सावन में हर साल हरिद्वार में आस्था का जन सैलाब उमड़ता है कांवड़ यात्रियों के रूप में। कई राज्यों के श्रद्धालु यहां से गंगाजल ले जाकर अपने नजदीकी शिवालयों में जलाभिषेक करते हैं। सही मायनों में शिव जटाओं से निकली गंगा के शिव से पुनर्मिलन का पर्व है कांवड़ यात्रा। मान्यता है कि पहलेपहल भगवान परशुराम ने कांवड़ उठाई थी, गंगा से निकले पत्थरों को दिया वचन निभाने के लिए। उसी वचन को परंपरा रूप में निभाते चले आ रहे हैं महादेव के भक्त। ऐसी ही कुछ और कथाएं भी हैं।
कौशल सिखौला
श्रावण मास की कांवड़ यात्रा गंगा और शिव के प्रति मानवीय श्रद्धा की पराकाष्ठा है। हर की पैड़ी से लेकर देश के कई राज्यों तक हर साल श्रावण कृष्ण पक्ष में आस्था का अनोखा सैलाब उमड़ता है। इन दिनों गंगा के समानांतर चलते हुए ये कांवड़ यात्री विभिन्न राज्यों की ओर गंगाजल से भारी कांवड़ें लेकर शिवालयों की ओर बढ़ रहे हैं। धर्मयात्रा महासंघ का मानना है कि कांवड़ यात्रा दुनिया की सबसे लंबी यात्रा है। अपनी मन्नतों और सुखों की कामनाओं से भरे ये कांवड़िए गांव-गांव के शिवालयों में शिव चौदस पर 26 जुलाई को भगवान आशुतोष का जलाभिषेक करेंगे। गंगाजल की यह यात्रा कब शुरू हुई, इसे लेकर अनेक किंवदंतियां हैं। वास्तव में शिव की जटाओं से निकली गंगा का भगवान शिव के साथ पुनर्मिलन है कांवड़ यात्रा।
शिवलिंग रूप में स्थापना
परंपराओं और मान्यताओं में जाएं तो हर की पैड़ी से पहली कांवड़ त्रेतायुग में भगवान परशुराम ने स्वयं उठाई थी। यद्यपि तब कांवड़ यात्रा का आज जैसा रूप नहीं था। शिवलिंगों की स्थापना के लिए परशुराम ने गंगा से पत्थर निकाले तो पाषाण करुण क्रंदन करने लगे। उन्होंने भगवान परशुराम से कहा कि हमें मां गंगा से अलग न करो। तब परशुराम ने वचन दिया कि पत्थरों को शिवलिंग के रूप में जहां-जहां स्थापित किया जाएगा, श्रावण मास में शिवभक्त हर की पैड़ी के जल से वहां-वहां जलाभिषेक करेंगे।
पहला मंदिर पुरामहादेव
दुष्ट राजाओं के दलन के बाद परशुराम ने यज्ञ करने का निर्णय लिया। इस यज्ञ का आयोजन बागपत के पास वर्तमान पुरामहादेव मंदिर परिसर में किया गया। हरिद्वार की हर की पैड़ी से निकाले शिवलिंग से पहला मंदिर पुरामहादेव के रूप में स्थापित हुआ। इस संबंध में आचार्य बृहस्पति और पंडित विष्णु शर्मा ने पुस्तक भी लिखी है। पुरा के बाद परशुराम के शिष्यों ने देश के सैकड़ों नगरों -गांवों में शिव मंदिर बनाए। गंगा तट पर दिए गए वचन का पालन करवाने के लिए सावन में जगह -जगह के श्रद्धालु गंगाजल लेने कांवड़धारियों के रूप में आते हैं। हरिद्वार के बाद अब काशी , प्रयाग आदि तीर्थों से भी जल ले जाया जाने लगा है।
अनेक पुरा कथाएं
कांवड़ यात्रा को लेकर कुछ अन्य पुरा कथाएं भी पुराणों में उपलब्ध हैं। इनके अनुसार समुद्र मंथन के बाद जब समुद्र से निकला विष जब भगवान शंकर ने ग्रहण किया तब विष की ज्वाला से उनका शरीर जलने लगा। विष को गले में रोकने से उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाए। विष से उत्पन्न ज्वाला को शांत करने के लिए रावण ने पहला जलाभिषेक सावन में किया। यही कांवड़यात्रा का शुभारंभ था। इसी प्रकार बाबाधाम में राम के जलाभिषेक का वर्णन भी शास्त्रों में उपलब्ध है ।
पितृभक्त श्रवण कुमार से भी जुड़ी यात्रा
कहा जाता है कि मातृ-पितृभक्त श्रवण कुमार ने कांवड़ बनाकर नेत्रहीन माता-पिता को उसके दोनों पलड़ों में बिठाया। तीर्थाटन करते हुए वे श्रावण में हरिद्वार आए और माता-पिता को ब्रह्मकुंड पर स्नान कराया। उसी को बाद में कांवड़ यात्रा का स्वरूप प्राप्त हुआ। कांवड़ यात्रा वस्तुतः शिव मंदिरों तक गंगाजल की सबसे बड़ी पैदल यात्राओं से जुड़ी हुई है। एक बार फिर लाखों कांवड़िए गंगा को यात्रा कराने निकल पड़े हैं।