यश गोयल
युवा लेखक और कॉलेज-शिक्षक डॉ. सीताराम मीना ने राजस्थान की मिट्टी के वीरों के शौर्य और बलिदान के उद्देश्य को प्रतिपादित करते हुए राज्य के प्रसिद्ध विरह काव्य ‘ढोला-मारु’ पर अपनी नई शोधपूर्ण पुस्तक प्रस्तुत की है। मरु प्रदेश की लोकगाथाओं में बहुत-सी प्रेमकथाएं प्रचलित हैं पर इन सब में ढोला-मारु प्रेमगाथा विशेष लोकप्रिय रही है। आठवीं सदी के आसपास की इस घटना की लोकप्रियता आज भी है।
नायक ढोला आज भी एक प्रेमी नायक के रूप में स्मरण किया जाता है और पति-पत्नी की सुंदर जोड़ी को ढोला-मारु की संज्ञा दी जाती है। ढोला शब्द पति शब्द का पर्यायवाची हो चला है। ग्रामीण अंचल में नारियां आज भी विभिन्न पारिवारिक और पारम्परिक अवसरों पर ढोला-मारु के गीत गाती हैं जैसे केसरिया बालम पधारो म्हारे देश; ढोला ढोल मंजीरा बाजे रे; उड़-उड़ रे म्हारा काला रे कागला; मोर्-या आछ्यो बोल्यो रे; म्हानें चूंदड़ी मंगादे रे; बना रे बागा में झूला घाल्या…।
एक सौ बत्तीस पृष्ठीय इस पुस्तक का सार ये है कि बचपन में ही ढोला और मारवणी का विवाह हो जाता है। युवा होने पर मारवणी अपने बचपन के पति ढोला की चर्चा सुनती है तो उसके विरह में व्याकुल हो जाती है। पति का पता लगाने के लिये कई संदेशवाहक भेजती है लेकिन कोई लौटकर नहीं आता। सभी संदेशवाहकों को मारवणी की सौत मरवा देती है और ढोला तक संदेश पहुंचने नहीं देती। अंत में मारवणी लोकगीत के गायक ढाढ़ी को संदेश देकर भेजती है। वह ढोला तक संदेश पहुंचाने में सफल हो जाती है। ढाढ़ी के प्रयत्न से ढोला और मारवणी का पुनर्मिलन हो जाता है।
इस किताब मे डॉ. मीना ने राजस्थानी जनजीवन, प्रकृति, समाज, वातावरण, लोकाचार और लोक विश्वासों का जैसा सरस, सजीव और स्वाभाविक चित्र उभारा है, वैसा अन्यत्र दुर्लभ होता है। लेखक ने इसमें ढोला मारु को 12 अध्याय में समाहित किया है जो पठनीय हैं। इसमें दिये गये काव्यांश ठेठ मारवाड़ी में हैं, जिसे समझाने के लिये लेखक ने सरल भाषा हिंदी में व्याख्या भी की है।
पुस्तक : ढोला-मारु लेखक : डॉ. सीताराम मीना प्रकाशक : साहित्यागार, जयपुर पृष्ठ : 132 मूल्य : रु. 225.