होली है भई होली है, बुरा क्या मानना होली है : The Dainik Tribune

आपकी होली में तो सबकी हो ली...

होली है भई होली है, बुरा क्या मानना होली है

होली है भई होली है, बुरा क्या मानना होली है

कृष्ण प्रताप सिंह

कृष्ण प्रताप सिंह

मेंहनी भौजी कई दिन पहले से ‘होलियाई’ हुई थीं। जिस भी देवर को पातीं, दौड़ा लेतीं और पकड़ पातीें तो उसकी गत बुरी करके छोड़तीं। बाल्टी भर रंग उड़ेल देतीं उस पर और जब तक वह ‘क्या भौजी, आप भी!’ कहता, उसके गालों पर गुलाल मलकर गाने लगतीं, ‘होली आई रे कन्हाई, रंग छलके, सुना दे जरा बांसुरी!’

भूल जातीं कि यह इक्कीसवीं सदी का तेईसवां साल है और अब देवर कुछ ज्यादा ही सयाने हो चले हैं। उनमें से कई ने एक दिलजले कवि की सलाह मानकर बांसुरी की चाह में बांसों के वन लगाने से ही तौबा कर ली है। दुःखों को अपना साथी अब वे मानते नहीं हैं। सो, उनकी चुनौतियां स्वीकार कर होली खेलने का हौसला दिखाते नहीं और सुखों की सुरंग में फंस जाते हैं तो न धूप के रह जाते हैं और न छांव के। उनके भरम में बार-बार नये-नये दुखों को न्यौतते और पछताते हैं!

आज भौजी को जो कसक सबसे ज्यादा साल रही थी, वह उनके सबसे खास देवर होने के बावजूद रामपलट के उनसे ‘बचे’ रह जाने की थी। एक बार घात लगाकर उन्हें पकड़ा भी तो उनका उदास चेहरा और सूजे हुए गाल देखकर उनकी बुरी गत बनाने की सोच ही नहीं पाईं। विमन-सी होकर बोलीं, ‘यह क्या देवर, साढ़ू से नहीं जीते तो सढ़ुआइन के बाल नोच रहे हो! गाल सुजाये देवरानी ने और गाज गिरा रहे हो, भौजाई पर! मैं तो कहती हूं कि तुम इस भौजाई को अपने अरमान नहीं निकालने देना चाहते तो न सही, उठो, अपने अरमान तो निकालो। चाहो तो भौजाई की एके 47 उसी पर चला दो आज!’

बात खत्म करके उन्होंने अपनी पिचकारी की ओर इशारा भी किया, ताकि रामपलट उनके कहे का कोई और अर्थ निकालकर बात का बतंगड़ न कर सकें। लेकिन रामपलट ने अपनी सूरत वैसी ही रोनी बनाये रखी। लेकिन भौजी इतनी जल्दी हार कहां मानने वाली थीं? उन्होंने अपने तईं उन पर अग्निबाण, माफ कीजिएगा, अग्नि मिसाइल ही चला दिया, ‘तुम्हारी नादानी की कसम देवर! मैंने ऐसे बाबा तो अनेक देखे हैं जो फागुन आते ही देवरों को मात करने लग जाते हैं, लेकिन ऐसा अभागा देवर आज पहली बार देख रही हूं, जो फागुन में भी बैरागी बना बैठा रहे और बिजली जैसी भौजाई को सामने खड़ी देखकर भी जिसकी उमंगें जवान न हों! अंततः वे जीतीं। रामपलट बोले, ‘मुझे क्षमा कर दीजिए भौजी, कई भाइयों ने जिस तरह होली को रंजिश निकालने, सताने और बदतमीजियों को मान्यता दिलाने का लाइसेंस बना दिया है, उससे मुझे बहुत डर लगता है।’ सुनकर भौजी झुंझला-सी उठीं। बोलीं, ‘एक बात कहे जाती हूं। न मेरे पास देवरों की कमी है कि मैं रंग डलवाने के लिए तुम्हें मनाऊं और यह सयानापन बघारने से पहले, काश, तुम समझते कि खुदा न खास्ता, होली के दिन तक यह भौजाई तुम्हें रंगकर बंदर बनाने में कामयाब हो जाये तो भी तुम अदरख का स्वाद नहीं ही समझ पाओगे।’ भौजी यहीं नहीं रुकीं। रामपलट को धिक्कारते हुए बोलीं, ‘क्या करोगे, होली के रंगों में घुले प्रेम के रसायन तुम जैसों के लिए होते ही नहीं हैं।’ लेकिन यह क्या, भौजी अभी मुड़ी ही थीं कि उन पर एक तेज बौछार पड़ी, जो उसी बाल्टी से निकली थी, जिसे वे रामपलट को नहलाने के लिए रंग से भरकर लाईं और उनकी रोनी सूरत देखकर भूल गई थीं। रामपलट ने मौका पाते ही उनकी बाल्टी उनके सिर कर दी और विजय दर्प से भरकर बोले थे, ‘बुरा मत मानियेगा, भौजी! आपके नहले पर दहला जड़ने का बस यही एक तरीका था। यों, भौजाई के साथ होली खेलना किस देवर को अच्छा नहीं लगता?’ भौजी ने बुरा नहीं माना, लेकिन एक चुभती हुई टिप्पणी करने से नहीं चूकीं, ‘इस जीत पर बहुत इतराना मत। याद रखना, सबै दिन जात न एक समान।’ रामपलट ने कहा, ‘छोड़िये भी, आपसे जो करते बने, कर लीजिएगा। देवर बनकर जन्मा हूं तो बकरे की अम्मा खैर मना ले, तो मना ले, मैं भौजाइयों से क्या खाकर खैर मनाऊंगा? लेकिन मुझसे बदला चुकाने आइए तो जरा उन बदनसीब भौजाइयों को भी याद कर लीजिएगा जो ‘कोई तो रंग से अंग भिगोये, कोई अंसुअन से अंग भिगोये’ गाती-गाती बूढ़ी हुई जा रही हैं!’

रामपलट की बात सुनकर भौजी एक पल को तो हतप्रभ-सी होकर रह गईं। इस कदर कि उनके चेहरे पर एक के बाद एक कई रंग आये और गये। लेकिन अगले ही पल संभलकर बोलीं, ‘देवर हो, देवर की तरह ही रहो। ज्यादा सयाने बनने के फेर में मत पड़ो।’ रामपलट को उनकी ओर से ऐसे प्रत्याक्रमण की आशा नहीं थी। इसलिए वे कुछ भी समझ नहीं पाये। भौजी ने उन्हें अपना मुंह देखते पाया तो बोलीं, ‘अहमक कहीं के। तुम तो देवर होने लायक भी नहीं। इतना भी नहीं समझते कि कोई भौजाई होली पर आंसुओं से अंग कब और क्यों भिगोती है?’ नादान रामपलट फिर भी अवाक् ही रहे। अंततः भौजी ने उन पर तरस खाया। बोलीं, ‘तब भिगोती है, जब देवरों की बिना पर तो अपने जीवन में आया रंगों का अकाल दूर नहीं ही कर पाती, बाबा तक को देवर बनाकर हार जाती है। स्वार्थी बाबा और देवर यह तो चाहते हैं कि उनकी होली में सबकी होली हो ले, लेकिन अपनी होली में किसी और की होली का हो लेना गवारा नहीं करते। रामपलट सोच में डूब गये-ऐसा है तो यह होली मनाना है या गोली देना?

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