कुदरत के आंगन में संवारें बचपन : The Dainik Tribune

पेरेंटिंग

कुदरत के आंगन में संवारें बचपन

कुदरत के आंगन में संवारें बचपन

कृष्णलता यादव

प्रकृति के रंग, मन में भरें तरंग। अभिभावक होने के नाते मंथन कीजिए कि घर-परिवार के बाल-गोपालों की नेचर वॉक का ग्राफ क्या कहता है। ग्राफ में निरी शून्यता, उपेक्षा के मारे, बच्चे बेचारे। ऐसा क्यों भला, दरअसल, कारणों की कमी नहीं। सबसे बड़ा कारण यह कि प्रकृति के करीब जाने की ज़रूरत ही नहीं समझी गई। लेकिन बेहतर यह है कि बच्चों को केवल कुदरत की महिमा के गीत ही नहीं सुनाये जायें, बल्कि बच्चों को उसकी गोद तक पहुंचाया जाये। एक बार अपना बचपन याद कीजिए, स्थिति स्पष्ट हो जाएगी कि प्रकृति से जुड़कर आप कितने आनन्दित थे। याद कीजिए, कभी आपने मन ही मन कहा होगा, 'अहा! लहलहाते पेड़, पेड़ों पर झूला झूलते पंछी, रेत में नहाती चिड़ियां, कलकल झरने, गतिशीलता सूचक नदियां, सबका जीवनदाता बादल, उड़ारी भरते परिंदे, चांद की चांदनी, सूरज की लालिमा, बूंदों की रिमझिम, पहाड़ की ऊंचाई, समंदर की गहराई सबके सब प्रसाद-सा बांटते हैं। कोई मोल न तोल। मन के चक्षु तृप्त हुए।'

थोड़ी पूंजी में बड़ा निवेश

वास्तव में, आपके बच्चे भी इस आनन्द के हकदार हैं। व्यस्ततम पलों से कुछ पल निकालकर उन्हें ले जाइये आस-पास के बाग-बगीचों-पार्कों में,जोहड़-तालाबों के किनारे। यदि नदी, पहाड़, समुद्र या रेगिस्तानी क्षेत्रों की सैर करवा दी तो कहना ही क्या। उन्हें जी भरकर देखने दीजिये कुदरत के जीवंत नजारे। एक-एक जीव के मुग्ध करने वाले क्रियाकलाप,पशु-पक्षियों का अपने शावकों को दुलारना, उनको आगामी जीवन के लिए प्रशिक्षण देना, गलती करने पर दुत्कारा जाना आदि। यह सब लाइव चलचित्र से कम नहीं। समझिए कि थोड़ी पूंजी में बड़ा निवेश हुआ। ध्यान रहे, बच्चों के 'क्यों व कैसे' का माकूल उत्तर देना भी अभिभावक के दायित्व-दायरे में शामिल है। बड़े होने पर ये बच्चे कुछ इस तरह यादों की गठरी खोलेंगे,'जब हम छोटे थे, हमने अमुक-अमुक स्थान देखे, बहुत एन्जॉय किया। बड़े मनभावन थे वे पल। मां कुदरत की गोद में हमने बहुत कुछ पाया और महसूस किया कि प्रकृति मां बिन बोले बहुत बोलती है, हमारे क्रियाकलापों को तोलती है, उसके कण-कण में संगीत है, उसको सबसे प्रीत है। उसके लिए सब जन समान। उसकी संतान होने के नाते हमें ऐसा कुछ नहीं करना चाहिए जिससे उसको क्षति पहुंचे।

प्रकृति को समझने दें

प्रकृति की संगति से बच्चों में उसके प्रति संवेदनशीलता का संस्कार पनपता है। उसके उपादानों के लिए आत्मीयता का भाव उमड़ता है। उनको समझने दें कि प्रकृति है तो हम हैं, अन्यथा सब सून। जड़ हो चाहे चेतन, वह सबके लिए ऐसा उपहार है,जो न हाट-बाजार में मिलता है, न कुबेर के खजाने में। उसका काम देना है लेना नहीं।

प्रकृति संरक्षण के प्रति जागरूकता

बच्चों में प्रकृति के निकट रहने की भूख जगाना अनिवार्य है। एक बार यह हो गया तो उनके पैर प्रकृति का सान्निध्य पाने को स्वयंमेव चल पड़ेंगे। निश्चय ही, उनकी सोच में प्रकृति संरक्षण के उपाय जन्म लेंगे। इस सबके लिए बाल्यकाल से ही प्रकृति की शरण में जाने का अभ्यास कराना होगा। सबके कल्याण के लिए अभिभावकों का यह दायित्व निभाना बनता है। यदि एक बार ऐसा हो जाता है तो 'पेड़ लगाओ, प्रकृति बचाओ' की तोता रटंत की ज़रूरत नहीं रहती। वह तो पहले ही बच्चे के स्वभाव का अंग बन चुकी होती है। उसकी कल्पना शीलता को पंख मिल जाते हैं फलस्वरूप वह कभी सागर की लहरों संग छपाक-छई कर रहा होता है कभी पाखियों के कूंजन की नकल निकालकर प्रकृति को स्वयं में जीवित रख रहा होता है।

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