अमिताभ स.
आने वाले दौर में फ़ोरेंसिक साइंस अपने विभिन्न टूल्स के जरिये गुनहगारों पर शिकंजा कसने की बढ़ती भूमिका के साथ सामने आने वाली है। हाल ही में, गृह मंत्रालय ने छह साल से अधिक के गंभीर अपराधों के लिए फोरेंसिक जांच को अनिवार्य बनाने पर ज़ोर दिया है। सुरागों की फ़ोरेंसिक जांच में खून, लार व शरीर का अन्य कोई तरल पदार्थ, बाल, दांत, अंगुलियों के निशान, जूतों व टायरों के निशान, विस्फोटक, जहर वगैरह तक सम्मिलित हो सकते हैं। दिल्ली के सनसनीख़ेज़ श्रद्धा हत्याकांड में कातिल पर शिकंजा कसने के लिए फोरेंसिक जांच की ज़रूरत पर बल दिया जा रहा है। जानना दिलचस्प है कि कैसे-कैसे फ़ोरेंसिक साइंस और उसके तमाम टूल्स गुनाह की परतें खोलने में अपनी मजबूत पकड़ बनाते आ रहे हैं…
फ़िंगर प्रिंट से शुरुआत
फिंगर प्रिंटों का विश्लेषण करना पहला पुख्ता तरीका था इंसान की व्यक्तिगत पहचान का। फिंगर प्रिंट, या कहें अंगुलियों के निशान बचपन से बुढ़ापे तक समान रहते हैं। जब-जब व्यक्ति कुछ छूता है, तो तेल, मैल या पसीने के अंश वहीं छूट जाते हैं। इसी से अंगुलियों के निशान उभरते हैं। इन्हें एकत्रित करना ही मौका-ए-वारदात से अहम होता है। हालांकि शातिर गुनहगार अपने फिंगर प्रिंट उभरने से पहले ही मिटाने का भरसक प्रयास करते हैं। वैज्ञानिक शोधों से जाना है कि फिंगर प्रिंट समय के साथ भी नहीं बदलते। साल 1892 में छपी किताब ‘फिंगर प्रिंटिंग’ में सर फ्रांसिस ग्लेटन ने सुझाया था कि हर फिंगर प्रिंट के तीन मुख्य चरित्र होते हैं। पहला, लूप यानी चक्कर या घुमाव, दूसरा व्हर्ल यानी पत्ता- फूल नुमा और तीसरा, आर्च यानी मेहराब। इन तीनों चरित्रों को जोड़- तोड़ कर करीब 60,000 विभिन्न श्रेणियां बनाने में मदद मिली। आगे चल कर एडवर्ड हेनरी ने दो और चरित्र शामिल किए- टेंटेड आर्च और रेडियल। इन्हीं पांच किस्मों के आधार पर फिंगर प्रिंटिंग एनालिसिस का विकास किया गया।
साल 1910 में अमेरिका में फिंगर प्रिंटिंग से गुनहगार साबित होने वाला दुनिया का पहला व्यक्ति था थॉम्स जेनिंग्स। वह घर में घुसा और घर के मालिक को गोली से मार डाला। जल्दबाजी में गीले पेंट पर अंगुलियों के साफ निशान छोड़ दिए थे। कोर्ट ने पहली दफा फिंगर प्रिंटिंग को ठोस साइंटिफिक आधार करार दिया। शुरू-शुरू में, अंगुलियों के निशानों का मिलान करने के लिए इंक पैड से संदिग्ध की अंगुली के निशान उठाए जाते रहे। सहूलियत के लिए जेल व्यवस्था ने गुनहगारों के फिंगर प्रिंटों की फाइल रखने का तरीका निकाला। साल 1972 के बाद से फिंगर प्रिंट्स को कम्प्यूटर के सहारे मैच किया जाने लगा है।
पिस्तौल और गोली का राज़
जांचकर्ताओं के लिए हमेशा ही खोज का विषय होता है कि मारने वाले ने गोली पिस्तौल से चलाई या बंदूक से, और गोली कितनी दूरी से चलाई गई। वास्तव में, पिस्तौल से गोली के अटूट रिश्ते पर से पर्दा हटा 1916 में, और ऐसा मुमकिन किया शिकागो, अमेरिका स्थित नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी ने। अब अमेरिका की शिकागो स्थित नॉर्थ वेस्टर्न यूनिवर्सिटी को फोरेंसिंक साइंस की बुनियाद के तौर पर ख्याति प्राप्त है। इसका श्रेय जाता है यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक डॉ. केल्विन एच. गॉडार्ड को। उन्होंने ही सबसे पहले बन्दूकों, पिस्तौलों और गोलियों पर खासा शोध किया था। लेकिन इस शोध में जोरदार भूमिका रही न्यूयॉर्क स्टेट प्रोसिक्यूटर दफ्तर के चार्ल्स ई वैट की। साल 1916 में ही ऑरलीन कंट्री, न्यूयार्क में बंदूक से कत्ल के मामले में उसका उल्लेखनीय योगदान रहा व दुनिया को पहली बार फॉरेंसिक बैलिस्टिक्स साइंस की खबर लगी। चार्ल्स ई वैट ने सूक्ष्म फोटोग्राफी के सहारे साबित किया कि कत्ल करने वाली बुलेट कसूरवार की पिस्तौल से हरगिज नहीं निकली थी। इस प्रकार वह फ़ोरेंसिक शस्त्र ज्ञान का सूत्रधार बना।
खून से सच तक
कहते ही हैं कि खून झूठ नहीं बोलता। असल में, 1930 में डॉ. कार्ल लैंडस्टीनर ने पहली बार दुनिया को बताया कि खून को मुख्यतः चार ग्रुपों में बांट सकते हैं- ओ, ए, बी और ए बी। विज्ञान जगत को डॉ. कार्ल लैंडस्टीनर के इसी अहम योगदान के लिए नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया। काफी साल बाद खून के ग्रुपों के आधार पर गुनहगारों को पकड़ने का काम भी शुरू किया गया। स्कॉटलैंड के फोरेंसिक एक्सपर्ट एलिस्टेयर आर. ब्राउनली ने ब्रिटिश फोरेंसिक सोसायटी को बताया, ‘खून के धब्बे इंसानी शरीर के बाकी हिस्सों की तरह गुनहगारों को धर दबोचने में खासा रोल निभाते हैं।’
कैसे बहा होगा रुधिर!
खून के अलग-अलग धब्बे बताते है कि शरीर से खून कैसे बहा होगा? नस कटने से खून का फव्वारा फूटता है, ड्रिप से खून धीरे-धीरे बहता है, किसी घाव से रिस सकता है या फिर शरीर में घुसे नुकीले हथियार को निकाल कर दुबारा घुसाने पर खून झर-झर बह उठता है। 1930 के दशक में पहले पहल स्कॉटलैंड के पैथोलॉजिस्ट जॉन ग्लैस्टर ने ब्लड पैटर्न को मोटे तौर पर छह ग्रंथियों में बांटा था- जैसे क्षितिज के समांतर जमीन या सीधी सतह पर खून की बूंदें। हवा में उड़ते खून के फव्वारे और तल को किसी कोण में छूना। शरीर के इर्द-गिर्द बहा खून का तालाब जिससे जान सकते हैं कि क्या शरीर को धकेला या खींचा गया है। खास नाड़ी या नस से खून का फुहार की तरह झर-झर कर बहना। हिलते-डुलते व्यक्ति के खून बहने से लिपटा होना। खून के छींटों या धब्बों से इनवेस्टिगेटर खूनी बॉडी की पोजिशन और घायल को मौका-ए-वारदात से हटाने का तरीका बखूबी जान सकता है। बेसिक ट्रिगोनोमेट्री (त्रिकोणमिति) के जरिये इनवेस्टिगेटर खून के स्रोत की 3-डी रीक्रिएशन कर सकता है।
लाश के कृमि और राज़
फोरेंसिक एंटामोलॉजिस्ट लाश पर चिपटे कीड़ों के बर्ताव और स्थितियों से क़त्ल का राज़ खोलने के माहिर होते हैं। कीड़ों के ज़रिए मौत के समय और स्थान का बखूबी अंदाज़ा लगाया जाता है। एंटोमोलॉजी बखूबी इशारा करती है कि मौत किस मौसम और जगह पर हुई होगी? एंटामोलॉजी (कृमि शास्त्र) को इजाद और विकसित किया है अमेरिका के जाने-माने फिजीकल एंथ्रोपोलॉजिस्ट डॉ. विलियम के. बास ने। उधर यूनिवर्सिटी ऑफ हवाए, अमेरिका के प्रोफ़ेसर ऑफ एंटोमोलॉजी एम. ली गौर की किताब ‘ए फ़्लाई फॉर द प्रोसीक्यूशन’ में एंटोमोलॉजिस्टों के लिए मौत की तहक़ीक़ात में मददगार जानकारियों का भंडार है।
सूक्ष्म तंतु बने सबूत
ज्यादातर इनवेस्टिगेटर मैल, मिट्टी या धूल की बजाय फाइबर या बाल की निशानी को ढूंढ़ने पर ज्यादा गौर करते हैं । अमेरिका की जानी-मानी ट्रेस एविडेंस स्पेशलिस्ट (सबूत की निशानी विशेषज्ञ) फेए स्प्रिंगर ने बीसेक साल पहले एक मर्डर मिस्ट्री की तफ्तीश के दौरान, व्यक्ति की कार का रंग और उसी रंग के गलीचे का तंतु लाश पर से ढूंढ निकाले। अहम बात थी कि तंतु और गलीचे का नीला रंग करने के लिए एक ही डाई का इस्तेमाल हुआ था। सो, यह बन गया पुख्ता सबूत। ऐसे नतीजों तक पहुंचने के लिए हाई पॉवर माइक्रोस्कोपिक परख और तकनीकी एक्सपर्ट दोनों की एक साथ जरूरत पड़ती है। तमाम तंतुओं की परख ‘स्पेक्ट्रोमीटर’ नामक खास उपकरण से की जाती है।
हड्डी खोलने लगी रहस्य फोरेंसिक एंथ्रोपोलोजी की स्टडी हड्डियों के विज्ञान की देन है। कुछ फोरेंसिक एंथ्रोपोलोजिस्ट लाश के गलने और कीड़ों की बारीकियों के विशेषज्ञ हैं। फोरेंसिक एंथ्रोपोलोजिस्ट दंत विशेषज्ञ, पैथोलोजिस्ट और जासूसों के साथ एकजुट हो कर मौत में साजिश के हाथ का खुलासा करते हैं। वे ऐसे इंसान की मौत के समय तक का सही अंदाजा लगा लेते हैं।
फिर आया डीएनए साल 1985 से डीएनए फिंगर प्रिंटिंग का खासा बोलबाला शुरू हुआ। प्रोफेशनल्स इसे जेनेटिक आइडेंटिफिकेशन, डीएनए प्रोफाइलिंग या डीएनए एनालिसिस कहते हैं। डीएनए आइडेंटिफिकेशन के दो तरीके हैं- रिस्ट्रिक्टिव फ्रेग्मेंट लेंथ पॉलीमॉरफिज्म और पॉलीमोरेस चैन रिएक्शन। डीएनए महारथी कीथ इनमैन लॉस एंजिल्स और ऑरेंज के शेरिफ डिपार्टमेंट में रहे हैं। कीथ इनमैन का कहना है कि डीएनए को फिंगर प्रिंटिंग कहना गलत होगा। क्योंकि रीयल फिंगर प्रिंटिंग हमशक्ल जुड़वां की अंगुलियों के निशानों में फर्क बताती है, जबकि डीएनए हमशक्ल जुड़वां का फिंगर प्रिंट भी अलग-अलग होता है। विशेषज्ञ बताते हैं कि डीएनए प्रोफाइलिंग के जरिये मानव डीएनए के सूक्ष्म विभागों की व्यापक पड़ताल की जाती है, जो हर व्यक्ति में अलग-अलग होते हैं। बीती सदी की शुरुआत में ही, फोइबस लीवाइन ने आविष्कार किया कि हर इंसानी सेल्स के न्यूक्लीयस में दो किस्म के एसिड होते हैं- आर. एन. ए. यानी रिबूक्लिक एसिड और डीएनए यानी डीआक्सीरिबोन्यूक्लिक एसिड। हर सेल के न्यूक्लीयस में डीएनए से बने 23 जोड़ी क्रोमोसोम्स होते हैं, जो व्यक्ति के चरित्र और शारीरिक संरचना का ब्लूप्रिंट बन कर उभरता है। रिपोर्ट जेनेटिक कोड में जारी की जाती है।
लेखक स्तंभकार हैं।