दाई टोड, एक शर्मीला और रात्रिचर प्राणी, दिन में चट्टानों और मांदों में छिपा रहता है। रात को यह कीड़े-मकोड़े खाता है और घंटियों जैसी आवाज़ें निकालता है। विषैले मस्सों और धीरे-धीरे रेंगने की विशेषता इसे खतरनाक और रहस्यमयी बनाती है, जबकि छोटा आकार इसे अद्भुत बनाता है।
दाई टोड एक शर्मीला टोड है। यह दिन के समय पत्थरों के नीचे, चट्टानों की दरारों में अथवा छोटे-छोटे स्तनपायी जीवों द्वारा छोड़ी गई मांदों में छिपा रहता है। कुछ दाई टोड अपने अगले पैरों और थूथुन की सहायता से नम जमीन में मांदें खोद लेते हैं और इन्हीं में रहते हैं। दाई टोड की संख्या बहुत अधिक है, फिर भी यह रात्रिचर होने के कारण बहुत कम दिखाई देता है। इसकी एक प्रमुख विशेषता यह है कि यह मेढक के समान छलांगें लगाकर नहीं चलता बल्कि धीरे-धीरे रेंगता है, किंतु कभी-कभी इसे बहुत छोटी-छोटी छलांगे लगाते हुए और उछलते हुए भी देखा गया है। दाई टोड हमेशा रात को अपने छिपने के स्थानों से बाहर निकलता है और अपने साथियों के साथ मिलकर घंटियों जैसी आवाजें निकालता है। इसीलिए कुछ लोग इसे घंटी टोड भी कहते हैं।
दाई टोड एक छोटे आकार का टोड है। इसकी लंबाई 4 सेंटीमीटर से लेकर 6 सेंटीमीटर तक होती है। मादा का आकार नर से कुछ बड़ा होता है। दाई टोड का थूथुन नुकीला होता है एवं इसका सिर शरीर की तुलना में छोटा होता है। इसके पैरों में बहुत कम झिल्ली होती है। उंगलियों के केवल तिहाई भाग पर ही झिल्ली देखने को मिलती है। दाई टोड की पीठ और ऊपर के भाग का रंग ग्रे अथवा हल्का कत्थई होता है एवं पीठ पर छोटे-छोटे गोल मस्से होते हैं, जबकि पेट और नीचे का भाग मटमैला सफेद होता है। इसकी दोनों आंखों के बीच में एक गहरा धब्बा होता है और छाती व गर्दन पर गहरे ग्रे धब्बे पाए जाते हैं। मादा की बाह्य शारीरिक संरचना नर के समान होती है, किंतु इसके शरीर की दोनों बगलों में लाल रंग के मस्से पाए जाते हैं, जो नर टोड में नहीं होते।
दाई टोड दिन में आराम करता है और रात को शिकार की तलाश में निकलता है। इसका प्रमुख भोजन छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े, घोंघे और स्लग हैं। दाई टोड बहुत आलसी होता है। इसे यदि छेड़ दिया जाए तो भी यह अपने स्थान पर सुस्त पड़ा रहता है, फिर भी यह अपने शत्रुओं से सुरक्षित रहता है। इसका प्रमुख कारण इसके शरीर से निकलने वाला विष है। त्वचा के मस्सों से एक विशेष प्रकार का अत्यंत घातक विष निकलता है, जिससे इसके शत्रु निकट नहीं आते। एक दाई टोड में इतना विष होता है कि यह खतरनाक विषधर एडर सर्प को भी मार सकता है। इसीलिए कहा जाता है कि इसे खा लेने वाला मांसाहारी जीव जीवित नहीं बचता।
दाई टोड का समागम काल अप्रैल से आरंभ होता है और पूरे वसंत एवं ग्रीष्म भर चलता है। समागम काल में रात के समय नर टोड पत्थरों के नीचे, चट्टानों की दरारों, पत्तियों के नीचे अथवा मांदों में घंटी जैसी आवाजें निकालते हैं। इससे आकर्षित होकर समागम की इच्छुक मादाएं नर के पास आती हैं। इसमें बाह्य समागम तथा बाह्य निषेचन होता है। दाई टोड समागम हेतु पानी में नहीं जाता, बल्कि पत्तियों के नीचे या चट्टानों की दरारों में ही जोड़ा बनाता है। मादा 20 से 100 तक अंडे देती है।
मेढक और टोड के संबंध में पहले यह समझा जाता था कि उनके टेडपोल अपने मुंह का सहारा लेकर अंडे का आवरण तोड़ते हैं और बाहर निकलते हैं। किंतु टोड के गहन अध्ययन से पता चला कि जन्म के समय मेढक और टोड दोनों के टेडपोल का मुंह बंद रहता है। अंडों में स्वतः एक छिद्र बन जाता है, जिससे लगभग आधे घंटे के प्रयास के बाद टेडपोल बाहर आ जाता है। जीव वैज्ञानिकों के अनुसार, मेढक और टोड के नथुनों के मध्य एक ग्रंथि होती है, जिससे एक विशेष प्रकार का तरल पदार्थ निकलता है। इस तरल पदार्थ से अंडे का आवरण कमजोर हो जाता है और उसमें एक छोटा छेद बन जाता है। यह ग्रंथि उन सभी मेढकों और टोडों में पाई जाती है जिनके अंडों से पानी में टेडपोल निकलते हैं। जमीन पर फूटने वाले अंडों में यह ग्रंथि नहीं पाई जाती। इन टेडपोल का आवरण काटकर निकलता है। हरित गृह मेढक इसका सर्वोत्तम उदाहरण है। इ.रि.सें.

