
केवल तिवारी
केवल तिवारी
रंग। उमंग। तरंग। नवीनता। खुशियां। उम्मीदें। अपनापन। यही तो हैं प्रकृति के संदेश। इन्हीं संदेशों के साथ जीने का नाम है होली। रंगों का त्योहार। मन में उमंग और तरंग, जो महसूस कराये नयेपन को। उम्मीदें आगे बढ़ने की। संदेश अपनेपन का। होली एक-दूसरे के साथ खुशियों को बांटने का संदेश भी तो है। होली यानी प्रकृति से कदमताल। होली अर्थात उल्लास का जीवन। होली बोले तो इंसानी जुड़ाव के भावों का रंगरेज| भारत जिस तरह विविधताओं से भरा देश है, उसी तरह विविध रंगों का यह पर्व होली भी विभिन्न जगहों पर अलग-अलग तरीके से मनाया जाता है।
बरसाने और वृंदावन की होली को कौन नहीं जानता। यहां लट्ठमार और फूलों की होली दोनों ही प्रीत के रंग लिए हैं। उस पूरी बेल्ट में होली कोई एक दिन का नहीं, हफ्तों-महीनों का पर्व है। मानो यह संदेश कि होली जैसी उमंग हमेशा बनी रहे। हरियाणा के हर छोर में अलग अंदाज तो यूपी में कुछ और। यूपी में ही कानपुर में अलग तरह का माहौल तो लखनऊ में कुछ और। महाराष्ट्र में रंगोत्सव का एक नया रूप तो बंगाल में रंग खेला। इसी तरह उत्तराखंड में होली का एकदम अलग ही रूप है। यहां की होली में काशी है। यहां की होली में पौराणिक कथाएं हैं। यहां की होली में प्रेम के गीत हैं, बिछोह की वेदना है, ठिठोली है और भी बहुत कुछ है। होली का एक गीत है, ‘शिव के मन माही बसे काशी...।’ कहीं होली पर गाया जाता है, ‘आज बिरज में होली रे रसिया…।’
होली का साहित्यिक पक्ष
होली के साहित्यिक पक्ष की ओर जायें तो कहानी सम्राट महान लेखक मुंशी प्रेमचंद की दो कहानियां हैं-होली का उपहार और प्रेम की होली। चूंकि कहानी देश, काल और परिस्थिति का आईना होती हैं इसलिए उनकी कहानियों में देशभक्ति के साथ-साथ कहानी का अंदाज है। ऐसे ही जाने-माने लेखक यशपाल की कहानी होली का मजाक है। उसमें एक परिवार के बीच की हंसी-ठिठोली को बहुत मजेदार अंदाज में पेश किया गया है। ऐसे ही अनेक लेखकों ने होली पर कविता, व्यंग्य, कहानी आदि साहित्य की अनेक विधाओं पर अपनी कलम चलाई है।
यज्ञ स्वरूप भी है यह पर्व
होली को यज्ञ का एक स्वरूप भी माना गया है। भारत में प्रचलित चातुर्मास्य यज्ञ परम्परा में आषाढ़ मास (गुरु पूर्णिमा), कार्तिक मास (दीपावली), फाल्गुन मास (होली) तीन काल निर्धारित हैं –फाल्गुन्या पौर्णामास्यां चातुर्मास्यानि प्रयुञ्जीत मुखं वा एतत सम्वत्सरस्य यत फाल्गुनी पौर्णमासी आषाढ़ी पौर्णमासी। अर्थात- फाल्गुनी पौर्णमासी, आषाढ़ी पौर्णमासी और कार्तिकी पौर्णमासी को जो यज्ञ किये जाते हैं वे चातुर्मास्य कहे जाते हैं। प्राचीन काल में वासन्ती नव सस्येष्टि यज्ञ को होला, होलक और होलाका के नाम से भी जाना जाता था। अग्नि में भूनी हुई अधपकी फली युक्त फसल को होलक अर्थात होला कहा जाता है, अर्थात वैसे फसल, जिन पर छिलका होता है, जैसे हरे चने आदि। तभी तो होलिका दहन में इन फसलों के कुछ अंश को डाला जाता है। विडंबना है कि होली का रूप थोड़ा बिगड़ गया है। कुछ लोगों को बाद में समझ आता है, कुछ को समय पर आ जाता है। आमोद-प्रमोद के इस उत्सव को नशाखोरी में मत खत्म कीजिए। हंसी-मजाक सब ठीक है, लेकिन होली के बहाने गलत काम को कतई मान्यता नहीं दी जा सकती। बुरा न मानो होली है कि जगह बुरा न करो होली है होना चाहिए।
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