सजगता से भरें उमंग के सफर में रंग : The Dainik Tribune

पैरेंटिंग

सजगता से भरें उमंग के सफर में रंग

सजगता से भरें उमंग के सफर में रंग

डॉ. मोनिका शर्मा

उम्र के एक पड़ाव के बाद बेटियों को घर से दूर जाना ही पड़ता है। आगे की पढ़ाई हो या नौकरी, बच्चों का घर से, बड़ों के साये से बाहर निकलना जरूरी हो ही जाता है। हाल के बरसों में ऐसी बेटियों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है, जो घर से दूर दूसरे शहरों में रहकर कैरियर बनाने या उच्च शिक्षा पाने के लिए जाने लगी हैं। देखने में आ रहा है कि आत्मविश्वास, सुनहरे सपनों और उमंगों से भरी इस उम्र के सफर में बहुत से मोड़ गुमराह करने वाले भी हैं। उज्ज्वल भविष्य के इन्हीं रास्तों पर मिलने वाले बहुत से चेहरे जीवन को दिशाहीन करने वाली पगडंडी पर ले जाते हैं। प्रेम, दोस्ती, लिव-इन जैसे सम्बन्धों के फेर में फंसकर लड़कियों के जान गंवाने तक के मामले सामने आ रहे हैं। ऐसे में अभिभावकों की ज़िम्मेदारी है कि अंकों की दौड़ में अव्वल आने वाली बेटियों को जीवन की बुनियादी समझ का पाठ भी पढ़ाएं। लोगों की मानसिकता को समझने की व्यावहारिक सीख भी उनकी परवरिश का हिस्सा बने। ध्यान रहे कि आगे के सफर में जब आप साथ नहीं होंगे, यही समझ उनके जीवन को दिशा देने वाली साबित होगी।

जिजीविषा संग जागरूकता

हरदम स्क्रीन की दुनिया की गुम रहने वाली आज की पीढ़ी में जिजीविषा तो है पर जागरूकता की कमी हर मोर्चे पर दिखती है। परिवेश की कोई घटना हो या परिवार का कोई मामला, न उन्हें कुछ जानने में रुचि है और न ही अभिभावक बताना जरूरी समझते हैं। जबकि हर घटना एक सबक होती है। समाज में होने वाला हर अच्छा-बुरा वाकया इंसान को जागरूक बनाता है। संभलकर रहने की ताकीद करता है। सशक्त और सुरक्षित रहने के लिए अवेयरनेस एक ज़रूरी शर्त है। जो कई परेशानियों से बचाती है। बुरी मानसिकता वाले लोगों को समय रहते समझने में मददगार बनती है। अपनी जिजीविषा के दम पर कुछ कर जाने की ठान लेने वाली बेटियां अगर जागरूक होंगी तो दूसरों की हर बात को आंख बंद कर स्वीकार नहीं करेंगी। इतना ही नहीं, जागरूकता आपकी लाड़लियों को मानसिक और सामाजिक रूप से भी मजबूत बनाती है। साथ और स्नेह के नाम पर रीतते भरोसे के इस दौर में जरूरी है कि अभिभावक अपनी बेटियों को जागरूक नागरिक भी बनाएं। सपनों को पूरा करने के लिए घर छोड़ने के बाद उनका चेतना-सम्पन्न व्यक्तित्व ही उनका सच्चा साथी होगा। जो उनके मन को डिगने से बचाएगा। किसी फरेब के जाल में फंसने नहीं देगा।

संवेदना के साथ व्यावहारिकता

आज की बेटियां आत्मविश्वासी हैं। खूब मेहनती हैं। अपने सपनों को पूरा करने के प्रति जी-जान से समर्पित हैं। मानवीय संवेदनाओं से भरा मन भी रखती हैं। देखा जाए तो विचार और व्यवहार के ऐसे सभी पक्ष बहुत सुंदर हैं। पर जीवन इतना सहज नहीं है कि व्यावहारिक धरातल पर इसे समझे बिना खुद को समस्याओं से बचाया जा सके। घर से दूर जाने पर बहुत से लोग इस संवेदनशीलता को भांपकर उनके मासूम मन को भटकाने का प्रयास करते हैं। दुनियावी समझ के मामले में उन्हें कमजोर पाकर शोषण करने की ताक में रहते हैं। अफसोस कि कई बार सफल भी हो जाते हैं। शारीरिक, मानसिक शोषण का शिकार बनाते हैं। चालाकियों से ऐसा चक्रव्यूह रचते हैं कि बहुत सी लड़कियां समझ ही नहीं पातीं। जब तक समझती हैं बहुत देर हो जाती है। इस मोर्चे पर भी अभिभावकों की भूमिका अहम है। शुरुआत से ही सजगता को अपनी बेटियों की संवेदनाओं का साथी बनाएं। प्रेम हो या दोस्ती, जताए जा रहे भाव-चाव को लेकर चौकस रहने ही हिदायत देते रहें। अपनों से दूर रहते हुए बेटियों का संवेदनशील होने के साथ ही सतर्क रहना भी आवश्यक है।

भावनात्मक मजबूती का बल

अभिभावक अपनी बेटियों को भावनात्मक रूप से मजबूत बनाएं। यह मजबूती हर हाल में उनका साथ देने के भरोसे से मिलती है। घर से दूर जाते समय यह विश्वास उनके साथ जरूर बांधें कि आप सदा उनके साथ हैं। हर परिस्थिति में उनका पक्ष समझने वाला खुला मन रखते हैं। ताकि बेटिया किसी स्वार्थ साधने और शोषण करने वाले रिश्ते के जाल में फंस भी जाएं तो उससे बाहर आ सकें। समय रहते ऐसे संबंध के जाल से निकलकर अपना जीवन बचा सकें। अपने साथ हो रहे गलत बर्ताव को लेकर न कह सकें। उनके प्रति नकारात्मक सोच रखने वाले इंसान का विरोध जता सकें। आज एक बदलते दौर में जब बेटियों को भी घर बाहर जाना और जीवन के अच्छे-बुरे हालातों से अकेले जूझना होता है, मन की यह मजबूती बेहद आवश्यक है। इसीलिए पेरेंट्स बचपन से ही बेटियों को भावनात्मक मोर्चे पर मजबूत बनाएं। लड़कियों के मन में मौजूद सहज हिचक से बाहर निकालकर हर भय से जूझना सिखाएं। याद रहे कि भावनात्मक मजबूती का बल न केवल शोषण के जाल में फंसने से बचाता है बल्कि तकलीफदेह रिश्तों और हालातों से बाहर भी निकलने में मदद करता है।

सार्थक संवाद का सेतु

आमतौर पर घर से दूर जाने पर बच्चों और अभिभावकों में न चाहते हुए भी दूरियां आ जाती हैं। आपसी बातचीत कम हो जाती है। औपचारिक संवाद में न तो बच्चे अपनी मनःस्थिति बता पाते हैं और न ही अभिभावक ज्यादा सवाल कर पाते हैं। ऐसे में संवाद का सेतु बनाए रखने के लिए अतिरिक्त प्रयास जरूरी हैं। खासकर घर के बड़ों को ऐसी कोशिशें जारी रखनी ही चाहिए। हाल के दिनों में सामने आये वाकये बताते हैं कि लिव-इन जैसे रिश्तों में जान गंवाने वाली बेटियों से उनके अभिभावकों का कोई संवाद ही नहीं था। बेटियों के साथ हुए अधिकतर आपराधिक मामलों में ऐसे सम्बन्धों को लेकर या तो परिवार को जानकारी ही नहीं होती या परिवार जानबूझकर उनसे दूरी बना लेते हैं। जबकि इन हालातों में युवतियों के परिजनों को सजग रहना चाहिए। उनका साथ देना चाहिए। विशेषकर घर से दूर रहकर नौकरी या पढ़ाई करने वाली बेटियों से संवाद बनाए रखना जरूरी है। ताकि शोषण की स्थितियों का समय रहते खुलासा हो सके।

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