डॉ़ संजय वर्मा
जिस ज़माने में फिल्म- रोटी, कपड़ा और मकान का यह मशहूर गीत लिखा गया था- तेरी दो टकिया की नौकरी, मेरा लाखों का सावन जाए- उस जमाने में सॉफ्ट स्किल वाली और कथित सफेद कॉलर वाली टेक या हाईटेक नौकरियों का ऐसा जोर नहीं था, जैसा आज है। आज तो जिस युवा को देखिए, वह कंप्यूटर, आईटी, मैनेजमेंट समेत उन पेशों में जाने की तैयारी में लगा दिखाई देता है जो निर्माण क्षेत्र की बजाय सेवा क्षेत्र के दायरे में आते हैं। विश्वविद्यालयों और पेशेवर प्रशिक्षण देने वाली संस्थाओं में भी ऐसे पाठ्यक्रमों में युवाओं की भारी भीड़ है, जहां आईटी या कंप्यूटर इंजीनियर या बीपीओ जैसे सर्विस सेक्टर में काम करने के योग्य लोग तैयार किए जाते हैं। आईआईटी, आईआईएम समेत तमाम बड़े विश्वविद्यालय (खास तौर से निजी) अक्सर ये दावे करते पाए जाते हैं कि उनके यहां से दीक्षा पाकर निकले युवाओं में से कुछ को फेसबुक, अमेजन या ट्विटर आदि में अथवा किसी स्टार्टअप में सालाना करोड़ों का वेतन मिला है। करोड़ों का वेतन देने वाली इन्हीं कंपनियों की तरफ से इधर युवाओं के सपनों को झटके-दर-झटके लगे हैं। हालिया प्रकरण ट्विटर से जुड़ा है। यहां मालिक के तौर पर जब कारोबारी ईलॉन मस्क ने जिम्मा संभाला तो वैरिफाइड अकाउंट यानी ब्लू टिक के लिए ग्राहक शुल्क का ऐलान करने के साथ भारतीय सीईओ पराग अग्रवाल और कई शीर्ष अधिकारियों को बाहर का रास्ता दिखा दिया। खास मेहरबानी भारतीय कर्मचारियों पर की और भारत में अपनी कंपनी से 90 फीसदी कर्मचारियों को टाटा-बाय-बाय बोल दिया। इनमें से ज्यादातर कर्मचारी आईटी व कंप्यूटर इंजीनियरिंग जैसे पेशों से जुड़े हैं। अगर बात सिर्फ ट्विटर तक सीमित रहती तो शायद गनीमत होती। लेकिन इसकी आंच हाल-फिलहाल में फेसबुक के स्वामित्व वाली मेटा कंपनी और उससे भी पहले हमारे देश की उन ज्यादातर स्टार्टअप कंपनियों तक पहुंच चुकी है, जहां मूलतः कंप्यूटर या आईटी (सूचना-प्रौद्योगिकी) से जुड़ा कामकाज होता है।
यूं मामला इस साल की शुरुआत से तब संगीन हो गया था, जब कोविड-19 के दौर से उबरते उद्योग अपना कामकाज और कमाई पटरी पर आने की उम्मीद कर रहे थे। ऐसे दावे किए जा रहे थे कि बीते दो-ढाई साल में कोरोना वायरस के प्रकोप से थमी दुनिया में कारोबार को जो नुकसान हुआ था, उसकी भरपाई जल्द ही हो जाएगी क्योंकि घरों में बंद रहे लोग घूमने-फिरने निकल रहे हैं, बाजार जा रहे हैं और खरीदारी कर रहे हैं। बेशक खुलत हुई तो दुनिया में कई व्यवसायों, मिसाल के तौर पर पर्यटन उद्योग को काफी राहत मिली क्योंकि लोग पर्यटन के जरिए दो साल तक कहीं बाहर नहीं निकल पाने की विवशता से निजात पाने की कोशिश करने लगे। लेकिन ऐसा सभी जगह नहीं हुआ। खासकर स्टार्टअप कंपनियों के सामने अपना कोराबार बचाने का संकट ही खड़ा हो गया। इनमें से कई स्टार्टअप पढ़ाई-लिखाई, कोचिंग और आईटी से संबंधित थे, तो कइयों का ताल्लुक घर बैठे खाना मंगाने की सहूलियत देने वाली ऑनलाइन फूड डिलीवरी से था। इनमें ऐसी स्टार्टअप कंपनियों की संख्या ज्यादा कही जाएगी, जिन्हें कोरोना वायरस के प्रकोप वाले दौर में ज्यादा काम मिल रहा था, क्योंकि लोग इनके माध्यम से घर बैठे कई काम संपन्न कर रहे थे, लेकिन जैसे ही कोविड-19 के असर में कमी हुई, इन कंपनियों का कामकाज मंद होने लगा।
स्टार्टअप पर गहराता संकट
यह सही है कि टेक नौकरियों को लगते झटकों को दुनिया ने तब नोटिस किया, जब ट्विटर ने हाल में अपने आधे कर्मचारियों को निकाल दिया था। ऐसा करने वाली कंपनियों में ट्विटर अकेली नहीं है। माइक्रोसॉफ्ट ने पिछले महीने यानी अक्तूबर 2022 में अपने यहां एक हजार कर्मचारियों की छंटनी की है। इसके साथ ही राइडशेयर कंपनी लिफ्ट (एलवाईएफटी) ने भी 13 फीसदी कर्मचारियों को निकालने की घोषणा की है। पेमेंट प्रोसेसिंग फर्म – स्ट्राइप ने 14 फीसदी कर्मचारियों की छंटनी करने की बात कही है। दिग्गज ई-कॉमर्स कंपनी अमेजन और गूगल की पैरेंट कंपनी अल्फाबेट भी नई भर्तियों पर रोक लगा चुकी है। यहां एक विरोधाभासी विडंबना यह है कि नवाचारी उद्यम (इनोवेटिव इंडस्ट्री या न्यू एज़ बिजनेस) की श्रेणी ने आने वाली जिन स्टार्टअप कंपनियों को पिछले अरसे में रोजगार सृजन के मामले में नई उम्मीद के साथ देखा जाता रहा है, सबसे ज्यादा मुश्किलें उन्हीं के साथ पैदा हुई हैं। हालांकि छंटनी करने वाली और नई भर्तियों पर रोक लगाने वाली कंपनियों में इन्फोसिस आदि के नाम भी शामिल हैं। इन कंपनियों ने मूनलाइटिंग का शोर मचा कर अपने कर्मचारियों के बाहर कहीं काम करने का हवाला देकर उन्हें नौकरी से हटाया है, पर जो समस्याएं स्टार्टअप कंपनियों में दिख रही हैं उनका फिलहाल कोई समाधान नहीं नजर आ रहा है। स्टार्टअप कंपनियों के मामले में कारोबारी वास्तविकताएं कितनी कठोर हैं, इसका पता इससे चलता है कि मौजूदा वर्ष के शुरुआती छह महीनों में ही देसी स्टार्टअप कंपनियों से 12 हजार लोगों की छंटनी कर दी थी। यह छंटनी भी यूनिकॉर्न कहलाने वाली उन स्टार्टअप कंपनियों में हुई है, जिनका कारोबार आने वाले वक्त में बढ़ने की उम्मीद है। जैसे कि ऑनलाइन कोचिंग देने वाले स्टार्टअप- बायज़ूज, वेदांतु, अनएकैडमी, लिडो लर्निंग आदि। कहने को तो मौजूदा वर्ष की पहली छमाही में स्टार्टअप कंपनियों में नौकरी गंवाने वालों की वैश्विक संख्या 22 हजार है, लेकिन चिंताजनक यह है कि इनमें से 60 फीसदी से ज्यादा युवा भारत के हैं। माना जा रहा है कि साल के अंत तक ये स्टार्टअप करीब 50 से 60 हजार और युवाओं को अपने यहां से जाने को कह सकते हैं, क्योंकि कोविड काल में कारोबार में आई मंदी और लागत घटाना उनकी प्राथमिकता बन गई है। ऐसा न किया गया तो कई स्टार्टअप कंपनियों का वजूद ही मिट सकता है। एक बड़ी वजह यह मानी जा रही है कि स्टार्टअप कंपनियों में पैसा लगाने वाले निवेशकों ने अपने निवेश के बदले कोई लाभ होते नहीं देख पूंजी वापसी का दबाव बनाना शुरू कर दिया है। साथ ही नए निवेशकों ने स्टार्टअप कंपनियों से हाथ खींच लिए हैं, जिससे फंडिंग का अकाल होने लगा है। हालांकि कोरोना काल में निवेशकों ने धीरज बनाए रखा, लेकिन आर्थिक गतिविधियां दोबारा शुरू होने के बाद भी स्टार्टअप कंपनियों की कमाई में कोई उल्लेखनीय इजाफा नहीं हो रहा है। इसका कारण यह है कि कोविड का दौर थमते ही दुनिया में कई नई कंपनियां और नए स्टार्टअप सामने आ गए हैं। उनकी मौजूदगी से कुछ अरसा पहले स्थापित हुई स्टार्टअप कंपनियों के लिए नई प्रतिस्पर्धा पैदा हो गई, जिनसे उनके लाभ का मार्जिन बुरी तरह दबाव में आ गया है। नई कंपनियां और स्टार्टअप कैसी मुश्किल खड़ी कर रहे हैं, यह फेसबुक (अब मेटा) के मामले से साफ होता है। फेसबुक को बीते समय में टिकटॉक, इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे सोशल मीडिया के अपेक्षाकृत नए मंचों से कड़ी टक्कर मिल रही है। हालत यह है कि करीब 18 साल पुरानी इस कंपनी के करोड़ों ग्राहक (यूजर्स) टिकटॉक, इंस्टा और यूट्यूब की तरफ चले गए हैं। इन वजहों से फेसबुक की कमाई में बेतहाशा गिरावट आई है। इसका असर यह हुआ है कि इस साल फेसबुक के शेयर काफी नीचे (73 फीसदी नीचे) चले गए हैं। ये बदलाव देख कंपनी ने पहले ही नई भर्तियों पर रोक लगा दी थी और अब वह बड़े पैमाने पर छंटनी करने जा रही है। हाल ही में मेटा ने कहा कि उसके यहां से 11 हजार से अधिक कर्मचारियों की छंटनी की जाएगी। कर्मचारियों को भेजे गए ईमेल में कहा गया है कि कंपनी लागत को कम करने के लिए यह छंटनी करेगी। कंपनी के अनुसार, बढ़ी हुई लागत मुनाफे को खा रही है और इससे राजस्व में गिरावट हो रही है। मेटा के सीईओ मार्क जकरबर्ग के अनुसार, इस छंटनी के कारण उनकी वैश्विक टीम का आकार 13 फीसदी घट जाएगा। इससे फेसबुक (मेटा) के 11 हजार कर्मचारियों की नौकरी चली जाएगी।
कमाई पर चौतरफा मार
असल में ज्यादातर टेक कंपनियों के सामने सबसे ज्यादा मुश्किल नई चुनौतियों और दबावों से निपटने के लिए नई पूंजी जुटाना है, जिसके लिए वे कोई ठोस आश्वासन अपने निवेशकों को नहीं दे पा रही हैं। यह मार चौतरफा है। इसी के मद्देनजर ईलॉन मस्क इस आशंका से इनकार नहीं कर रहे हैं कि उनके स्वामित्व में आई सबसे नई कंपनी- ट्विटर अगर दिवालिया हो जाती है, तो इसमें कोई आश्चर्य होगा। सिर्फ आईटी या सोशल मीडिया कंपनियां ही नहीं, बल्कि ऑनलाइन कोचिंग ही नहीं, ओला जैसी ऐप-आधारित टैक्सी सेवाएं और क्रिप्टो करेंसी का कारोबार करने वाले स्टार्टअप जैसे कि जेमिनी, वाल्ड, बिटपांडा आदि भी पूंजी के सूखे से जूझ रहे हैं। ये स्थितियां तब हैं, जबकि भारत सरकार ने इस साल के आरंभ में जोर-शोर से दावा किया था कि देश में 60 हजार से ज्यादा स्टार्टअप शुरू हो चुके हैं। साथ ही यह भी कहा गया था कि भारत में हर दो-तीन हफ्ते में नए यूनिकॉर्न सामने आ रहे हैं। यूनिकॉर्न का आशय उन स्टार्टअप कंपनियों से है जिनका बाजार भाव एक अरब डॉलर (करीब 80 अरब रुपये) से ज्यादा हो। यह दावा खुद प्रधानमंत्री ने किया था। लेकिन इस दावे के फौरन बाद अप्रैल माह ऐसा रहा, जब एक साल में पहला अवसर आया जिस महीने में एक भी यूनिकॉर्न कंपनी सामने नहीं आई। यही नहीं, इस साल मार्च-अप्रैल में भारतीय स्टार्टअप कंपनियां वैश्विक बाजार से 5.8 अरब डॉलर यानी लगभग साढ़े चार-पांच खरब रुपये का निवेश जुटा सकीं, जो पिछले साल की इसी अवधि से करीब 15 फीसदी कम रहा।
घटती कमाई, सूखता निवेश
एक तरफ स्थापित टेक कंपनियों की कमाई घट रही है, तो दूसरी ओर स्टार्टअप कंपनियों को लेकर निवेशकों का रवैया है कि अब वे इन पर कोई बड़ा दांव नहीं खेलना चाहते। हालांकि यह सही है कि शुरुआती होड़ में दुनिया के बड़े निवेशकों ने विज्ञापन के बल पर मशहूर होने वाली स्टार्टअप कंपनियों में अरबों रुपये झोंक दिए। जैसे पिछले साल (2021 में) भारतीय स्टार्टअप कंपनी मीशो में सॉफ्टबैंक और फिडेलिटी जैसे बड़े निवेशकों ने करोड़ों का निवेश कर दिया था। इससे कंपनी की बाजार कीमत दोगुनी से ज्यादा बढ़कर पांच अरब डॉलर यानी साढ़े तीन खरब रुपये पर पहुंच गई थी। दावा है कि इसी झोंक में भारतीय स्टार्टअप कंपनियों ने पिछले साल 35 अरब डॉलर जैसी बड़ी रकम निवेश के रूप में हासिल कर ली थी। लेकिन सफलता की यह लहर जिस तेजी से आई थी, उसी तेजी से लौट गई। विशेषज्ञों ने दावा किया कि विदेशी निवेश के बल पर रातोंरात यूनिकॉर्न बन गई ज्यादातर कंपनियों के पास कोई ठोस कारोबारी मॉडल नहीं है। उनके पास मंदी से निपटने के अनुभव की कमी है, आगे बढ़ने के लिए पैसा झोंकने के सिवा कोई तरीका नहीं है। प्रबंधन के स्तर पर भी सिवा बाहरी चमक-दमक दिखाने के कोई और नीति नहीं है। लिहाजा ऐसी कंपनियां और स्टार्टअप जल्द ही अप्रासंगिक होने लगे हैं। यही नहीं, विदेशी और बड़े देसी निवेशक किसी स्टार्टअप में पैसा लगाने से पूर्व यह देखने लगे हैं कि कोई कंपनी कम से कम डेढ़-दो साल प्रतिस्पर्धा में टिक सकती है या नहीं। इसी के आधार पर अब वे निवेश कर रहे हैं। समस्या यह है कि संचालन खर्च के बोझ से दबी कंपनियां जिस तरह से अपने कर्मचारियों की छुट्टी करने को वजूद बचाने के पहले उपाय के तौर पर आजमाती हैं, उससे समस्या और गहराती है। उनके इस कदम से बेरोजगारी और बढ़ती है, कंपनियों के माथे बदनामी का दाग अलग से लग जाता है।
झटकों की शुरुआत
वर्ष 2016 से देश में आरंभ स्टार्टअप योजना को एक बड़ा झटका महामारी कोविड-19 से लग चुका है। महामारी ने स्टार्टअप कंपनियों को कितना नुकसान पहुंचाया, इसकी खबरें वर्ष 2020 में मिल चुकी थीं, जब दावा किया गया था कि कोरोना के कारण देश के 70 फीसदी स्टार्टअप गर्त में जा पहुंचे और उनमें से 12 फीसदी तो एकदम शुरू में ही बंद हो गए थे। साल 2020 में आर्थिक संगठन इंडस्ट्री चैंबर फिक्की और इंडियन एंजेल नेटवर्क (आईएएन) ने अपने राष्ट्रव्यापी सर्वे ‘भारतीय स्टार्टअप पर कोविड-19 का असर’ में मिले आंकड़ों का आकलन किया तो पता चला था कि देश के करीब 70 फीसदी स्टार्टअप की हालत खराब है, जबकि 33 फीसदी स्टार्टअप कंपनियों ने नए निवेश के अपने फैसलों पर रोक लगा दी थी। इसके अलावा दस फीसदी स्टार्टअप कंपनियों ने कहा था कि जिन निवेशकों से उन्हें स्टार्टअप चलाने को पूंजी मिल रही थी, वे सौदे (डील) खत्म कर दिये गये हैं। सर्वेक्षण से यह भी साफ हुआ था कि सिर्फ 22 फीसदी स्टार्टअप ऐसे थे, जिनके पास अगले छह महीने का खर्च चलाने के लिए नकदी बची थी। हालांकि वजूद बनाए रखने के मकसद से 43 प्रतिशत स्टार्टअप ने वेतन कटौती शुरू कर दी थी। इसी तरह 30 फीसदी स्टार्टअप कंपनियों ने कहा था कि अगर लॉकडाउन जैसी स्थितियां बनी रहीं तो कर्मचारियों की छंटनी के अलावा उनके पास कोई और विकल्प नहीं बचेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि खास तौर से टेक कंपनियों के लिए ये चुनौतियां ऐसी रहीं, जिनसे पार पाना उनके वश में नहीं था। ट्विटर से लेकर फेसबुक आदि में छंटनी के साथ-साथ वेतन कटौती और कामकाज के घंटों में बढ़ोतरी (ट्विटर में हफ्ते में 80 घंटे काम करने का ऐलान) संबंधी उपायों को देखते हुए लग रहा है कि टेक कंपनियों का सुनहरा दौर अब खत्म होने को है।
निर्माण से आएगा ठहराव
आज की वैश्विक दुनिया में इसे कोई गंभीर समस्या नहीं माना जाता कि कुछ उत्पाद दुनिया के दूसरे कोने में बनते हैं और हमारा देश अपनी जरूरतों के लिए उन पर निर्भर हो। सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक सामान ही नहीं, कई किस्मों के अनाज, दालें, फल आदि भी विदेशों से हमारे यहां आते हैं। बेशक, इसकी एक कीमत हमें चुकानी पड़ती है। किंतु यह कीमत यदि देश में कोई उत्पाद बनाने के मुकाबले कम हो और उस सामान के आयात में कोई विलंब या बाधा नहीं हो, तो निश्चय ही कोई समस्या नहीं है। कुछ चीजें, फसलें भौगोलिक कारणों से देश में भारी मात्रा में या जरूरत के मुताबिक बन या पैदा नहीं हो सकतीं, जैसे कि पेट्रोल-डीजल – तो ऐसी स्थिति में उन्हें आयात करना ही एकमात्र विकल्प है। लेकिन निर्माण संबंधी कुछ चीजों में भारत का पिछड़ना हैरान करता है। जैसे हमारे देश में सेमीकंडक्टर बनाने की इससे पहले कोई गंभीर कोशिश क्यों नहीं हुई, आज यह सबसे संजीदा सवाल बन गया है। हालांकि ऐसा नहीं है कि हमारे देश की कुछ कंपनियां इससे संबंधित निर्माण कार्य बिल्कुल ही न करती हों। इंटेल, माइक्रॉन और टीएसएमसी जैसी कुछ दिग्गज कंपनियों के इंजीनियर हमारे देश में दुनिया की बड़ी सेमीकंडक्टर निर्माता कंपनियों के लिए चिप डिजाइन करते हैं। भारत में सेमीकंडक्टर प्रोडक्ट की पैकेजिंग और टेस्टिंग भी होती है। लेकिन आखिर में माइक्रोचिप्स अमेरिका, ताइवान, चीन और कुछ यूरोपीय देशों में ही बनाए जाते हैं। यह सुनने में अजीब लगता है कि जिस कंप्यूटर-आईटी में भारत खुद को अपनी युवा शक्ति-प्रतिभा के बल पर शीर्ष पर मानता रहा है, वह देश उसी क्षेत्र से जुड़े एक उत्पाद के निर्माण में निहायत फिसड्डी रहा है। इसकी एक वजह हो सकती है कि हमारे देश का अब तक मुख्य फोकस सर्विस सेक्टर (आईटी की सेवाएं आदि) पर रहा। तकनीकी क्षेत्र में भी हमारी कोशिश सॉफ्टवेयर में आगे बढ़ने की रही, न कि मैन्यूफैक्चरिंग (निर्माण) के क्षेत्र में झंडा गाड़ने की। हो सकता है कि इस स्थिति में कोई ज्यादा बदलाव आगामी कई दशकों तक आगे भी नहीं होता, लेकिन कोरोना वायरस के कारण पैदा हुए हालात ने कई तरह के इलेक्ट्रॉनिक सामानों की आपूर्ति में व्यवधान डाल दिया। ऐसे दौर में, जबकि दुनिया में सारा कामकाज घर बैठे कंप्यूटर, लैपटॉप, स्मार्टफोन पर संपन्न होने लगा और इन उत्पादों की मांग बढ़ गई, तो इनमें लगने वाले सेमीकंडक्टर्स की आपूर्ति रुक गई। कोविड काल में बंद पड़ी फैक्ट्रियों को वायरस का प्रसार थमने पर जैसे-तैसे शुरू किया गया तो पता चला कि मांग इतनी अधिक है कि इन चीजों की सप्लाई को सामान्य बनाने में अभी भी एक-डेढ़ साल लग सकते हैं। साथ ही, कच्चे माल और श्रम की लागत बढ़ने से इन उत्पादों की कीमतों में भी भारी इजाफा हो गया। रूस-यूक्रेन युद्ध और चीन की ताइवान को हड़पने की कोशिशों ने इसमें और मुश्किलें पैदा कीं, क्योंकि इस कारण सेमीकंडक्टर बनाने वाले शीर्ष देश ताइवान से इसकी आपूर्ति बाधित हो गई। हालांकि चीन अपनी नाराजगी दिखाने के बावजूद ताइवान पर सीधे हमले की जुर्रत नहीं कर पा रहा है तो इसके पीछे ताइवान की सेमीकंडक्टर शील्ड की ही भूमिका है। बहरहाल, हमारे देश में अब इस मामले में सुधार आने की उम्मीद जगी है। कुछ ही समय पहले एक बड़े व्यापारिक समूह वेदांता ने आईफोन के उपकरण बनाने वाली कंपनी फॉक्सकॉन के साथ गुजरात में संयुक्त उपक्रम के रूप में सेमीकंडक्टर बनाने की विशाल फैक्ट्री लगाने के सहमति पत्र पर मुहर लगाई है। अहमदाबाद के पास बनने वाली इस फैक्ट्री की कुल लागत में सरकार 25 फीसदी की छूट देगी और सस्ती बिजली समेत कई और सुविधाएं दी जाएंगी। इस फैक्ट्री की मुख्य तौर पर माइक्रोचिप के क्षेत्र में दूसरे देशों पर निर्भरता घटाने और इसके निर्यात की संभावना बनाने के अलावा जिस अन्य संदर्भ में एक बड़ी उपलब्धि देखी जा रही है, वह रोजगार भी है। इस तरह के प्रयासों से निश्चय ही टेक नौकरियों की संख्या बढ़ेगी और रोजगार के मामले में ठहराव की स्थिति कायम होगी।
लेखक बेनेट यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर हैं।