मन की नेमत तन की सेहत : The Dainik Tribune

कवर स्टोरी

मन की नेमत तन की सेहत

मन की नेमत तन की सेहत

ऋषि-मुनियों ने साधना, अभ्यास व जड़ी बूटियों की खोज करके मानवमात्र को स्वस्थ जीवन देने के भागीरथ प्रयास किये। दरअसल, हमारा स्वास्थ्य हमारे मन से संचालित होता है। जिसमें हमारी अनुशासित जीवन शैली व खानपान की भूमिका होती है। ऋषियों ने जड़ी-बूटियों में रोगों को दूर करने वाले रसायनों को खोजा। जिसकी आधारभूमि में कालांतर आयुर्वेद का विकास हुआ। सनातन ऋषि परंपरा में महर्षि चरक, सुश्रुत एव धन्वन्तरि आदि द्वारा जो ज्ञान मानव कल्याण के लिये दिया गया, वक्त के थपेड़ों व परतंत्रता के दौर में हम उससे दूर हो गये। इसी परिप्रेक्ष्य में पतंजलि योगपीठ व उसके आनुषंगिक संगठनों के सूत्रधार आचार्य बालकृष्ण से हुई बातचीत के अंश:-

अरुण नैथानी

दरअसल, आयुर्वेद में हमारे रोग के जो प्रमुख कारण गिनाये गये हैं, उनमें सबसे बड़ा कारण हमारा आहार-विहार व जीवन शैली की विसंगतियां हैं। इसके अलावा आगंतुक रोग यानी वायरस भी हमारे आहार-विहार से शरीर में बनी कमजोर रोग प्रतिरोधकता की स्थिति ही है। हमारी रोग का प्रतिरोध करने की शक्ति भी तो हमारे आहार-विहार से ही बनेगी। ऋषियों-मुनियों को इन चीजों का पता था। तभी पूरी आयु के लिये स्वस्थ-वृत्त का विधान किया था। हमें कब जागना है, कब सोना है, कब क्या खाना है, कितना खाना है, सबका उल्लेख है। प्रात:, मध्यांतर, संध्या के समय के अनुसार, आयु के अनुसार, ऋतु के अनुसार तथा शरीर की प्रकृति के अनुसार क्या भोजन लेना है। अन्य तथ्य यह कि अलग-अलग परिस्थितियों के अनुसार क्या लेना हैं। इतनी गंभीरता व गहराई से इनका वर्णन किया गया है कि कह सकते हैं कि स्वास्थ्य का मंत्र दिया गया है। आज भी देखे तो कोई भी मनुष्य ताज्जुब किये बिना नहीं रह सकता। दलअसल हमने स्वस्थ जीवन की शैली को भुला दिया है। घरेलू उपचार की पद्धतियां लुप्तप्राय हैं। हमने मान लिया है कि हरी-पीली गोली व इंजेक्शन में ही ताकत है। हमारी व्याधियों की वजह विकृत मानसकिता भी है। निस्संदेह गंभीर रोग से बीमार होने पर औषधि सेवन मजबूरी है लेकिन यदि हम ऋषि-मुनियों के बताए रास्ते पर चलें तो बुद्धिमत्ता से जीवन शैली में बदलाव लाकर स्वस्थ रहा जा सकता है। लेकिन जब आधुनिक जीवन की जटिलताओं में जीवन यापन को बाध्य होते हैं तो हमारी मनोदशा जीवन शैली को बाधित करती है? निस्संदेह, जीवन शैली ने हमारी मनोदशा को बिगाड़ा है। लेकिन एक बात तो तय है कि हम बाहर की परिस्थितियों के अनुसार जितना प्रभावित होंगे और जितना उन पर निर्भर होंगे, मन व देह की स्थितियां बनने-बिगड़ने लगेंगी। यदि हम बाहर से सकारात्मक को लाते हैं, गुणों को लाते हैं तो सुधरेंगी। यदि भय ‍व असुरक्षा को लाते हैं तो बिगड़ेंगी। बाहर के जितने साधन मसलन सोशल मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया व प्रिंट मीडिया, उसमें नकारात्मक खबरों का प्रवाह है। आज ऐसा कम देखने को मिलता है मित्र, बंधु-बांधव व रिश्ते-नातेदार सुधार की बात करते हों। हिम्मत देने वाले मित्र व रिश्तेदार वर्तमान में कम ही मिलेंगे। ये स्नेह व मार्गदर्शन बड़े बुजुर्गों में मिलता है। आध्यात्मिक संतों के सान्निध्य करने से मिलता है। हमारे ग्रंथ ऐसा ज्ञान प्रदान करते हैं कि कमजोर मन विविध रोगों का घर होता है। इसको संतवाणी मन चंगा तो कठौती में गंगा के संदर्भ में देख सकते हैं। इसका मतलब सिर्फ सतही ही नहीं है, अर्थ यह है कि मन अच्छा होने से हम रोगों से बच सकते हैं।

रोग प्रतिरोधक क्षमता बनाम इम्युनिटी

इधर कोरोना संकट में नया शब्द प्रचलन में आया, इम्युनिटी। इसे आयुर्वेद व प्राकृतिक चिकित्सा के संदर्भ में कैसे समझा जा सकता है? ये बात सही कही। पहले इम्युनिटी शब्द का प्रचलन नहीं था। हम सभी जानते हैं कि आयुर्वेद में हर औषधि आयुष देने वाली व निरोग को बढ़ाने वाले होती है। यह हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाकर आयुष देने वाली होती हैं। ये न केवल रोग को ठीक करती हैं बल्कि रोग के कारणों को पैदा करने वाली स्थिति को भी ठीक करती हैं। वहीं एलोपैथी में कोई दवा केवल रोग को दबाने के लिये काम करती है, लेकिन रोग प्रतिरोधक क्षमता नहीं बढ़ाती। अब लोगों को समझ में आया है कि आयुर्वेद सर्वमान्य रूप से इम्युनिटी को बढ़ाता है।

इम्युनिटी बढ़ाने का नुस्खा

तो आम आदमी की जीवनचर्या व खानपान कैसे हों जो वह सहजता से इम्युनिटी बढ़ा सकें? देखिये, प्रात: ऊषापान करें यानी पानी पीये। सर्दी में गरम या गुनगुना पानी लें। गर्मियों में मटके का पीने लें। कफ ज्यादा बनता है तो गर्मी में भी गुनगुना पानी लें। सही मायनों में पानी अमृत है। सेहत के लिये रामबाण दवा जैसे है। खाने में हम नाश्ता मध्यम करें, दोपहर में खाना पर्याप्त लें व रात को हल्का भोजन करें। दिन में सलाद व फल खायें लेकिन रात को न खायें। ये बेसिक जानकारी है। हमने बहुत सारे घरों में इस सिद्धांत को पहुंचाया है। महत्वपूर्ण यह भी है कि हर व्यक्ति प्रात:काल प्राणायाम व योग करे, जो रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में बहुत कारगर है। इसे सहजता व आराम से कर सकते हैं। इसके अलावा हमारे पूर्वजों की विरासत तुलसी, अदरक जैसी चीजें हैं। कच्ची हल्दी रोगनाशक है, नहीं हो तो हल्दी पाउडर ले सकते हैं। आंवले का ताजा जूस ले सकते हैं। एलोविरा बेहद उपयोगी है।

रसोई में मेडिकल स्टोर

कई घरेलू चीजों से रोगों का उपचार हो सकता है। यदि ज्यादा कफ हो तो गरम पानी में अदरक खूब पकाएं और थोड़ा शहद डाल लें। यदि गैस या एसिडिटी की समस्या हो तो जीरा भूनकर थोड़ा कच्चा जीरा मिलाकर ले लें । यदि पेशाब में जलन, थायराइड की समस्या हो, धातु रोग, डायबिटीज हो तो धनिये का पानी बेहद उपयोगी है। बहुत गैस बनती हो तो आधे चम्मच अजवाइन से तुरंत लाभ मिलता है। कोलेस्ट्रोल बढ़ा हो तो लोकी का जूस ले लें। हार्ट से जुड़ी परेशानी हो तो अर्जुन की छाल व दाल-चीनी का काढ़ा फायदेमंद होता है। लाखों लोगों को लाभ मिला है। इन चीजों में समय नहीं लगता। हम कम खर्च में स्वास्थ्य लाभ ले सकते हैं।

जड़ी-बूटियों की गुणवत्ता

यदि मैदानी इलाकों में हिमालयी इलाकों वाली जड़ी-बूटियां उगायी जाती हैं,तो उनकी गुणवत्ता पर प्रभाव पड़ता है? देखिये यह परमात्मा की व्यवस्था है। वही पौधे यदि मैदानी क्षेत्र में उगाये जाएं तो उनमें औषधीय तत्व नहीं मिलते। मैदान के इलाकों में पौधों के अलग गुण होते हैं, पानी वाले इलाकों के अलग और शुष्क इलाकों के अलग। कुछ अलग इलाकों के पौधे मैदानी इलाकों में उगाये जाएंगे तो थोड़ा कम गुण होंगे। कुछ उगेंगे नहीं। कुछ औषधीय पौधे उग सकते हैं लेकिन उनमें वह प्रभाव नहीं होगा। वनस्पतियों को यदि मूल प्राकृतिक वास से हटाते हैं तो वे अपने गुण छोड़ देती हैं।

प्रदूषित हवा में प्राणायाम

आज मैदानी इलाकों में प्रदूषण की मार है तो क्या प्राणायाम की श्वसन प्रक्रिया में इसका प्रतिकूल असर होता है? आप सही कह रहे हैं। दरअसल, सुबह का समय स्वच्छ हवा वाला होता है। मानवीय गतिविधियां व वाहन नहीं चलने से हवा अपेक्षाकृत स्वच्छ होती है। पार्क में प्राणायाम करें। पेड़ के नीचे करेंगे तो रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ेगी। साथ ही प्रदूषण का प्रभाव कम होगा।

स्वदेशी मुहिम व संस्कारों की शिक्षा

आजादी के 75 वें वर्ष में हमने भारतीय शिक्षाबोर्ड की संकल्पना की थी। जिसे केंद्र सरकार का भी सकारात्मक प्रतिसाद मिला। दरअसल, लॉर्ड मैकाले ने भारतीय शिक्षा-संस्कृति को ध्वस्त कर दिया था। अब हम भारतीय शिक्षा बोर्ड के तहत कई कालेज व गुरुकुल चला रहे हैं। बचपन से बच्चों को भारतीय संस्कृति से जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।

हरियाणा के खानपुर गुरुकुल की यादें

खानपुर गुरुकुल की स्मृतियां ताजा हैं। एक धूल-धक्कड़ वाले इलाके में पढ़ाई की। इन पड़ावों तक पहुंचेंगे ये कल्पना नहीं की थी। उस समय बचपन की मस्ती याद है। गुरुजनों की कृपा थी जो जीवन में सब कुछ कर पा रहे हैं।

दुर्लभ पांडुलिपियों का संवर्धन

विश्व की पचास हजार से ज्यादा दुर्लभ वनस्पतियों के विश्वकोश की तैयारी में लगे हैं जिसके नौ खंड होंगे। कई मौलिक पुस्तकें भी लिखी हैं। महोदधि एक संपादित ग्रंथ है। प्राचीनकाल की दुर्लभ पांडुलिपियों का शोधन किया है। हमने पेटेंट में ज्यादा विश्वास नहीं किया, हम चाहते हैं कि ऋषियों की परंपरा का खूब विस्तार हो। ऋषियों की प्रमाणिक विरासत को शास्त्रबद्ध ढंग से श्लोकों में बद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है।

सनातन ऋषि परंपरा का विस्तार

आज योग व प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में वर्तमान सरकार और कई संस्थाएं महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं। पतंजलि योगपीठ ने भी आयुर्वेदिक चिकित्सा व अनुसंधान के क्षेत्र में अपनी पहचान बनायी है। आयुर्वेद पर पेटेन्ट्स हासिल करने के साथ ही बड़ी संख्या में शोधपत्र अंतर्राष्ट्रीय जरनलों में प्रकाशित हुए हैं। आयुर्वेद चिकित्सा पर औषध दर्शन जैसी बहुचर्चित कई पुस्तकों को लिखने के अलावा सदियों से अप्रकाशित आयुर्वेद की दुर्लभ पाण्डुलिपियों के अनेक ग्रंथों का संपादन आचार्य बालकृष्ण ने किया है। अब वे अपने महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट विश्व भैषज्य संहिता पर काम कर रहे हैं। दिव्य फार्मेसी व पतंजलि आयुर्वेद जैसी आधुनिक औषध निर्माणशाला, जैविक कृषि, बायो रिसर्च सेंटर, दिव्य योग मंदिर, पतंजलि योगपीठ, पतंजलि विश्वविद्यालय, पतंजलि आयुर्वेद कालेज, आचार्यकुलम् शिक्षण संस्थानम व वैदिक गुरुकुलम्ा आदि संस्थानों के शिल्पी व प्रेरक आचार्य बालकृष्ण योगऋषि स्वामी रामदेव के अनन्य सहयोगी हैं। नेपाली मूल के भारत में जन्मे आचार्य बालकृष्ण की गिनती दुनिया के अरबपति लोगों में होती है, जिन्होंने देश में स्वदेशी अभियान को गति दी। उन्होंने नेपाल में सियांजा से ही अपनी पांचवीं कक्षा तक की शिक्षा प्राप्त की है , इनके माता-पिता भी अपने पुश्तैनी घर में नेपाल में ही रहते हैं। भारत लौटकर हरियाणा के खानपुर व कालवा गुरुकुल से आगे की शिक्षा ग्रहण की। अपनी शिक्षा पूर्ण कर पौधों के औषधीय मूल्यों के विषय में अध्ययन करने के लिए पूरे भारत की यात्रा की। बाबा रामदेव और आचार्य जी ने 1990 में ‘दिव्य फार्मेसी’ तथा 2006 में पतंजलि योगपीठ की स्थापना की थी। इन्होंने पतंजलि आयुर्वेद में 97 फीसदी में फॉर्ब्स लिस्ट में मालिकाना हक़ के साथ अपनी जगह बनाई है। उनकी लिखित और संपादित पुस्तकों में आयुर्वेद के सिद्धांत और रहस्य ,भोजन और कोतूहलम, आयुर्वेद जड़ी-बूटियों का रहस्य ,आयुर्वेद महोदधि, विचार क्रांति पुस्तकें शामिल हैं। आयुर्वेद के प्रचार के अलावा उन्होंने कई छोटे-बड़े घरेलू नुस्खे और योग से स्वास्थ्य रक्षा का अभियान चलाया। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ़ अब्दुल कलाम द्वारा राष्ट्रपति भवन में उन्हें 23 अक्तूबर 2004 को सम्मानित किया गया। वे योग संदेश पत्रिका के संपादक भी हैं।

वक्त के साथ बदली गौधन की तासीर

आप लोग गाय के दूध व गोमूत्र आदि को उपचार के साधन के रूप में देखते हैं। आज जब गाय का खानपान व चारा रासायनिक खेती से प्रदूषित हो चला है तो क्या गाय का दूध आदि उतना ही उपयोगी है? आपने महत्वपूर्ण सवाल उठाया है। हमने शोध किया है गायों की खाने की स्थिति को लेकर। हम पहली बार खुलासा कर रहे हैं कि प्रायोगिक तौर पर गायों को जिंक, आयरन दिया। यह देखने के लिये इसका क्या प्रभाव होता है। इसका प्रभाव दूध, गोमूत्र और गोबर में नजर आया। हमने खेत में उसका गोबर डालकर अन्न उगाया तो अनाज में जिंक की मात्रा अधिक थी। जिंक वाले दूध का असर बछड़े में दिखा। निस्संदेह, आहार का प्रभाव गाय के दूध में नजर आता है। चारे में यूरिया का उपयोग होने से दूध में यूरिया का प्रभाव होता है। फिर देसी खाद के रूप में उपयोग होने से यूरिया का असर देखा जाता है। दरअसल, रासायनिक पदार्थों से जीवन व पृथ्वी का सारा चक्र दूषित हो रहा है। एक चक्र टूटने पर सब कुछ अस्त-व्यस्त हो जाता है।

दुर्गम हिमालय में जड़ी-बूटियों की तलाश

पिछले दिनों हिमालय के दुर्गम इलाकों में आपको देखा गया? भगवान की कृपा से निमित्त बनने का मौका मिला। एक अनुभवी टीम के नेतृत्व का सौभाग्य मिला। बचपन से ही जंगल व पहाड़ मेरे पसंदीदा विषय रहे हैं। आदिवासी व गांवों के लोग पसंद रहे हैं। दरअसल, मेरा बचपन गांव में बीता है। भीड़-भड़क्का में रहना मेरी मजबूरी है। मेले-ठेले से बचता रहा हूं। सारी पहाड़ियां पसंद हैं, कहीं भी भेज दो अच्छा लगता है। अचानक योजना बनी। यूं तो कई बार हिमालयी इलाकों में गया हूं। लेकिन ऐसे निर्जन इलाकों में नहीं गया, जहां तक पहुंचने में ट्रैकिंग करते हुए एक दिन लगे। कोई गुफा आदि हो तो ऐसी जगह गया हूं लेकिन तंबू कंधे पर लादकर पहली बार गया। निर्जन इलाके में हम कभी लुढ़क रहे थे, वहां जमीन में बड़ी दरारें थी। यह स्थान गौमुख से आगे जाकर रक्तवर्ण ग्लेशियर पार करने के बाद आता है। कई अनाम चोटयां थीं। मैंने इसके लिये कोई ट्रेनिंग नहीं ली। लेकिन मैंने तेजी से रास्ता पार किया। हमारे साथ अनुभवी टीम थी, कर्नल अमित बिष्ट समेत तीन एवरेस्ट विजेता पर्वतरोही मेरे साथ थे जिन्हें ट्रैकिंग का लंबा अनुभव था। मैं आयु में बड़ा जरूर था, लेकिन पर्वतारोहण का अनुभव कम था। कभी आश्चर्य हुआ कि मुझ में ऐसी हिम्मत कहां से आई। यह भी कि क्या दुबारा ऐसी हिम्मत आएगी? दरअसल, मैं देखना चाहता था कि सघन हिमालय के बर्फीले इलाकों में मानवता के कल्याण के लिये कुछ दुर्लभ मिल पायेगा। वैसे तो आमतौर पर वहां बर्फ के मैदान हैं, या कहें कि बर्फ के रेगिस्तान हैं। भगवान ने कृपा की तो वहां गये, जहां विरले लोग गये। उन क्षेत्रों का नामकरण किया।

फोर्ब्स सूची में आने के मायने

कैसा लगता है जब दुनिया के अमीर लोगों की फोर्ब्स की सूची में आप अपना नाम देखते हैं? मुझे तो हंसी आती है। मुझे लगता नहीं है कि मैं इतना अमीर हूं। मुझमें अमीरों के लक्षण नहीं हैं। मैं पहाड़ में घूमता हूं। पैदल चलता हूं, पत्थरों में तो कभी कांटों में। मेरी तेज चाल के सामने मेरे गार्ड हांफने लगते हैं। तब महसूस करता हूं कि खरबपति से ज्यादा सुखी समाज के अंतिम पायदान में खड़े व्यक्ति का जीवन होता है, जिन्हें हम छोटा मानते हैं। कोई काम छोटा नहीं होता। मैं तो सामान्य काम करने वाले मसलन चिनाई करने वाले, झाड़-झंकाड़ साफ करने वाले, मजदूरी करने वाले या साफ-सफाई करने वालों का हाथ बंटाने में भी संकोच नहीं करता। प्रशासन चलाना अलग बात है। कभी वैद्य के रूप में, कभी प्रशासक के रूप में, कभी विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में अलग-अलग दायित्व निभाने पड़ते हैं। फैक्टरी व फूड-पार्क का काम भी देखना होता है। मगर जीवन को महज काम व साधन के दायरे में नहीं बांधा है। जीवन का लक्ष्य तो सेवा है, साधन होने न होने से न कुछ न बिगड़ेगा।

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