सरस्वती रमेश
पिछले कुछ दिनों में कई ऐसी खबरें आयीं जो बहुत कुछ सोचने को मजबूर करती हैं। ये बता रही हैं कि देश की भावी पीढ़ी यानी हमारे बच्चे जिन स्थितियों से गुजर रहे हैं वह चिंता पैदा करने वाली हैं। ये खबरें बच्चों के बीच बढ़ती हिंसक प्रवृत्ति को बयां कर रही हैं। उदाहरण के तौर पर दिल्ली के एक स्कूल में कुछ छात्रों ने मिलकर शिक्षक को चाकू से गोद दिया क्योंकि शिक्षक ने उन्हें यूनिफार्म के लिए डांटा था।
इसी तरह साउथ दिल्ली में 15 साल के दो लड़कों ने मोबाइल के लिए 18 साल के एक लड़के की चाकू से गोदकर हत्या कर दी। गाजियाबाद में तेरह साल के बच्चे ने छह साल की एक बच्ची की ईंटों के वार कर हत्या कर दी।
प्रवृत्ति की वजह
ये खबरें सवाल उठा रही हैं। ऐसी वारदातों के स्रोत पर सोचने को मजबूर कर रही। आखिर एक बच्चे के कोमल मन में हिंसा जैसे क्रूर विचार कैसे आ रहे, कहां से आ रहे। जवाब एकदम साफ है- अपने घर से, स्कूल से, पास-पड़ोस से। नैसर्गिकता से दूर लालन-पोषण के पूरे कृत्रिम परिवेश से। शिक्षा के यंत्रवत तरीके और भौतिकवाद से उपजी जीवनशैली से।
गैजेट्स का दखल
आज हमारे बच्चे पूरी तरह टीवी, मोबाइल, लैपटॉप और विभिन्न उपकरणों से सजी कृत्रिम दुनिया में जीते हैं। घर-घर में बच्चों के हाथ में मोबाइल फोन है जिस पर हर तरह की हिंसा ,रील्स, वीडियो गेम्स फ़िल्म की शक्ल में मौजूद हैं। जहां मनोरंजन के नाम पर वल्गरिटी परोसी जा रही है। बच्चा किसी भी समय मोबाइल में उपलब्ध वयस्क कन्टेंट या क्राइम थ्रिलर देख सकता है।
संवेदनाओं की दरकार
दलील दी जा रही कि यह दुनिया तर्क, विज्ञान व सूचनाओं पर आधारित है। लेकिन सच मानें तो इस दुनिया में बस कल्पनाविहीन सृजनात्मकता पर जोर है। या यूं कहें कि होड़ है। जबकि सृजन के मोती तो कल्पना के सागर से निकलते हैं। ऐसे में इस दुनिया का स्वाभाविक हश्र ही है कि यहां भावनाएं विकसित करने की संभावनाएं भी दिनोदिन क्षीण हो रही हैं। हर दिन कुछ ऐसा हो रहा है जो हमारी मरती संवेदनशीलता का परिचायक है। तो फिर यहां जीने वालों से संवेदनशील रहने की अपेक्षा कैसे करें।
प्रकृति की गोद में शिक्षा
बच्चों की दुनिया में कहीं कोई नैसर्गिकता नहीं है। उसके आसपास कोमल भावनाएं जगाने वाले जीव-जंतुओं, पेड़-पौधों, नदी, पहाड़ों, झरनों, परिवार और साथ खेलने वाले बच्चों की कमी है। जबकि रवींद्रनाथ टैगोर कहते थे कि बच्चों का सम्पूर्ण मानसिक और शारीरिक विकास प्रकृति की गोद में ही संभव है। इस कथन के पीछे बच्चों के मन में भावनाएं और नैतिकता का भाव भरने का विचार छिपा था। एक बालक प्रकृति से उदारता-कोमलता सीखता है।
पारिवारिक परिवेश
पारिवारिक परिवेश में आये बदलावों का भी बच्चों पर बुरा असर पड़ रहा है। पहले के समय बच्चों पर मां-बाप की कड़ी निगरानी होती थी। उनका अधिकतर समय परिवार के सदस्यों के साथ बीतता था। पिता या दादा का डर होता था। उन्हें प्यार भी भरपूर मिलता था और गलती करने पर डांट भी।
जीवन शैली
बच्चों के हिंसक होने की एक और वजह आधुनिक जीवन शैली है। निरंतर छोटे होते परिवार, मां-बाप दोनों का वर्किंग होना, पैसे का रुतबा दिखाना, समाज से कटाव और बढ़ता अकेलापन जैसी कई वजहें हैं जो बच्चों को गलत दिशा में मोड़ने का काम करती हैं। हिंसा किसी भी रूप में बच्चे में प्रवेश कर सकती है। फिर वही हिंसा उसमें उत्तेजना भरती है और उसे समाज विरोधी कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। फिर भी यह हताश होने का नहीं बल्कि संभलने का वक्त है। अभी भी वक्त है कि हम अपने बच्चों की परवरिश कर उन्हें तेज दिमाग वाला रोबोट बनाने की बजाय संवेदनशील इंसान बनाएं।