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मल्टीप्लेक्स से आम दर्शकों का मोहभंग

बाजार में बेजार
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मल्टीप्लेक्स थियेटर टिकट का रेट व शो की टाइमिंग तय करने में चूक रहे हैं। महंगे टिकट के चलते दर्शक सिनेमा हॉल जाने से पहले दस बार सोचता है। थियेटर वालों का छोटी फिल्मों के प्रति रवैया उदासीन है। वहीं बड़े बजट व कलाकारों वाली फिल्म के लिए रवैया अलग हैं। मल्टीप्लेक्स अगर बेहतर स्ट्रेटजी अपनाएं तो अच्छी फिल्में थियेटर का मुंह देख पाएंगी।

असीम चक्रवर्ती

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बॉलीवुड में दर्शक खुलकर मल्टीप्लेक्स थियेटर की गलत नीतियों की आलोचना करने लगे हैं। यही नहीं सुभाष घई,राकेश रोशन जैसे कई दिग्गज फिल्मकारों ने भी कहा है कि ये थियेटर आज तक अपनी कोई सुनियोजित स्ट्रेटजी नहीं बना पाए हैं। यही नहीं, उनके इस रवैये के चलते सिर्फ पुरानी क्लासिक फिल्में ही नहीं बल्कि मध्यम बजट की अच्छी फिल्में भी सही शो न मिल पाने की वजह से रिलीज के लिए तरस रही हैं।

‘डिप्लोमेट’ का हश्र

अभी हाल में पीवीआर मल्टीप्लेक्स की नीति की एक और शिकार जॉन अब्राहम की फिल्म ‘डिप्लोमेट’ बनी। जैसा कि ज्यादातर अच्छी फिल्मों के साथ होता है, इस छोटी-सी फिल्म को भी महंगे टिकट और गलत शो टाइमिंग की वजह से काफी दर्शक देख नहीं सके। सिर्फ एकाध गैर छुट्टीवाले दिन टिकट 99 रुपए रखा गया। मगर उस दिन शो टाइमिंग ऐसी थी कि जब आम दर्शक व्यस्त रहता है। बाकी दिन इसे शाम के एक-दो शो में रिलीज किया,मगर टिकट 300 के ऊपर था। दर्शक ऐसी फिल्मों को कम रेट में ही देखना चाहतेे हैं। वैसे 30 करोड़ में बनी इस फिल्म ने भी अपना ठीक बिजनेस किया। छोटी फिल्मों के लिए यह शुभ संकेत है।

छोटी फिल्मों का अलग ट्रेक

जब भी छोटी फिल्मों को बड़ा आधार मिलता है, वे अपनी सफलता का रास्ता बना लेती हैं। दूसरी ओर मल्टीप्लेक्स वाले ऐसी फिल्मों के प्रति जरा भी व्यावसायिक नजरिये का इस्तेमाल नहीं करते। ऐसी फिल्मों के टिकट रेट में भी मनचाहा रवैया अपनाते हैं। अब जैसे कि हिट फिल्म ‘छावा’ का टिकट रेट सोमवार से गुरुवार तक कुछ और रखा गया था। मगर वीकएंड शुक्र,शनि और रवि को टिकट रेट बहुत ज्यादा। जाहिर है इतना ज्यादा पैसा खर्च कर कोई भी आम आदमी छुट्टी के दिन थियेटर में जाकर फिल्म का आनंद नहीं ले सकता। यह अलग बात है कि टिकट रेट के बावजूद बारहवीं फेल,मुंजिया,डिप्लोमेट जैसी फिल्में सफलता पा जाती हैं। जैसे कि पिछले दिनों रिलीज फिल्म ‘मुंजिया’ मात्र 14 करोड़ में बनी व सौ करोड़ से ज्यादा कमाई करके ट्रेड पंडितों को चौंका दिया। जाहिर है मुंजिया जैसी फिल्मों की सफलता ने छोटी फिल्मों को नयी प्राणवायु दी है। माउथ पब्लिसिटी के चलते दर्शक छोटी फिल्मों को पूरा सपोर्ट करते हैं।

बड़ी फिल्में बड़े सितारे

थियेटर वाले बड़ी फिल्मों पर कुछ ज्यादा ही मुग्ध रहते हैं। जैसे ही बड़े सितारे की कोई फिल्म आती है,उनकी बांछें खिल जाती हैं। ‘पुष्पा-2’ रिलीज हुई तो कई थियेटर ने इसका टिकट रेट 300 रुपये से बहुत ज्यादा रखा। शुक्र मनाइए फिल्म दर्शनीय थी इसलिए थियेटर की इस अराजकता को बर्दाश्त कर लिया। दूसरी ओर ‘सिंघम रिटर्न’ जैसी फिल्म को पहले शो में ही मात मिलती है,तो थियेटर वाले झट टिकट रेट घटा देते हैं। वे बड़े सितारे की फिल्म चलाने के लिए प्रोडक्शन के सुझाव पर कम दर पर एक टिकट पर एक फ्री का ऑफर भी देते हैं।

सुभाष घई का दर्द

दिग्गज फिल्मकार सुभाष घई मानते हैं, दर्शक और थियेटर के बीच में मल्टीप्लेक्स वाले बड़ी रुकावट हैं। उन्होंने इन थियेटर को कमाई का बड़ा जरिया बना रखा है। एक बातचीत में वह कहते दिखाई पड़े कि थियेटर को दर्शकों के बहुत करीब होना चाहिए। पर उसे ज्यादा कमाई के चक्कर में दर्शक के बजट का ध्यान नहीं रहता। वह बताते हैं,‘ अरे भाई,न के बराबर दर्शक आपके थियेटर की हाई-फाई तकनीक व महंगे खानपान का क्रेजी होता है। उसे तो बस सहज वातावरण वाले थियेटर में सपरिवार फिल्म देखने का शौक है। पर इसका मतलब यह नहीं आप उसकी जेब पर धावा बोल दें।’

माहौल से शिकायत

वैसे घई साहब के मुताबिक दर्शकों की इस बेरुखी की वजह नए दौर के फिल्मकार भी हैं। उन्होंने फिल्म का सारा गणित बिगाड़ दिया है। घई साहब आज भी फिल्म बनाना चाहते हैं। मगर इस लचर व्यवस्था में अपनी फिल्म फ्लोर पर ले जाने से डर रहे हैं। एक और निर्माता-निर्देशक राकेश रोशन भी वर्तमान फिल्म मेकिंग के स्टाइल से संतुष्ट नहीं हैं।

सिंगल थियेटर बंद न हों

छोटे शहरों-कस्बों के सिंगल थियेटर बंद होने से दर्शक भी काफी क्षुब्ध हैं। जबकि कुछ गिने-चुने चालू सिंगल थियेटर काफी दिनों से पुरानी फिल्में दिखा रहे हैं। पर इन फिल्मों के प्रिंट और रेंज दोनों में गड़बड़ी है। दूसरी ओर मल्टीप्लेक्स वाले इन फिल्मों के खेल में बड़े मुनाफे की बात सोच रहे हैं। आमिर या बिग बी की फिल्म रिलीज के नाम पर दर्शक भला क्यों फिल्म देखने जाएगा जबकि ये ओटीटी प्लेटफार्म पर उपलब्ध हैं।

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