चंद्र त्रिखा
वैसे हर वर्ष सितंबर के दूसरे सप्ताह से शुरू हो जाता है हिंदी-पखवाड़ा, मगर इस बार हालात हंगामेदार समारोहों की अनुमति नहीं देते, लेकिन वर्तमान हालात का प्रयोग हिंदी को राजभाषा व राष्ट्रभाषा का पूरी तरह दर्जा देने के रास्ते में आने वाले बाधाओं पर विचारार्थ खर्च किया जा सकता है। ‘माथे की बिंदी’ या ‘भारत मां की शान’ या फिर ‘हिंदी है प्राणवायु’ सरीखे नारे उछालने से बात नहीं बनेगी। चुनौतियों का समाधान ढूंढ़ना आवश्यक है।
एक पत्रकार के नाते जब भी किसी विषय पर लिखना होता है तो उसके लिए ‘पृष्ठभूमि’ की सामग्री अर्थात ‘बैक ग्राउंडर’ के लिए ‘गूगल’ का अंग्रेज़ी रूप खोलने के लिए मजबूर हो जाता हूं। समस्याएं दोहरी हैं। पहली समस्या ‘गूगल’ में अनुवाद की है। आप किसी भी वाक्य या लेख या उक्ति का ‘गूगल’ हिंदी में अनुवाद देखेंगे तो निराश होना पड़ेगा। दूसरी समस्या यह भी है कि जो सामग्री चाहिए वह ‘गूगल’ हिंदी में आज भी उपलब्ध नहीं है। संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी में विस्फोटक क्रांति के बावजूद हिंदी में सही अनुवाद एवं तकनीकी मौलिक सामग्री नहीं मिल पाती। इस तरफ तत्काल ध्यान देना आवश्यक है। यह भी एक तथ्य है कि अब अनेक क्षेत्रीय भाषाएं इस मामले में हिंदी से थोड़ा आगे निकल रही हैं। ऐसी भाषाओं में कन्नड़, तेलुगु, तमिल, मलयाली, बंगाली के साथ-साथ पंजाबी भी शामिल है। पंजाबी विश्वविद्यालय पटियाला में जो काम हो रहा है, वह कुरुक्षेत्र, रोहतक, सिरसा या चंडीगढ़ के विश्वविद्यालयों में नहीं हो पा रहा। यही स्थिति हिमाचल विश्वविद्यालय की भी है। आसपास मैदान काफी हद तक खाली है।
दूसरी चुनौती ‘शब्दकोश’ की है। केंद्रीय वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग, कभी-कभी ‘हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग’ सरीखा दिखाने लगता है। एक से बढ़कर एक भाषा विज्ञानी वहां हैं। कमोबेश सभी विषयों, ‘केमिस्ट्री’, ‘फिजि़क्स’, भूगोल, गणित, बीजगणित ‘कॉमर्स’ आदि के शब्दकोष बने हैं, छपे भी हैं, मगर उनका व्यवहार में उपयोग नहीं हो पा रहा। इस आयोग ने करोड़ों के बजट खर्च किए हैं, मगर दिशा ठीक न होने के कारण ‘व्यावहारिकता’ कतई नहीं आ पाई। अभी भी ले देकर हमारे पास ‘फादर बुल्के’ के शब्द कोष के समकक्ष ज़्यादा सामग्री नहीं है। भाषा विज्ञान आदि के बारे में भोलानाथ तिवारी, ग्रियर्सन साहब या बाबू राम सक्सेना के बाद काम नहीं हो पाया। राजभाषा या राष्ट्रभाषा के बारे में जब तक प्रयासों में गंभीरता नहीं आएगी तब तक घोषित संकल्प पूरे नहीं हो पाएंगे।
मामला शब्द से परिचित होने का है
यूं सामान्यत: देश का हर पढ़ा-लिखा नागरिक अपनी क्षेत्रीय अथवा मातृभाषा जानता है। मगर प्रशासनिक क्षेत्र में उतरते ही अंग्रेज़ी एकमात्र विकल्प होने लगती है। स्थिति इतनी भयावह व बेतुकी भी नहीं है कि हम आगे बढ़ना छोड़ दें। राजस्थान, हरियाणा, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और बिहार में जहां-जहां हिंदी प्रशासनिक गलियारे में प्रविष्ट हुई, वहां ज़्यादा दिक्कतें नहीं आईं। अब राजस्थान में यदि ‘अधिशासी अभियंता’ चल निकला है तो लोग वहां पर ‘सुपरिटेंडिंग इंजीनियर’ का शब्द भूल चले हैं। वस्तुत: यह भी एक सत्य है कि कोई भी शब्द कठिन या आसान नहीं होता। शब्द सदा परिचित या अपरिचित होते हैं।
कुछ वर्ष पूर्व तक सामान्य रूप से कोई नहीं जानता था कि ‘अनुलोम-विलोम’ क्या होता है। मगर योग के प्रति आकर्षण बढ़ा तो ये शब्द ग्रामीण अंचल में ही सहजता के साथ प्रवेश कर गए। चुनौती, नज़रिया बदलने व दिशा तय करने के साथ संकल्पशीलता की भी है। पड़ोसी प्रदेश पंजाब का उदाहरण सामने है। वहां सरदार लक्ष्मण सिंह गिल जब अल्पमत की सरकार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने पंजाबी को राजभाषा के रूप में पूरी तरह लागू करने की अंतिम तिथि भी घोषित कर दी। परिणामस्वरूप पंजाबी वहां अब भी अधिकांशत: सरकारी कामकाज में लागू है और अब इस भाषा में नए-नए साफ्टवेयर भी आ गए हैं। मगर हिंदी के मामले में इस तरह की संकल्पशीलता की अभी भी दरकार है।
दक्षिण में भी विरोध अब तीव्र नहीं
चाहे राजनीति हो, पत्रकारिता, समाज शास्त्र या पठनपाठन, अपनी भाषा अपनों के साथ संवाद स्थापित करने में एकमात्र सहायक सिद्ध होती है। दक्षिण भारत में विरोध अब उतना तीव्र नहीं जितना 10-15 वर्ष पूर्व था। मूलत: राजस्थान से निकलने वाला एक दैनिक अखबार भी इस वक्त चेन्नई से प्रकाशित हो रहा है और उसकी बिक्री अनेक तमिल अखबारों से भी बढ़ चली है। कारण दो हैं। एक कारण यह है कि वहां रहने वाले मारवाड़ी व अन्य प्रदेशों के लोगों को ‘निजभाषा’ में संवाद व सूचना प्राप्ति का एक सुखद माध्यम मिला है। दूसरा कारण यह भी है कि अब तमिल युवा पीढ़ी व कुछेक अभिभावक यह भी सोचने लगे हैं कि यदि अखिल भारतीय सेवाओं में रोज़गार पाना है तो हिंदी की उपेक्षा मुमकिन नहीं है।
… यह तो कुतर्क है
वैसे भी हिंदी में बावजूद प्रौद्योगिक-गत खामियों के, यह शायद एकमात्र ऐसी भाषा है जो जैसे लिखी जाती है, वैसे ही बोली जाती है। इनमें ‘सायलैंस’ यानी खामोश एवं अनुच्चारित शब्दों का कोई झमेला नहीं है। यदि पी यू टी ‘पुट’ है तो हिंदी में ‘बी यू टी’ ‘बट’ नहीं होगा। रही पूर्वाग्रहों की बात, कुछेक क्षेत्रीय भाषाओं को यह भी भय है कि हिंदी, क्षेत्रीय भाषाओं पर हावी हो जाएगी और उनका विकास थम जाएगा। यह कुतर्क है। गढ़ी गई दलील है। उत्तर प्रदेश में हिंदी के राजभाषा बनने पर वहां आंचलिक भाषाओं, भोजपुरी, अवधी, ब्रज आदि पर कोई संकट नहीं आया। भूलना तो यह भी नहीं चाहिए कि धीरे-धीरे हाशिए पर सरकती उर्दू भाषा का साहित्य आज भी यदि लोकप्रिय है, स्वीकार्य है तो हिंदी में उपलब्ध लिप्यांतरों की वजह से। हिंदी ने उर्दू शायरी को उसके मौलिक सौंदर्य के साथ नयी पीढ़ी को सौंपा है। यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। कमोबेश यही स्थिति कुछेक क्षेत्रीय भाषाओं के साथ भी है। ‘अमृता प्रीतम’ को हिंदी में भी उतने ही पाठक मिले, जितने पंजाबी में। अनेक बंगला व मलयाली लेखक हिंदी में भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितने कि अपनी क्षेत्रीय भाषा में। आवश्यकता केवल नज़रिया बदलने, पूर्वाग्रहों से मुक्त होने और कुछ भाषागत-मशक्कत करने की है।