। बच्चों में तो यह स्फूर्ति पढ़ने लिखने की क्षमता में भी इज़ाफा करती है। विशेषज्ञ भी मानते हैं कि खेल के मैदान में उतर कर बच्चों का मानसिक तनाव कम होता है और एकेडेमिक फ्रंट पर बेहतर परफॉर्म करने के मौके बढ़ जाते हैं।
जुड़ाव का भाव
खेलों से जुड़ी टीम स्पिरिट का भाव बच्चों के मन में आपसी जुड़ाव की सोच भी लाता है। बचपन से ही साथ और सहयोग का पाठ पढ़ाता है। बतौर टीम सदस्य जो जिम्मेदारी के भाव बच्चों के मन में पनपते हैं वे आगे चलकर उनके सामाजिक-पारिवारिक जीवन में भी काम आते हैं। अपने हमउम्र साथियों के साथ मिलकर खेलने और हार जीत को जीने का भाव उन्हें सिर्फ अपने आप तक सिमटे रहने के दायरे से बाहर लाता है। उनके मन की झिझक दूर होती है और वे मिलनसार बनते हैं। समझना मुश्किल नहीं कि बचपन में ही पैदा होने वाली सामाजिकता की ऐसी सकारात्मक सोच बच्चों को जिम्मेदार और सहयोगी नागरिक भी बनाती है।
अनुशासन और समय प्रबंधन
खेलों से जुड़कर बच्चे समय प्रबंधन भी सीखते हैं और अनुशासन भी। किसी भी काम को नियमित करने और बेहतर बनने की आदत उनके व्यवहार का हिस्सा बन जाती है। इसीलिए अभिभावकों की जिम्मेदारी है कि बच्चों को खेलों से जोड़ने की हर संभव कोशिश करें। इनडोर या बच्चे की पसंद का आउटडोर गेम खेलने में रुचि पैदा करना उनके रोजमर्रा के शेड्यूल को प्रोडक्टिव बनाता है।
स्क्रीन पर खेल ठीक नहीं
आजकल बच्चे खेल भी स्क्रीन के मैदान में ही खेलते हैं। स्मार्ट स्क्रीन तक सिमटी खेलों की दुनिया उनके लिए हर तरह से घातक तो है ही कई बार अपराधियों के जाल में भी फंसा देती है। कुछ खेल ऐसे भी हैं जो बच्चों के लिए जानलेवा बन जाते हैं। घंटो स्क्रीन में ताकते रहने से उनकी आंखों पर बुरा असर पड़ता है। स्मार्ट गैजेट्स को बच्चे जिस तरह पकड़कर बैठते हैं, उनका पोस्चर खराब होता है।
आज के समय में ऑनलाइन पढ़ाई के तनाव और व्यस्तता के चलते बच्चे खेलों से बिलकुल दूर हो गए हैं। कोरोना काल में घर तक ही सिमटी जिन्दगी में उनका शारीरिक और बौद्धिक विकास भी प्रभावित हो रहा है। ऐसे में इस आपदा के बाद बच्चों को ज्यादा से ज्यादा आउटडोर एक्टिविटीज से जोड़ने की सोच रखनी होगी। इन दिनों भी स्क्रीन पर ज्यादा वक्त बिताने के बजाय इनडोर गेम्स खेलने को समय दिया जाए तो ज्यादा अच्छा है। इसके लिए अभिभावकों का भी खेलों में रुचि लेना आवश्यक है।