
लेखक सीनियर जर्नलिस्ट हैं और
खानपान लेखन में खास दिलचस्पी है।
उत्तर भारत के कुछ चुनिंदा शहर हैं, जहां साउथ इंडियन फूड सबसे पहले पहुंचे और लोकप्रिय हुए। इसमें एक शहर बनारस था, इस शहर का प्राचीन समय से दक्षिण भारत से खास कनेक्शन भी रहा है। वैसे भी बनारस में पूरा भारत अपने-अपने तरीकों से अलग मोहल्लों में रहता आया है। मैंने अपना पहला डोसा 70 के दशक में खाया। ये गौदोलिया के एक रेस्टोरेंट में था। शायद 50 पैसे का। खासा स्वादिष्ट। 90 के दशक में बाजारवाद का दरवाजा खुलने के साथ एक अच्छी बात ये हुई कि साउथ के कई अच्छे रेस्टोरेंट की चेन पूरे देश में फैलने लगी तो दक्षिण के व्यंजनों की भी बहार आने लगी।
साउथ इंडिया की सबसे हिट डिश है मसाला डोसा। जो कंपलीट खाना माना जाता है। हालांकि अब पूरी दुनिया में फैल चुके डोसा के इतने अलग-अलग स्वाद आ चुके हैं कि हैरानी हो सकती है। अपने ही देश में डोसा 100 से कहीं अधिक तरह का मिल जाता है। डोसा एक ऐसा व्यंजन है जिसमें अनाज भी है, दालें भी, सब्जियां भी और स्वाद भी। वैसे मूल डोसा का पेस्ट जिसे बैटर भी कहते हैं, उसे चावल और उड़द दाल को भिगोकर और पीसकर बनाया जाता है। इस पीसे हुए पेस्ट को दही के साथ आमतौर पर रातभर के लिए छोड़ दिया जाता है, ताकि उसका फर्मेंटेशन हो सके।
अनायास ही बना ‘डोशा’
बहुत से लोग मानते हैं कि डोसा का असली तौर पर जन्म उडुपी में हुआ। दुनिया के ज्यादातर आविष्कार जिस तरह अनायास या कुछ और करते हुए, वैसा ही हाल डोसे का भी है। कहा जाता है कि एक उच्च वर्ण के रसोइए ने चावल की शराब बनाने की कोशिश में ये बना डाला। दरअसल पुराने समय में एक वर्ण विशेष का मदिरा सेवन प्रतिबंधित था। बाजार में इसलिए उनके इसे खरीदकर पीने का सवाल ही नहीं उठता था। लिहाजा उस रसोइए ने खुद चावल का किण्वन करके उसे बनाने की कोशिश की। लेकिन इसने काम नहीं किया। लिहाजा उसने इसको गुस्से में गर्म पैन पर उडेल दिया। जब ये फैलकर कुरकुरी सी पपड़ी में बदला और रसोइये ने इसे चखा तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा, उसने तो खाने का एक स्वादिष्ट व्यंजन बना डाला था। डोशा का कन्नड़ में मतलब होता है गुनाह, चूंकि उस उच्च वर्ण के रसोइये ने शराब बनाने की कोशिश का गुनाह करते हुए इसे बनाया था तो इसे डोशा कहा गया, बाद में ये डोसा हो गया।
चटनी, सांभर का साथ
मूल रूप से इसे पहले चटनी के साथ खाया जाता था। सांभर और तरह-तरह की चटनियों का संग तो इसके साथ बाद में आया। डोसा क्रिस्पी भी होता है, स्पंजी और खाने में साफ्ट भी। शुरू में डोसा प्लेन ही होता था, जो चटनी और फिर कुछ समय बाद सांभर के साथ खाया जाने लगा। इसके बाद जब इसके अंदर आलू, प्याज का मिक्स्चर भरा गया तो ये मसाला डोसा हो गया। लेकिन शुरुआती सदियों में डोसा प्लेन ही था और बहुत चाव से खाया जाता था। असली डोसा असल में वही था।
आलू भरा मसाला डोसा
जब पुर्तगाली भारत में आलू लेकर आए और ये देखते ही देखते गोवा से निकलकर पूरे भारत में लोकप्रिय होने लगा तो ये आलू डोसे के अंदर आकर मसाला डोसा बन गया। हालांकि अब तो डोसे के बाहरी और अंदरुनी स्टफ में बहुत से प्रयोग हो रहे हैं। देश के अलग-अलग हिस्सों में तमाम तरह के डोसों के स्वाद मिल जाएंगे।
हर शहर का अपना डोसा
आमतौर पर मसाला डोसा सांभर, नारियल, टमाटर, पुदीना और कई तरह की चटनी के साथ परोसा जाता है। वैसे आपको बता दें कि दक्षिण भारत में विभिन्न शहरों के अलग तरह के डोसों ने पहचान बनाई और अब पूरे देश में उनकी डिमांड है, उन्हें तमाम रेस्तरां के मेनू में शामिल किया जाता है। मसलन मैसूर का मसाला डोसा अंदर केवल आलू के मसाले के साथ ही नहीं बनता बल्कि उसमें अंदर पुदीने या नारियल की चटनी भी डाली जाती है। वहीं बेने मसाला डोसा कर्नाटक के दावणगेरे से आता है, जिसे पर्याप्त बटर और आलू के मिक्सर के साथ बनाया जाता है। अब तो मसाला डोसा में अंदर आलू के साथ तमाम सब्जियों का इस्तेमाल किया जाता है, जिसमें मटर, गोभी, पत्ता गोभी, प्याज और गाजर भी शामिल किया जाता है। अब तो सूजी से भी मसाला डोसा बनाया जाता है, जिसे रवा डोसा के नाम से जाना जाता है। वैसे मसाला डोसा का असली मजा तभी आता है जब बाहरी और अंदरूनी स्टफ दोनों काफी समृद्ध हों।
मैसूर के राजा की देन!
वैसे डोसा के मूल स्थान से जुड़ी एक कहानी मैसूर के राजा से भी संबंधित है, जिनकी पाकशाला ने देश को कई तरह के पकवान दिए। मैसूर के महाराजा ने एक दिन जबरदस्त पार्टी दी। इस पार्टी के बाद बहुत सा खाना बच गया। राजा नहीं चाहते थे कि इतना खाना बर्बाद हो इसलिए उन्होंने अपने किचन स्टाफ और शेफ टीम से कहा कि वो इस बचे खाने से कुछ नया करें यानि अपनी क्रिएटिविटी दिखाएं। उन्होंने डोसे के अंदर बचे हुए फूड स्टफ को मसालों के साथ भूनकर प्लेन डोसे के अंदर भरकर इसे फोल्ड कर दिया। इस तरह कर्नाटक के उडुपी में उच्च वर्ण के रसोइए के जरिये बनाए गए डोसे के बाद मसाला डोसा की शुरुआत हुई।
दिल्ली में शुरुआत
कहा जाता है कि भारत में डोसा की लोकप्रियता देश की आजादी के बाद बढ़ी। दिल्ली में पहली बार डोसे की शुरुआत कनाट प्लेस पर स्थित मद्रास होटल ने की। हालांकि इस होटल को दिल्ली में 1930 में किसी साउथ इंडियन ने नहीं बल्कि दिल्ली में बस गए एक प्रवासी पंजाबी ने खोला था। आजादी के बाद मुंबई में कई उडुपी रेस्टोरेंट खुले। वैसे जो मसाला डोसा हमें होटलों में मिलता है, उसे उस रूप में होटलों में लाने का श्रेय 1930 में के़ कृष्णा राव द्वारा खोले गए उडुपी रेस्तरां ने लाया। डोसे की लोकप्रियता के बाद दक्षिण भारत के दूसरे व्यंजन भी जाहिर तौर पर देश में लोकप्रिय होने लगे।
इडली, डोसा का साझा बैटर
चावल और उड़द आमतौर पर 2 : 1 के अनुपात में मिलाकर भिगोया जाता है और फिर पीसकर पेस्ट बनाकर फर्मेंटेशन के लिए छोड़ दिया जाता है। आमतौर पर इडली, डोसा, उत्पम में एक ही बैटर का इस्तेमाल होता है। वैसे देश के अलग-अलग राज्यों में डोसा की परत भी अलग – अलग तरह की होती है। ये तमिलनाडु में मोटी परत वाला और आकार में छोटा होता है तो कर्नाटक में डोसे की परत पतली, लंबा और क्रिस्प। आमतौर पर मसाला डोसा में उबालकर पीसे आलू, प्याज और मिर्च के मसालों को मिलाकर उसके अंदर भरा जाता है। हालांकि अब इसके अंदर भरे मसालों की विविधता भी अलग हो चुकी है। कहीं आलू के इस मिश्रण को कढ़ाई में तेल के साथ फ्राई करके डोसा में भरा जाता है तो कहीं बिना फ्राई मसाला। आमतौर पर ये सांभर और नारियल चटनी के साथ ही सर्व किया जाता है। तमिल संगम साहित्य में छठी शताब्दी में इसके उल्लेख की बात कही जाती है, जिसमें डोसा का तो जिक्र हुआ लेकिन इडली का नहीं। कर्नाटक के साहित्य में इसका जिक्र चार सदी बाद जाकर हुआ। मनसोलास संस्कृत में 12वीं सदी में लिखी गई, जिसमें डोसे को डोसाका कहा गया, जिसमें चावल नहीं बल्कि दालों का ही इस्तेमाल होता था। आयुर्वेद कहता है कि डोसा कंप्लीट आहार है, जो हेल्दी भी है।