‘मेरे सपनों का भारत’ का एक अंश : ज्यादातर भाग इंदौर में वर्ष 1935 में हुए हिंदी साहित्य सम्मेलन के 24वें अधिवेशन में अध्यक्ष-पद से दिए गए गांधीजी के मूल हिंदी भाषण का है…
मोहनदास करमचंद गांधी
मुझे पक्का विश्वास है कि किसी दिन द्रविड़ भाई-बहन गंभीर भाव से हिंदी का अभ्यास करने लग जाएंगे। आज अंग्रेजी पर प्रभुत्व प्राप्त करने के लिए वे जितनी मेहनत करते हैं, उसका आठवां हिस्सा भी हिंदी सीखने में करें, तो बाकी हिंदुस्तान के जो दरवाजे आज उनके लिए बंद हैं, वे खुल जाएं और वे इस तरह हमारे साथ एक हो जाएं जैसे पहले कभी न थे। मैं जानता हूं कि इस पर कुछ लोग यह कहेंगे कि यह दलील तो दोनों ओर लागू होती है। द्रविड़ लोगों की संख्या कम है, इसलिए राष्ट्र की शक्ति के मितव्यय की दृष्टि से यह ज़रूरी है कि हिंदुस्तान के बाकी सब लोगों के द्रविड़ भारत के साथ बातचीत करने के लिए तमिल, तेलगु, कन्नड़ और मलयालम सिखाने के बदले द्रविड़ भारतवालों को शेष हिंदुस्तान की आम भाषा सीख लेनी चाहिए। यही कारण है कि मद्रास प्रदेश में हिंदी-प्रचार का कार्य तीव्रता से किया जा रहा है।
कोई भी द्रविड़ यह न सोचे कि हिंदी सीखना जरा भी मुश्किल है। अगर रोज के मनोरंजन के समय में से नियमपूर्वक थोड़ा समय निकाला जाए, तो साधारण आदमी एक साल में हिंदी सीख सकता है। मैं तो यह भी सुझाने की हिम्मत करता हूं कि अब बड़ी-बड़ी म्युनिसिपैलिटियां अपने मदरसों में हिंदी की पढ़ाई को वैकल्पिक बना दें। मैं अपने अनुभव से यह कह सकता हूं कि द्रविड़ बालक अद्भुत सरलता से हिंदी सीख लेते हैं। शायद कुछ ही लोग यह जानते होंगे कि दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले लगभग सभी तमिल-तेलगू-भाषी लोग हिंदी को समझते हैं, और उसमें बातचीत कर सकते हैं।
हिंदुस्तान की दूसरी कोई भाषा न सीखने के बारे में बंगाल का अपना जो पूर्वाग्रह है और द्रविड़ लोगों को हिंदुस्तानी सीखने में जो कठिनाई मालूम होती है, उसकी वजह से हिंदुस्तानी न जानने के कारण शेष हिंदुस्तानी से अलग पड़ जाने वाले दो प्रांत हैं-बंगाल और मद्रास। अगर कोई साधारण बंगाली हिंदुस्तानी सीखने में रोज तीन घंटे खर्च करे, तो सचमुच ही दो महीनों में वह उसे सीख लेगा, और इस रफ्तार से सीखने में द्रविड़ को छह महीने लगेंगे। कोई बंगाली या द्रविड़ इतने समय में अंग्रेजी सीख लेने की आशा नहीं कर सकता। हिंदुस्तानी जानने वालों के मुकाबले अंगेजी जानने वाले हिंदुस्तानियों की सख्या कम है। अंग्रेजी जानने से इन थोड़े से लोगों के साथ ही विचार-विनिमय के द्वार खुलते हैं। …मैं द्रविड़ भाइयों की कठिनाई को समझता हूं, लेकिन मातृभूमि के प्रति उनके प्रेम और उद्यम के सामने कोई चीज कठिन नहीं है।
अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की भाषा है, कूटनीति की भाषा है, उसमें अनेक बढ़िया साहित्यिक रत्न भरे हैं और उसके द्वारा हमें पाश्चात्य विचार और संस्कृति का परिचय होता है। इसलिए हममें से कुछ लोगों के लिए अंग्रेजी जानना ज़रूरी है। वे राष्ट्रीय व्यापार और अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के विभाग चला सकते हैं और राष्ट्र को पश्चिम का उत्तम साहित्य, विचार और विज्ञान दे सकते हैं। यह अंग्रेजी का उचित उपयोग होगा। आजकल तो अंग्रेजी ने हमारे हृदयों के प्रिय-से-प्रिय स्थान पर जबरन अधिकार कर लिया है और हमारी मातृभाषाओं को वहां से सिंहासनच्युत कर दिया है। अंग्रेजों के साथ हमारे बराबरी के संबंध न होने के कारण वह इस अस्वाभाविक स्थान पर बैठ गई है। अंग्रेजी के ज्ञान के बिना ही भारतीय मस्तिष्क का उच्च-से उच्च विकास संभव होना चाहिए। हमारे लड़कों और लड़कियों को यह सोचने का प्रोत्साहन देना कि अंग्रेजी जाने बिना उत्तम समाज में प्रवेश करना असंभव है, भारत के पुरुष-समाज के और खास तौर पर नारी-समाज के प्रति हिंसा करना है। यह विचार इतना अपमानजनक है कि इसे सहन नहीं किया जा सकता। अंग्रेजी के मोह से छुटकारा पाना स्वराज्य के लिए एक जरूरी शर्त है।
अगर हम बनावटी वातावरण में न रहते होते, तो दक्षिणवासी लोगों को न तो हिंदी सीखने में कोई कष्ट मालूम होता और न उसकी व्यर्थता का अनुभव ही होता। हिंदी-भाषी लोगों को दक्षिण की भाषा सीखने की जितनी जरूरत है, उसकी अपेक्षा दक्षिण वालों को हिंदी सीखने की आवश्यकता अवश्य ही अधिक है। सारे हिंदुस्तान में हिंदी बोलने और समझने वालों की संख्या दक्षिण की भाषाएं बोलने वालों से दोगुनी है। प्रांतीय भाषा या भाषाओं के बदले में नहीं, बल्कि उनके अलावा एक प्रांत का दूसरे प्रांत से संबंध जोड़ने के लिए एक सर्व-सामान्य भाषा की आवश्यकता है। ऐसी भाषा तो हिंदी-हिंदुस्तानी ही हो सकती है। कुछ लोग, जो अपने मन से सर्व-साधारण का खयाल ही भुला देते हैं, अंग्रेजी तो हिंदी की बराबरी से चलने वाली ही नहीं। परदेशी जुए की मोहिनी न होती, तो इस बात की कोई कल्पना भी न करता।
मैं हमेशा से यह मानता हूं कि हम किसी भी हालत में प्रांतीय भाषाओं को नुकसान पहुंचाना या मिटाना नहीं चाहते। हमारा मतलब तो सिर्फ यह है कि विभिन्न प्रांतों के पारस्परिक संबंध के लिए हम हिंदी भाषा सीखें। ऐसा कहने से हिंदी के प्रति हमारा कोई पक्षपात प्रकट नहीं होता। यदि हिंदी अंग्रेजी का स्थान ले, तो कम-से-कम मुझे तो अच्छा ही लगेगा। लेकिन अंग्रेजी भाषा के महत्व को हम अच्छी तरह जानते हैं। आधुनिक ज्ञान की प्राप्ति, आधुनिक साहित्य के अध्ययन, सारे जगत के परिचय, अर्थप्राप्ति तथा राज्याधिकारियों के साथ संपर्क रखने और ऐसे ही अन्य कार्यों के लिए हमें अंग्रेजी के ज्ञान की आवश्यकता है। अंग्रेजी अंतर्राष्ट्रीय भाषा है, लेकिन अंग्रेजी राष्ट्रभाषा कभी नहीं बन सकती। आज उसका साम्राज्य-सा जरूर दिखाई देता है। इसके प्रभुत्व से बचने के लिए काफी प्रयत्न करते हुए भी हमारे राष्ट्रीय कार्यों में अंग्रेजी ने बहुत बड़ा स्थान ले रखा है। लेकिन इससे हमें इस भ्रम में कभी न पड़ना चाहिए कि अंग्रेजी राष्ट्रभाषा बन रही है।
अगर हिंदुस्तान को हमें सचमुच एक राष्ट्र बनाना है, तो चाहे कोई माने या न माने, राष्ट्रभाषा तो हिंदी ही बन सकती है, क्योंकि जो स्थान हिंदी को प्राप्त है, वह किसी दूसरी भाषा को कभी नहीं मिल सकता। हिंदू-मुसलमान दोनों को मिलाकर करीब बाईस करोड़ मनुष्यों की भाषा थोड़े-बहुत फेरफार से हिंदी-हिंदुस्तान ही है। इसलिए उचित और संभव तो यही है कि प्रत्येक प्रांत में उस प्रांत की भाषा का, सारे देश के पारस्परिक व्यवहार के लिए हिंदी का और अंतर्राष्ट्रीय उपयोग के लिए अंग्रेजी का व्यवहार हो। हिंदी बोलने वालों की संख्या करोड़ों की रहेगी, किंतु अंग्रेजी बोलने वालों की संख्या कुछ लाख से आगे कभी नहीं बढ़ सकेगी। इसका प्रयत्न भी करना जनता के साथ अन्याय करना होगा।
हिंदुस्तानी हमारी राष्ट्रभाषा है या होगी, ऐसी घोषणा यदि हमने सच्चाई के साथ की है, तो फिर हिंदुस्तानी की पढ़ाई अनिवार्य करने में कोई बुराई नहीं है। इंग्लैंड के स्कूलों में लैटिन सीखना अनिवार्य था और शायद अब भी। उसके अध्ययन से अंग्रेजी के अध्ययन में कोई बाधा नहीं पड़ी। उलटे, इस सुसंस्कृत भाषा के ज्ञान से अंग्रेजी की समृद्धि हुई है। ‘मातृभाषा खतरे में है’ ऐसा जो शोर मचाया जाता है, वह या तो अज्ञानवश मचाया जाता है या उसमें पाखंड है। और जो लोग ईमानदारी से ऐसा सोचते है, उनकी देशभक्ति पर-यह देखकर कि वे बच्चों द्वारा हिंदुस्तानी सीखने के लिए रोज एक घंटा दिया जाना भी पसंद करते-हमें तरस आता है। अगर हमें अखिल भारतीय राट्रीयता प्राप्त करनी है, तो हमें इस प्रांतीयता की दीवार को तोड़ना ही होगा। सवाल यह है कि हिंदुस्तान एक देश और राष्ट्र है या अनेक देशों और राष्ट्रों का समूह है?
(साभार : हिंदी समय डॉट कॉम )