ब्रिटिश शासन के सबसे बुरे दौर में भी ‘द ट्रिब्यून’ चट्टान की तरह मजबूत रहा। इसका कारण श्री कालीनाथ रे का बेबाक लेखन था, जो दिसंबर 1917 से अप्रैल 1943 तक और फिर नवंबर 1944 से नवंबर 1945 तक लगभग 27 वर्षों तक ‘द ट्रिब्यून’ के संपादक रहे। 1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड से पहले, उनके संपादकीय खासतौर पर ‘अ कॉलोसल ब्लंडर’ और ‘ब्लेजिंग इन्डिस्क्रेशन’ ने पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर माइकल ओ डायर की नीतियों की कड़ी आलोचना की। श्री रे को राजद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया और ‘द ट्रिब्यून’ के प्रकाशन को दो महीने के लिए निलंबित कर दिया गया। कालीनाथ रे 28 अगस्त 1919 को जेल से रिहा हुए। इसके बाद श्री रे और ‘द ट्रिब्यून’ ज्यादा मजबूत होकर उभरे।
ब्रिटिश शासन से टक्कर के उस दौर में प्रकाशित समाचारों के कुछ अंश…
महात्मा गांधी के विचार (11 जून, 1919) : ब्रिटिश शासन द्वारा आईपीसी की धारा 124-ए (देशद्रोह) के तहत कालीनाथ रे की गिरफ्तारी की महात्मा गांधी ने निंदा की थी। समाचार पत्र ‘यंग इंडिया’ में महात्मा गांधी ने लिखा, ‘कालीनाथ रे का ‘Blazing Indiscretion’ संपादकीय पंजाब विधान परिषद में माइकल डायर के भाषण की सटीक आलोचना है।’
कालीनाथ रे जेल से रिहा (28 अगस्त 1919) : कालीनाथ रे को सुबह साढ़े 7 बजे लाहौर सेंट्रल जेल से रिहा कर दिया गया। उच्च न्यायालय के अधिवक्ता श्री एस.के. मुखर्जी, ‘प्रकाश’ के संपादक लाला राधाकिशन, ‘द ट्रिब्यून’ के कार्यकारी संपादक और कई अन्य मित्र उन्हें लेने जेल के बाहर पहुंचे। श्री रे को ‘सर्वेंट्स ऑफ इंडियन सोसायटी, पुणे’ से यह केबल प्राप्त हुआ, ‘अन्यायपूर्ण उत्पीड़न के कारण आपने जो कष्ट सहे हैं, उसने भारत की होनी (भाव आजादी) को हमारे करीब ला दिया है।’
भगत सिंह पर रे का संपादकीय (26 मार्च 1931) : हाल के वर्षों में भारत की ब्रिटिश सरकार की कुछ गलतियों की तुलना भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की मौत की सजा को रद्द करने में विफलता की गंभीरता या महत्व से की जा सकती है। किसी अन्य आपराधिक मामले ने देश में इतनी सनसनी पैदा नहीं की है और न ही किसी भी मामले में मृत्युदंड को समाप्त करने की इतनी मजबूत और व्यापक मांग कभी हुई है। इससे पहले कभी भी किसी सरकार ने ऐसी स्थिति का विरोध नहीं किया है, जिसमें उसने न्याय के बजाय स्वार्थ के रास्ते को अधिक स्पष्ट या निश्चित रूप से अपनाया हो। इतने असाधारण तरीके से सही रास्ते पर चलने में कोई भी सरकार विफल नहीं हुई है।
अलविदा (द ट्रिब्यून, 11 दिसंबर, 1945) : 9 दिसंबर 1945 को बाबू कालीनाथ रे का निधन हो गया। ‘द ट्रिब्यून’ ने 11 दिसंबर 1945 को उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए संपादकीय में लिखा, ‘लगभग आधी सदी तक, कालीनाथ रे ने अपनी सदा चलती गतिशील कलम से अपने प्यारे देश की सेवा की। उन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के राजनीतिक पाखंड के खिलाफ लड़ाई लड़ी और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के संघर्ष को मजबूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।’
अपनी युवावस्था के दिनों से मैं उन्हें (कालीनाथ रे) एक प्रमुख भारतीय पत्रकार के रूप में जानता हूं। उनका व्यक्तित्व अद्वितीय था और वे जिस भी अखबार से जुड़े थे, उसमें यह झलकता था। जुझारूपन उनके व्यक्तित्व का हिस्सा था।
-जवाहर लाल नेहरू