अभिषेक कुमार सिंह
मुसीबतों से निपटने के दो ही रास्ते हैं। पहला है, उनसे हार मान लीजिए और उनके सामने घुटने टेक दीजिए। दूसरा है, उन्हें ही हराने का कोई रास्ता निकालिए और हंसते-मुस्कराते आगे बढ़ जाइए। दुनिया में कोरोना वायरस से पैदा हुई महामारी कोविड-19 से निपटने के लिए बीते बरस जब देश-दुनिया में लॉकडाउन जैसे उपायों की आजमाइश शुरू हुई, तो अंदाजा लगाया है कि इसका कारगर टीका (वैक्सीन) और दवा जब आएगी, तब आएगी, लेकिन लॉकडाउन, सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क और सेनेटाइजर जैसे उपायों को अपनाकर इंसानियत इस मुसीबत से छुटकारा पा ही लेगी। लेकिन कोरोना वायरस का संक्रमण ज्यादा शातिर निकला। हालत यह है कि एक साल बाद इसकी दूसरी बड़ी लहर का संकट कम से कम भारत में तो बन ही गया है। चीन को छोड़कर दुनिया के दूसरे देशों के हालात भी हमसे अलग नहीं हैं। वहां कोरोना की तीसरी लहर चल रही है, जिसमें या तो सख्त लॉकडाउन अभी हटाया ही नहीं गया है या फिर उस पर दोबारा अमल की कोशिशों की बात होने लगी है। साल 2020 में अक्तूबर माह ऐसा था, जब देश में एक ही दिन में कोरोना संक्रमण के मामले 50 हजार के औसत पर थे। इसके बाद मार्च, 2021 के पहले पखवाड़े तक इस औसत में लगातार कमी ही आई। लेकिन पांच महीनों के अंतराल के बाद एक बार फिर नए कोरोना मरीजों की प्रतिदिन की संख्या बढ़कर 50 से 62 हजार के औसत को पार कर गई है। इससे लगने लगा कि जाते-जाते कोरोना एक बार फिर लौट आया है। भारतीय स्टेट बैंक द्वारा कराए गए अध्ययन रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में कोरोना संक्रमण एक बार फिर पूरी ताकत से फैलने लगा है। रिपोर्ट के मुताबिक इस साल फरवरी के मध्य से देश कोरोना की दूसरी लहर की चपेट में आ चुका है। इस बार इस लहर के 100 दिन तक बने रहने और नए संक्रमण के कुल मामलों की तादाद के 25 लाख तक पहुंचने की आशंका जताई गई है। पिछले साल की स्थितियों से इस वर्ष के हालात में जो बड़ा फर्क है, वह यह है कि इस साल की शुरुआत से देश में कोराना टीकाकरण की शुरुआत हो चुकी है। पहले-पहले 60 साल की उम्र पार कर चुके और 45 साल के गंभीर रोगों से जूझ रहे लोगों को टीके देने की पहल हुई, लेकिन अब इसे 45 पार के हर व्यक्ति के लिए सुलभ कराने की छूट दी जा चुकी है। सवाल है कि टीकाकरण शुरू हो जाने के बाद भी ऐसा क्या हुआ है कि संभलती लग रही गाड़ी के दोबारा पटरी से उतर जाने का खतरा पैदा हो गया है।
‘डबल म्यूटेंट’ से खतरा डबल?
कोरोना वायरस के नए रूप को उसका ‘डबल म्यूटेंट’ वेरिएंट बताते हुए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने मार्च के तीसरे हफ्ते में जानकारी दी कि 18 राज्यों में कोरोना के कई ‘वेरिएंट ऑफ़ कंसर्न्स’ (वीओसीज) पाए गए हैं। इसका मतलब यह निकलता है कि देश के कई हिस्सों में कोरोना वायरस के अलग-अलग प्रकार पाए गए हैं जो नया संकट खड़ा कर सकते हैं। इनमें ब्रिटेन, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील के साथ-साथ भारत में पाया गया नया ‘डबल म्यूटेंट’ वेरिएंट भी शामिल है। इन नयी जानकारियों का खुलासा देश के विभिन्न हिस्सों में कोरोना मरीजों से लिए गए नमूनों (सैंपल्स) की जीनोमिक सीक्वेंसिंग के बलबूते हुआ है। जीनोम सीक्वेंसिंग का यह काम स्वास्थ्य मंत्रालय के अधीन काम कर रहे दस राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के समूहों ने किया जिसे इंडियन सार्स-सीओवी-2 कंसोर्टियम ऑन जेनोमिक्स कहा जाता है। इसका गठन 25 दिसंबर, 2020 को कोविड-19 के फैलने के मद्देनजर जेनेटिक कोड्स को समझने और फिर समस्या के ठोस निदान के सिलसिले में किया गया था। जीनोम सीक्वेंसिंग यानी जेनेटिक कोड का खाका तैयार करने की टेस्टिंग प्रक्रिया में इसने विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से कोरोना संक्रमितों के 10,787 नमूने जमा किए, जिनमें से 771 में ‘वेरिएंट ऑफ़ कंसर्न्स’ पाए गए। हालांकि जिस ‘डबल म्यूटेंट’ वेरिएंट की चर्चा इन दिनों देश में सबसे ज्यादा है, उसे लेकर स्वास्थ्य मंत्रालय की टिप्पणी है कि कोरोना के मामलों में हालिया इजाफे में इसकी ज्यादा बड़ी भूमिका नहीं है। तो सवाल उठता है कि आखिर क्या वजह है जो काबू में आता वायरस एक बार फिर पकड़ से बाहर होने लगा है।
जिंदगी के साथ भी…
ज्यादातर स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मत है कि अब हमें कोरोना के साथ जिंदगी जीना सीख लेना चाहिए, ठीक उसी तरह जैसे कि हम एड्स के साथ जी रहे हैं। हालांकि, कोरोना के साथ जिंदगी की कल्पना जरा मुश्किल है, क्योंकि यह एक बेहद संक्रामक बीमारी है, खतरनाक है और अभी दुनिया को मालूम नहीं है कि इसके टीके कितने महीने तक लोगों को बीमारी की दोबारा जकड़ में आने से बचा सकते हैं। लेकिन फिर रास्ता क्या है। इसके कई गंभीर और रोचक जवाब हैं। गंभीर जवाब तो यह है कि वैक्सीन के साथ-साथ मास्क, दो गज दूरी और तमाम सावधानियों को अपनी दिनचर्या में शामिल करना होगा, ताकि इसके खिलाफ बहुसंख्यक लोगों के शरीर में मुकम्मल प्रतिरोधक क्षमता (इम्यूनिटी) बनने तक संक्रमण को दूर रखा जा सके। लेकिन अगर हम रोचक जवाबों की बात करें तो इसके कई उदाहरण हाल में मिले हैं। जैसे, एक प्रसंग हिंदी फिल्म- ‘थ्री इडियट्स’ में अभिनेता रहे आर. माधवन से जुड़ा है। क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर और यूसुफ पठान के कोरोना संक्रमित होने से कुछ ही दिन पहले आमिर खान के कोरोना की जकड़ में आ जाने के बाद जब आर. माधवन की जांच रिपोर्ट भी पॉजिटिव आई, तो उन्होंने सोशल मीडिया पर चुटकी लेते हुए लिखा-‘फरहान को तो रैंचो को फॉलो करना ही था और वायरस तो हमारे पीछे हमेशा से था। लेकिन इस बार उसने हमें पकड़ लिया। लेकिन ऑल इज़ वेल और कोविड जल्द ही जाएगा कुएं में।’ असल में, बाकी दुनिया के साथ-साथ भारत में भी यह राय मान्यता हासिल कर रही है कि अब हमें कोरोना के साथ रहने की आदत डाल लेनी होगी। इसकी वजह यह है कि भले ही कोरोना का खतरा टला नहीं है, लेकिन एक साल से ज्यादा अरसे तक हर तरफ की गतिविधि ठप हो जाने के दुष्परिणाम को देखते हुए कोशिश की जा रही है कि जनजीवन किसी तरह पटरी पर लौटे। सच्चाई तो यह है कि अब अगर सरकारें कर्फ्यू, धारा 144 या लॉकडाउन जैसे कड़े उपाय नहीं करती हैं, तो लोग धीरे-धीरे सामान्य गतिविधियों की ओर लौटना चाहते हैं। अर्थव्यवस्था की लगभग बंद पड़ गई गाड़ी के दोबारा चल पड़ने में इससे मदद मिल रही है। हालांकि इसका दूसरा पहलू यह है कि दो गज दूरी रखने, मास्क पहनने और हाथ धोने जैसी मामूली सावधानियां भी अब लोगों को भारी लगने लगी हैं, जिससे महामारी की तेज वापसी का खतरा पैदा हो गया है। इसीलिए महाराष्ट्र जैसे उन राज्यों में जहां संक्रमण व्यापक रूप ले चुका है, प्रधानमंत्री द्वारा सुझाई गई टीटीटी यानी ‘टेस्ट, ट्रेस, ट्रीट’ की आजमाई हुई पॉलिसी पर ज्यादा जोर दिया जाए। महामारी की दूसरी लहर को जल्द से जल्द काबू करने के सिवा कोई और रास्ता हमारे पास नहीं है। ध्यान रहे कि ये ज्यादातर उपाय कोरोना से सीधी जंग के बजाय उसके साथ जिंदगी चलाने के हैं। यानी कह सकते हैं कि अगर हम दुनिया में ‘जीरो कोविड’ की स्थितियों की कल्पना कर रहे हैं, तो अभी तो यह उम्मीद बेमानी ही लग रही है। इसलिए बेहतर यही होगा कि दुनिया को लंबे अरसे तक कोविड की मौजूदगी संग रहने के मुताबिक ढालने के प्रयास किए जाएं। ऐसे उपायों के हामी लोगों में से एक ब्रिटेन की एडिनबर्ग यूनिवर्सिटी की सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ प्रोफेसर देवी श्रीधर कहती हैं कि अंतर्राष्ट्रीय उड़ानों पर पाबंदी कायम रखते हुए भी प्रयास हो कि बार, रेस्टोरेंट, म्यूजिक कंसर्ट आदि को इजाजत दी जाए ताकि देशों और उनकी अर्थव्यवस्था को कुछ हद तक सामान्य स्थितियों की ओर लौटने की सुविधा मिल सके। हालांकि, जरूरत पड़ने पर नाइट कर्फ्यू और छोटे पैमाने के लॉकडाउन की जरूरत से वह भी इनकार नहीं करतीं। इसके बाद जब देश और दुनिया में टीकाकरण का काम पूरा हो जाए, तो पूरी तरह सामान्य दिनों की तरफ लौटा जा सकेगा। इस प्रक्रिया को अंग्रेजी में ‘डी-रिस्किंग’ कहा जाता है। इसका अभिप्राय यह निकलता है कि कोविड-19 के इलाज, टीकाकरण के अभियानों और प्रतिरोधक क्षमता के विकसित होने से यह महामारी सामान्य फ्लू जैसी ही रह जाएगी और इसे लेकर हमारा भय खत्म हो जाएगा। तो ‘डी-रिस्किंग’ से क्या मतलब निकाला जा सकता है कि कोविड-19 से दुनिया में कोई मौत नहीं होगी। ब्रिटेन के स्वास्थ्य विज्ञानी प्रोफेसर क्रिस व्हिटी के मुताबिक इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि कोविड-19 से किसी की मौत नहीं होगी। बल्कि यह अवश्य होगा कि कोविड-19 के कारण मौतों की संख्या उतनी ही रह जाएगी, जितनी अभी भी सामान्य फ्लू के कारण दुनिया में होती हैं। उल्लेखनीय है कि 2017-18 में अकेले ब्रिटेन में फ्लू से 20 हजार मौतें हुई थीं।
कोरोना ने जो सिखाया है
महामारियां अक्सर अपने पीछे कोई बड़ा सबक मानवता के लिए छोड़ती हैं। कोरोना वायरस भी उसी सिलसिले की एक अहम कड़ी है। इसने जो सबसे अहम सीख हमें दी है, वह है कि अधुनातन चिकित्सा सुविधाओं के बावजूद एक मामूली सा वायरस हमारे सारे इंतजामों की हवा निकाल सकता है। इसलिए सावधानियों की तिलांजलि देना घातक गलती हो सकता है। भले ही आज हमारे पास वैक्सीन है, कोविड-19 के मरीजों के इलाज के लिए अस्पतालों की भरमार है, लेकिन इसके शुरुआती दिनों की याद कीजिए। जरा सोचिए कि अगर इसकी चपेट में आकर होने वाली मौतों की दर 20 फीसदी भी होती और दुनिया के कुछ मुल्कों ने पीपीई किट जैसे साधनों की सप्लाई रोक दी होती तो क्या होता। बहरहाल, कोविड-19 का सबसे अहम सबक यह है कि उन सारी सावधानियों की कल्पना की जाए और हर वक्त उन्हें अमल में लाया जाए, जो किसी नयी संक्रामक बीमारी को रोक सकते हैं। दुनिया की चाल को यथावत रखना है तो अब स्थिति यह है कि हर समय अलर्ट मोड पर रहा जाए क्योंकि कोई नहीं जानता कि कब कोई नया वायरस किस शक्ल में और किस तरीके से हमला कर सकता है। इसी तरह वैज्ञानिक सोच को अहमियत मिले, न कि राजनीतिक बयानबाजी को। याद करें कि पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने किस तरह मास्क को गैरजरूरी बता दिया था और सावधानियों का मजाक उड़ाया था। अगर वह इस मामले में संवेदनशील होते तो शायद अमेरिका में कोरोना से हुई मौतों का आंकड़ा काफी कम होता। कोई अगली महामारी दुनिया के दरवाजे पर दस्तक दे, उससे पहले जरूरी है कि सरकारें और आम जनता कुछ अहम सावधानियां बरते। इनमें एक बड़ी सावधानी यह है कि इलाज की प्राथमिकता में तय किया जाए कि सबसे पहले किस उम्र के लोगों को उपचार और टीकाकरण की जरूरत है। कोविड-19 के दौर में दुनिया के ज्यादातर देशों में 60 साल से ज्यादा आयु के लोगों को वैक्सीन लगाने की प्रक्रिया ने इस दिशा में एक सकारात्मक पहल की है। साठ से ज्यादा उम्र में जल्दी इलाज की जरूरत इसलिए है क्योंकि इस उम्र के लोगों की इम्यूनिटी कमजोर होती है। यदि ऐसे लोगों की ज्यादा मौतें होती हैं, तो चारों तरफ बीमारी को लेकर सनसनी फैल जाती है। एक अन्य सावधानी यह बरतना आवश्यक है कि सब कुछ सरकारों और उनके स्वास्थ्य तंत्र पर न छोड़ा जाए। भीड़ नहीं जुटाने, मास्क लगाने और एक दूसरे से पर्याप्त दूरी बरतने जैसे उपायों पर तो लोगों को खुद अमल करना है। अब तो इसे एक नियम की तरह लेना होगा कि घर से बाहर कहीं भी जाते वक्त मास्क लगाने, दूरी बरतने और हाथ धोने को जीवनचर्या का एक अनिवार्य अंग बनाया जाए। अफवाहों को रोकना भी लोगों के हाथ में है। इलाज और टीकाकरण को धर्म, जात-पात आदि से जोड़ना और अफवाहें फैलाना एक अपराध है, जिसे लेकर महामारी कानून के तहत सख्त कार्रवाई की जरूरत बनती है।
धीमा टीकाकरण या लापरवाही
भारत जैसी विशाल आबादी वाले देश में किसी भी योजना से प्रत्येक नागरिक को जोड़ने के लिए लंबा वक्त चाहिए। टीकाकरण जैसे मामलों में तो यह अवधि और भी लंबी खिंच सकती है क्योंकि अव्वल तो ऐसी मुहिमों को लेकर जागरूकता नहीं होती और संदेह भी ढेरों होते हैं। कोरोना की वैक्सीन के साइड इफेक्ट्स की खबरों और अफवाहों के चलते लोग पहले से ही इस अभियान को शक की नजर से देख रहे थे, बाकी समस्या आबादी को देखते हुए इसमें उम्र के वर्गीकरण ने पैदा कर दी। उपाय यही बचता है कि टीकाकरण की रफ्तार बढ़ाई जाए। सरकार ने वैक्सीन के लिए उम्र का दायरा घटाकर 45 साल तक किया। यह नया प्रबंध भी कहता है कि 45 पार की आबादी को टीका लगाने में भी चार महीने का वक्त लगेगा। इतने अरसे में तो न जाने कितना पानी गंगा में बह जाएगा। इसे ऐसे समझा जा सकता है कि जब देश में हर रोज 50 हजार नए केस आने लगेंगे, तो कोरोना संक्रमण से ग्रसित लोगों को संख्या कम करने में सरकारी मशीनरी के पसीने ही छूट जाएंगे। टीकाकरण की मंद रफ्तार ही कोरोना के लौट आने की मुख्य वजह नहीं है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने अपने अध्ययन में पाया कि महाराष्ट्र, केरल और पंजाब जैसे सर्वाधिक संक्रमण वाले राज्यों समेत देश के कुल 16 राज्यों के 70 जिले ऐसे हैं, जहां मार्च के पहले पखवाड़े में कोरोनों के सक्रिय मामलों में 150 फीसदी की तेजी दर्ज की गई। यही तेजी कोरोना की दूसरी लहर उठाने का असली सबब बन गई है। सबसे बड़ी समस्या यह है कि लगभग नौ-दस महीने वायरस की दहशत के साये में जी लेने और फिर टीकाकरण अभियान शुरू हो जाने के बाद लोगों के मन से कोरोना का डर निकल गया। कुछेक अपवादों को छोड़कर लोग ट्रेनों में धड़ल्ले से सफर कर रहे हैं, बाजारों में उन्होंने रौनकें लगा दी हैं और उनकी बदौलत अर्थव्यवस्था की चाल फिर अपनी गति पर आने लगी है, लेकिन सामान्य जनजीवन में लौट आने वाली उनकी इस अदा का दूसरा पहलू यह है कि दो गज दूरी के नियम के उन्होंने धुर्रे उड़ा दिए हैं, मास्क पहनना उन्हें कोरोना से बड़ी मुसीबत लगने लगा है और हाथ धोने को उन्होंने पाप समझ लिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आह्वान कर रहे हैं कि ट्रिपल टी (टीटीटी) यानी ‘टेस्ट, ट्रेस, ट्रीट’ को अमल में लाते हुए दो गज दूरी, मास्क जरूरी आदि हिदायतों का हर हाल में पालन हो, लेकिन इन सारे नियम-कायदों का चुनावी रैलियों से लेकर ऑटो-बस-कार के सफर तक में खुलेआम उल्लंघन हो रहा है। प्रतीत होता है मानो लोगों ने मान लिया है कि अब कोरोना के साथ जिंदगी भर का साथ हो गया है।