कोरोना काल में नशे पर लगाम लगती दिख रही थी, लेकिन मामला नशेड़ियों की संख्या में कमी का नहीं, बल्कि उसके धंधेबाजों की ओर से की जाने वाली सप्लाई रुक जाने का था। लॉकडाउन के बाद आम जिंदगी ने जरा-सा कदम क्या बढ़ाया, नशे के धंधे ने तो रफ्तार पकड़नी ही शुरू कर दी। बड़ी-बड़ी खेपें पकड़ी गयीं, कुछ गिरफ्तारियां भी हुईं, लेकिन धंधा है कि मंदा पड़ता ही नहीं। सरकारी सख्ती के बावजूद नशे का जाल फैलता ही जा रहा है, कैसे? बता रहे हैं पुष्परंजन
भुबनेश्वर रेलवे स्टेशन का पार्सल ऑफिस, तारीख 1 अगस्त, 2020। ओडिशा के गंजम ज़िले के दो लोग, सागर प्रधान और संतोष साहु बुकिंग काउंटर पर पहुंचे, उन्हें 10 बंडल काजू दिल्ली के लिए बुक करना था। दसियों कार्टन अच्छी तरह से पाॅलिथिन में पैक किये गये थे। रात के साढ़े ग्यारह बजे पार्सल बुक करने आये इन दोनों लोगों की गतिविधियां और कार्टन के वज़न को देखकर रेल स्टाफ को संदेह हुआ। उसमें से एक बंडल को किसी बहाने अंदर ले जाकर खोला गया, तो वह गांजा निकला। 411 किलो गांजे के बंडलों की क़ीमत 41 लाख बताई गई। दोनों तस्कर धर लिये गये। पूछताछ से पता चला कि गांजा रायगढ़ से लाया गया था, जो इसकी अवैध खेती के लिए कुख्यात है। रेलवे के सूत्र बताते हैं कि अप्रैल से जुलाई के बीच देशभर में कभी महीने भर में 16 किलो के लगभग गांजे की बरामदगी हुआ करती थी, अब केवल एक ठिकाने पर 411 किलो गांजे का पकड़ा जाना यह संकेत दे रहा था कि नशे के कालाबाज़ारियों ने रेल मार्ग को तस्करी का आसान माध्यम समझ लिया।
नशीले पदार्थों की बरामदगी में तेज़ी
भुबनेश्वर रेलवे स्टेशन पर गांजे की बरामदगी से एक दिन पहले नशा निरोधक दस्ते ने गजपति ज़िले में 1050 किलो गांजे की खेप पकड़ी थी, जिसे प्याज़ से लदे एक ट्रक के ज़रिये बनारस भेजा जा रहा था। गजपति ज़िले के एसपी तपन कुमार पटनायक ने पत्रकारों को जानकारी दी थी कि ओडिशा-आंध्र बेल्ट में गांजा-अफीम के तस्कर कोरोना लाॅकडाउन की अवधि में सर्वाधिक सक्रिय हैं। कोरोना आने से पहले पूरे साल भर में 531 किलो गांजा पकड़ा गया था। छह माह के कोरोना कालखंड में सिर्फ़ ओडिशा के गजपति ज़िले में चार गुना, 2319 किलो गांजे की बरामदगी इसका प्रमाण है कि नशे के धंधे ने ज़ोर पकड़ लिया है। 19 जुलाई 2020 को चितौड़गढ़ के शादी गांव में 234 किलो अफीम पकड़ी गई थी। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) के अधिकारियों ने जानकारी दी कि इस सिलसिले में आर लाल और एमके धाकड़ नामक दो लोगों को गिरफ्तार किया गया था। एनसीबी के डीजी ऑपरेशंस केसी मल्होत्रा के अनुसार, यह ड्रग राजस्थान और मध्य प्रदेश में सक्रिय गिरोह से संबंधित थी।
सेंट्रल ब्यूरो ऑफ नारकोटिक्स वित्त मंत्रालय के निर्देश पर मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के किसानों को गांजा-भांग के उत्पादन का लाइसेंस जारी करता है। एनसीबी के डीजी ऑपरेशंस केसी मल्होत्रा के बकौल, ‘मध्यप्रदेश के मंदसौर, नीमच, रतलाम और राजस्थान के चित्तौड़गढ़, झालावाड़ के किसान लाइसेंस के आधार पर गांजा-भांग, पोस्त उपजाते हैं, इन्हीं इलाकों में अफीम प्रोसेस किया जाता है, फ़िर इसके अवैध कारोबारी चोर दरवाज़े से इसकी तस्करी शुरू करते हैं।
इनसे अलग वैध रूप से 2008-2009 में 44 हज़ार 821 किसानों को अफीम की पैदावार के वास्ते लाइसेंस जारी किये गये थे। 2019-20 के आंकड़े वित्त मंत्रालय या नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने उपलब्ध नहीं कराये हैं। ये किसान राजस्थान के प्रतापगढ़, मध्यप्रदेश के मंदसौर, रतलाम, नीमच, यूपी के बाराबंकी, बरेली, लखनऊ, फैज़ाबाद मुख्य रूप से हैं।
लाॅकडाउन से नुकसान
इस बार हुआ यह कि कोरोना लाॅकडाउन की वजह से सप्लाई रुक गई और मादक पदार्थों का बड़ा ज़खीरा जगह-जगह जमा हो गया। पूरे भारत के विभिन्न ठिकानों से अफीम, गांजा, चरस, हेरोइन, कोकिन, हशीश, मेथाक्वालोन, ऐम्पेथामिन जैसे नशीले पदार्थों व ड्रग की सप्लाई वाले बंडल अपने गंतव्य पर जा नहीं सके थे। तमिलनाडु, आंध्र, तेलांगना, कर्नाटक में नारकोटिक्स के पोस्टल पार्सल अपने ठिकानों पर पहुंच नहीं पाये।
गोल्डन ट्रैंगल और गोल्डन क्रीसेंट
गोल्डन ट्रैंगल थाइलैंड, लाओस और म्यांमार के त्रिकोण पर बसा वह इलाक़ा है, जो नशे की खेती के लिए सदियों से कुख्यात रहा है। रूआक और मेकोंग नदी घाटी में 9 लाख 50 हज़ार वर्गमील का यह इलाका अफीम उत्पादन के मामले में अफग़ानिस्तान के गोल्डन क्रीसेंट से होड़ लेता दिखता है। गोल्डन क्रीसेंट अफग़ानिस्तान, पाकिस्तान और ईरान की सरहदों को छूता इलाका है, जहां नशे के साथ-साथ आतंकवाद की खेती होती है। 1991 में अफग़ानिस्तान विश्व का सबसे बड़ा अफीम उत्पादक देश बन चुका था। उस साल 1 हज़ार 782 मीट्रिक टन अफीम को अफगानिस्तान में तैयार किया गया था। सीआईए के आंकड़े बताते हैं कि नव्बे फीसद नाॅन फार्मास्यूटिकल्स अफीम पूरी दुनिया को अफग़ानिस्तान सप्लाई करता है। यह देश हशीश उत्पादन में भी अव्वल है। 2001 में अमेरिकी कार्रवाई से पहले तालिबान ने अफीम की खेती बंद करने का फतवा भी जारी किया था, मगर कबीलाई सरदारों और ड्रग माफिया ने इसकी ज़रा भी परवाह नहीं की। बल्कि हथियार व पैसे जुटाने वाले कई तालिबान लड़ाके इसे मानने से मना करते रहे।
अफीम की खेती म्यांमार में कम होने लगी
म्यांमार में अफीम की पैदावार 50 हज़ार 300 हेक्टेयर ज़मीन पर होती थी। यह रकबा 2020 में घटकर 33 हज़ार 100 हेक्टेयर पर पहुंच गया। यूएनओडीसी (यूनाइटेड नेशंस ऑफिस ऑन ड्रग्स एंड क्राइम) ने जानकारी दी है कि काचिन प्रांत को छोड़कर शान स्टेट, जहां 85 फीसद अफीम की खेती होती है, वहां का रकबा घटा है। म्यांमार के चिन और कयाह स्टेट में भी पाॅपी प्लांट लोगों ने कम बोना आरंभ किया है। 2019 में अफीम उत्पादन की राष्ट्रीय औसत प्रति हेक्टयर 15.4 किलो रह गई है। भारत में प्रति हेक्टेयर 53 से 45 किलो तक है। इससे तुलना करने पर साफ पता चलता है कि म्यांमार के मुकाबले भारतीय खेतों में साढ़े तीन गुना अफीम तैयार करने की गुंजाइश सरकार ने बना रखी है।
ड्रग पैदा करने वाले देश के नागरिक सबसे पहले शिकार
यह मानकर चलें कि जो देश अफीम, चरस, कोकेन तैयार कर रहे हैं, वहां उनके नागरिक भी नशे की चपेट में भयानक रूप से आ रहे हैं। म्यांमार इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। वहां तीस लाख से अधिक नागरिक नशे के आदी हैं। यह देश दक्षिण-पूर्व एशिया और ऑस्ट्रेलिया तक अपनी सप्लाई चेन को विकसित किये हुए था। म्यांमार में दवा बनाने के वास्ते सरकार 6 टन हेरोइन इस्तेमाल करती है, जिससे 29 करोड़ डाॅलर की कमाई उसे हो जाती है। मगर, इससे इतर साल में दस अरब डाॅलर से अधिक की हेरोइन म्यांमार के ड्रग सप्लायर काले बाज़ार में खपा चुके होते हैं। 2019 में यूएन की रिपोर्ट आई थी कि भारत में नशे के आदी लोगों की संख्या में 30 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। साल भर बाद कोरोना काल में यह प्रतिशत निश्चित रूप से बढ़ा होगा।
बेरोज़गारी और अवसाद बड़ा कारण
कोरोना कालखंड में लोग व्यापक रूप से अवसाद, अकेलापन, मानसिक संताप से गुज़र रहे हैं, ऐसे में सबसे अधिक ख़तरा उनके ड्रग्स एडिक्ट होने का रहता है। म्यांमार की तरह भारत भी चोरी-छिपे ड्रग उत्पादन और उसकी घरेलू खपत की दिशा में तेज़ी से बढ़ रहा है। सरकार को भी पता है कि झारखंड, आंध्र, ओडिशा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल के नक्सल प्रभावित इलाकों में गांजे की खेती में लगातार वृद्धि होती रही है। इनसे इतर हिमाचल, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा जैसे सुदूर राज्यों में सरकार की नाक के नीचे गांजे की अवैध खेती हो रही है, इसका ब्योरा देने के वास्ते अधिकारी उपलब्ध नहीं हैं। एनसीबी ने सिर्फ़ अक्तूबर 2020 में 10,700.5 किलो गांजा देशभर में जब्त किये थे। इस साल अक्तूबर-नवंबर में राजस्थान और महाराष्ट्र में ट्रेमाडाॅल के 6,53,300 टेबलेट की जब्ती से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि लोग नशे के कई सारे विकल्प कैसे तलाशने लगे हैं। पूरे कोरोना काल में कश्मीर से केरल, कन्याकुमारी और समुद्र पार श्रीलंका तक गांजा-अफीम, नशे वाले वैकल्पिक टेबलेट के कारोबार में कितना विस्तार हुआ है, इस बारे में यूएनओडीसी के आंकड़े आने बाक़ी हैं।
ड्रग का विदेशों से भारत में आना
चेन्नई एयरपोर्ट पर कस्टम अधिकारियों ने नीदरलैंड, जर्मनी और ब्रिटेन से आये छोटे पार्सलों को नोटिस में लिया, जिनमें ड्रग भरे पड़े थे। भारत में सप्लाई रुकी तो तस्करों ने अमेरिका से हवाई मार्ग के ज़रिये गांजे की खेप मंगानी चाही। चेन्नई एयरपोर्ट के कस्टम कमिश्नर राजन चौधरी ने जानकारी दी कि जुलाई 2020 में 1700 ग्राम उच्च कोटि के गांजे से भरे पैकेट हमारे अधिकारियों ने बरामद किये, जो अमेरिका से भेजी गई थी, उसकी क़ीमत थी क़रीब नौ लाख। लाॅकडाउन यदि नहीं होता तो यही गांजा भारतीय ठिकानों पर 40 हज़ार रुपये किलो में मिल जाना था। चेन्नई कस्टम ने जुलाई 2020 में ही नौ ठिकानों से 1047 इक्सटेसी पिल्स के पैकेट बरामद किये, जो परमानंद की प्राप्ति कराते हैं। इनकी क़ीमत 104 करोड़ आंकी गई थी। ये परमानंद पिल्स भी विदेश के विभिन्न ठिकानों से भेजे गये थे। चेन्नई एक छोटा सा उदाहरण है, जिससे यह पता चलता है कि जो भारत ड्रग तस्करी का मार्ग हुआ करता था, अब स्वयं एक बड़ा बाज़ार बन चुका है। हाल ही में भारतीय तट रक्षक ने एक श्रीलंकाई नौका से हेरोइन, सिंथेटिक ड्रग्स की बरामदगी के साथ कई लोगों को गिरफ्तार किया है।
इनकी खेती दंडनीय
एनडीपीएस अधिनियम के अंतर्गत तीन प्रमुख पौधे हैं, जिनकी खेती, परिवहन, आयात, निर्यात, संग्रह, क्रय, विक्रय, उत्पादन किसी आदेश के बगैर दंडनीय है। कोका पौधे से कोकेन प्राप्त की जाती है। कैनाबिस को भांग का पौधा भी कहा जाता है। इस पौधे की पत्तियों और तने को सुखाकर गांजा बनाया जाता है। भांग केवल पत्तियों से तैयार हो जाती है। इस पौधे की मादा प्रजाति से एक गोंद जैसा द्रव निकलता है, जिससे चरस बनती है। पोस्त को अफीम के पौधे के नाम से जाना जाता है। इस पौधे की पत्तियां नशीली नहीं होती है। इसका एक फल होता है जिसे डोडा कहा जाता है। डोडा पर चाकू मारने से दूध जैसा द्रव निकलता है जो सूखने पर अफीम बनता है। डोडा के भीतर दाने होते है, जिन्हें खस-खस के दाने कहा जाता है, वह नशीले नहीं होते हैं, उन्हें मेवों में इस्तेमाल किया जाता है, जो सूखा हुआ ऊपर खोल बचता है उसे डोडा चूरा कहा जाता है, जो नशीला होता है लेकिन अफीम से कम। इस पौधे से मॉर्फिन प्राप्त की जाती है, जो दर्दनिवारक और नींद के लिए प्रयुक्त होती है
खेती के लिए सरकारी लाइसेंस
म्यांमार, अफगानिस्तान के बाद भारत है, जहां अफीम उत्पादन ज़ोरों पर है। सरकार की निगरानी में जो अफीम हासिल की जाती है, वह मुख्यतः दवा निर्माताओं को बेची जाती है। 1985 में नारकोटिक्स ड्रग एंड साइकोट्राॅपिक (एनडीपीएस) एक्ट पास किया गया था, जिसके आधार पर किसानों को गांजा, पोस्त, कोकाप्लांट की खेती की अनुमति दी जाती है। उससे पहले देश में ‘डेंजरस ड्रग एक्ट-1930‘ लागू था। कुछ और भी अधिनियम थे, जिन्हें समाप्त कर एक क़ानून बनाया गया। एनडीपीएस एक्ट 1985 बनाने का ज़ोर संयुक्त राष्ट्र द्वारा दिया गया था। इसके तहत एक अनुसूची सरकार ने तैयार की है, जिसमें कोका प्लांट, कैनाविस (गांजा), ओपियम पाॅपी जैसे पौधे शामिल किये गये हैं। कोका के पौधे से मुख्यतः कोकिन बनाई जाती है।
एनडीपीएस एक्ट के तहत सेंट्रल ब्यूरो ऑफ नारकोटिक्स मध्य प्रदेश के उन किसानों को ओपियम पाॅपी प्लांट की खेती की अनुमति देता है, जो प्रति हेक्टेयर 54 किलो अफीम सरकार को उपलब्ध कराना सुनिश्चित करते हैं। राजस्थान और उत्तर प्रदेश में यह उत्पादन सीमा 52 से 44 किलो प्रति हेक्टेयर है। एक पाॅपी डोडे से 30 से 35 ग्राम अफीम तैयार हो जाती है। प्रतापगढ़ के पाॅपी फार्मर अविनाश चंद मीणा बताते हैं कि सरकार अफीम की कीमत प्रति किलो एक हज़ार रुपये निर्धारित करती है, जबकि बाज़ार में यह 50 हज़ार रुपये प्रति किलो मिलता है। उस पर तुर्रा यह कि फसल बर्बाद होने पर किसानों को कुछ भी मुआवजा नहीं मिलता। भारत सरकार किसानों से अर्जित कच्चा माल मध्य प्रदेश के नीमच व यूपी के गाज़ीपुर की फैक्टरियों में प्रोसेसिंग के लिये भेजती है। वहां से तैयार अफीम अमेरिका, जापान, हंगरी, ब्रिटेन, फ्रांस, थाईलैंड निर्यात करती है। आमतौर पर इस अफीम से जीवन रक्षक और मार्फिन जैसी दवाएं तैयार की जाती हैं।
2017 में 10 हज़ार 283 हेक्टेयर ज़मीन पर अफीम की खेती की अनुमति सरकार ने दी थी। मगर, ड्रग के कारोबार में लगे अंडरवर्ल्ड के सूत्र बताते हैं कि नक्सल प्रभावित इलाकों में देशभर में जारी लाइसेंस से कई गुना अधिक गांजे-अफीम की खेती होती रही है। नीमच के अफीम किसान गोपाल साहू बताते हैं कि पाॅपी पौधे मौसम की मार से बचते हैं, तो तोते की चोंच से बचाना भी चुनौती है। दूसरा किसान को हरेक पैदावार का ब्योरा सरकार को देना होता है। एनडीपीएस एक्ट की धारा 31 ए में मृत्यु दंड तक का प्रावधान है। क़ानून की दृष्टि से देखें तो नशीले ड्रग के कारोबार में पकड़े जाने वाले लोगों को ज़मानत तक नहीं होती। मगर, क़ानून से बचने के तमाम रास्ते हैं, जिसके इस्तेमाल कर रसूखदार लोग बच निकलते हैं।