साल 2020 अजीब सा रहा। कोरोना महामारी की काली छाया ने जीवन के हर पहलू पर कुप्रभाव डाला। उम्मीद तो थी तरक्की के पथ पर बुलंदियों को छूने की, लेकिन सबकुछ थम सा गया। बेशक इसी दौरान कई जगह चुनाव हुए, सियासत हुई, सीमा पर तनाव बढ़ा, लेकिन ऊंची उड़ान के सपनों को पंख फैलाने का मौका नहीं मिला। साल 2020 की जद्दोजहद पर नजर दौड़ा रहे हैं प्रमोद जोशी
आप पूछें कि इस गुजरते साल 2020 को हम किस तरह याद रखें, तो पहला जवाब है ‘महामारी का साल।’ महामारी न होती, तब भी इसे यादगार साल होना था। ‘इंडिया 2020 : ए विज़न फॉर द न्यू मिलेनियम’ डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की किताब है, जो 1998 में लिखी गई थी। तब वह राष्ट्रपति बने नहीं थे, पर उन्होंने 2020 के भारत का सपना देखा था। इस साल की शुरुआत उस सपने के साथ हुई थी और अंत ‘स्वप्न-भंग’ से हुआ। सपनों पर पानी फेरने वाला साल।
गिलास पूरा खाली नहीं है। यह हमारी परीक्षा का साल था। फिर भी एक मुश्किल दौर को हमने जीता है। साल की शुरुआत आंदोलनों से हुई और समापन किसान आंदोलन के साथ हो रहा है। देश की राजधानी में जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय और शाहीनबाग के नाम से जो आंदोलन शुरू हुआ था, उसकी छाया विधानसभा चुनाव की तैयारी में लगे दिल्ली शहर पर पड़ी। दिल्ली को सांप्रदायिक दंगे ने घेर लिया। उत्तर प्रदेश के शहरों में भी हिंसा हुई।
नमस्ते ट्रंप
फरवरी में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की दिल्ली यात्रा के दौरान दिल्ली में फसाद की बुनियाद पड़ गई थी। इस हिंसा के पहले दिल्ली के जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय परिसर में हिंसा हुई, जिसकी प्रतिक्रिया में देश के अनेक शिक्षा-संस्थानों में आंदोलन हुए। कोरोना का हमला न होता, तो शायद यह साल ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ की बहस का विषय बनता। भारत को लेकर तमाम अंदेशे हैं और उम्मीदें भी, जो ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ हैं।
अर्थव्यवस्था धड़ाम
कलाम का सपना गलत नहीं था। अर्थव्यवस्था ने हमें कई पायदान ऊपर जाने का मौका दिया है। सामाजिक-व्यवस्था हमें नीचे धकेल रही है। उम्मीद थी कि अर्थव्यवस्था पिछले दो वर्षों की सुस्ती को त्यागते हुए फिर से तेजी पकड़ेगी। एक के बाद एक लॉकडाउन ने सुस्ती को महा-सुस्ती में तबदील कर दिया और 2020-21 की पहली तिमाही में जीडीपी में 24 फीसदी का संकुचन आ गया। यह संकुचन दूसरी तिमाही में कम हो गया है, पर बहुत कुछ नये साल के पहले तीन महीनों पर निर्भर करेगा। जीडीपी के विपरीत देश के शेयर बाजारों ने विशेषज्ञों को विस्मय में रखा। जनवरी के महीने में सेंसेक्स 41 हजार के आसपास था, जो कोरोना के भय से 23 मार्च को 25,981 बंद हुआ था। साल का अंत आते-आते उसने फिर से छलांग लगानी शुरू कर दी। 27 नवंबर को सेंसेक्स 44,149 पर और दिसंबर में 47 हजार पार कर गया। ज़ाहिर है कि सट्टा बाजार और उसके निवेशकों की समझ अर्थव्यवस्था के बुनियादी सिद्धांतों से मेल नहीं खाती। सन 2020 की पूर्व-संध्या पर केंद्र सरकार ने इंफ्रास्ट्रक्चर विकास के लिए नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन नाम से एक महत्वाकांक्षी परियोजना की घोषणा की। इसके तहत अगले पांच साल में 102 लाख करोड़ रुपये की परियोजनाओं को पूरा किया जाएगा। फरवरी में पेश किए गए आम बजट में जीडीपी की सुस्ती तोड़ने के सभी फॉर्मूलों को एक साथ लागू करने की कोशिश की गई है। पर उन फॉर्मूलों का असर होने से पहले ही चीन से खबरें मिलने लगीं कि वहां कोई ऐसी बीमारी फैली है, जिसका संक्रमण बहुत तेज है।
सहमी-सहमी जिंदगी
बीमारी ने भारत में भी दस्तक दी। विदेश से आने वाले यात्रियों की स्क्रीनिंग से शुरुआत हुई। पर मार्च के दूसरे हफ्ते से समझ में आने लगा कि बड़े कदम उठाने होंगे। बड़े कदम यानी लॉकडाउन। दुनिया की अर्थव्यवस्थाएं बजाय बढ़ने के सिकुड़ने लगीं। हवाई यात्रा शुरू होने के बाद शायद पहला मौका था, जब सारी दुनिया की विमान सेवाएं एकबारगी बंद हो गईं। रेलगाड़ियां, मोटरगाड़ियां थम गईं। गोष्ठियां, सभाएं, समारोह, नाटक सिनेमा कुछ नहीं हुआ। इस साल जब होली मनाई जा रही थी, तब कोरोना शुरू हो रहा था। दिवाली आते-आते बीमारी अपने चरम पर पहुंच गई। क्वारंटाइन, सोशल डिस्टेंसिंग, पैनडेमिक और कोविड-19 जैसे नये शब्दों से हमारी मुलाकात हुई। भारत में शादी सबसे बड़ा समारोह होता है। सब बेकार हो गया। अब जो शादियां हो रही हैं, मन मारकर। जो मेहमान आ रहे हैं, वे बीमारी से डरकर भागते हैं। जिन्हें नहीं बुलाया, वे मुंह फुलाए बैठे हैं। जिंदगी ठहर गई। जो जहां था, वहीं का होकर रह गया। प्रवासी मजदूर घर वापस जाने के लिए हजार-दो हजार किलोमीटर की पैदल यात्रा पर निकल पड़े।
भाजपा बनाम कांग्रेस
महामारी के बीच कुछ ऐसी घटनाएं भी इस साल हुईं, जिनका असर काफी समय तक रहेगा। इनमें से एक है अयोध्या में राम मंदिर की आधारशिला का रखा जाना। उम्मीद है कि 2024 के चुनाव तक मंदिर तैयार हो जाएगा। अलबत्ता भाजपा के लिए यह साल मिश्रित परिणाम देकर गया। दिल्ली के विधानसभा चुनाव में पार्टी को एक बार फिर से आम आदमी पार्टी से मुकाबले में हार का मुंह देखना पड़ा, पर बिहार विधानसभा के चुनाव में जेडीयू के साथ उसका गठबंधन न केवल सफलता पाने में कामयाब रहा, बल्कि जेडीयू से ज्यादा बड़ी पार्टी के रूप में भाजपा उभरी। अमित शाह का कार्यकाल पूरा होने के बाद पार्टी ने जगत प्रकाश नड्डा को इस साल जनवरी में नये अध्यक्ष के रूप में चुना। 6 अप्रैल को पार्टी के स्थापना दिवस पर उन्होंने पदभार संभाला। अलबत्ता इसके पहले से वह कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में काम कर रहे थे। मार्च के महीने में जब देश लॉकआउट में था, कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने पार्टी छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया। इसकी परिणति मध्य प्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में बनी सरकार के पराभव और शिवराज सिंह चौहान की मुख्यमंत्री के रूप में वापसी में हुई। इस घटना के कुछ समय बाद राजस्थान में सचिन पायलट की लगभग ऐसी ही बगावत विफल हो गई और कांग्रेस में बने रहना उनकी मजबूरी बन गई। बिहार विधानसभा चुनाव के साथ गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में भी भाजपा को कामयाबी मिली। पिछले साल शिवसेना ने भाजपा का साथ छोड़ा था और इस साल उसके एक और पुराने सहयोगी अकाली दल ने कृषि कानूनों को लेकर उसका साथ छोड़ दिया। एलजेपी भी बिहार में एनडीए से अलग हो गई।
भाजपा की निगाहें अगले साल बंगाल, असम, केरल और तमिलनाडु के चुनावों पर हैं। बिहार चुनाव के दौरान अमित शाह बंगाल का दौरा भी कर आए और साल के अंत में वह एक और दौरा कर चुके हैं। वह तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को तोड़कर अपने साथ जोड़ने में लगे हुए हैं। इनमें एक नये नेता हैं शुभेंदु अधिकारी। कभी ममता बनर्जी के बेहद खास रहे शुभेंदु अधिकारी का करीब 50 विधानसभा सीटों पर अच्छा प्रभाव माना जाता है।
कांग्रेस का जी-23
दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी का चुनावों में तो निराशाजनक प्रदर्शन रहा ही, पार्टी के नेतृत्व को आंतरिक विरोध का सामना भी करना पड़ा। अगस्त के महीने पार्टी अध्यक्ष के नाम 23 वरिष्ठ नेताओं का एक पत्र सामने आया। कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में इस पत्र पर विचार हुआ, पर निशाने पर पत्र लिखने वाले रहे। दिसंबर के तीसरे हफ्ते में सोनिया गांधी ने इन असंतुष्टों से बात करके कम से कम उनकी सुनवाई तो की। उधर, मीडिया की कुछ खबरों के कारण पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की अगली किताब को लेकर भी उत्सुकता बन गई है।
बहरहाल लगता है कि नये साल में पार्टी अपने लिए स्थायी अध्यक्ष का चुनाव करेगी। आसार इस बात के हैं कि गांधी-नेहरू परिवार का वर्चस्व बढ़ेगा। महाराष्ट्र में भाजपा से अलग होकर शिवसेना ने नवंबर 2019 में कांग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर जो सरकार बनाई थी, उसने एक साल पूरा कर लिया है। अलबत्ता बॉलीवुड-अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की जून में हुई मौत के बाद जो विवाद खड़ा हुआ है, उसने महाराष्ट्र सरकार को चपेटे में लिया है। अभिनेत्री कंगना रणौत और टीवी पत्रकार अर्नब गोस्वामी के साथ महाराष्ट्र सरकार का पंगा इस साल की बड़ी घटना रही।
लद्दाख में टकराव
कोरोना के बाद साल की सबसे बड़ी गतिविधि चीन की सीमा पर हुई। अप्रैल में लद्दाख से खबरें आईं कि चीनी सेना ने वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चार जगहों पर गहरी घुसपैठ की है। भारत सरकार ने पहले तो इन खबरों को तवज्जो नहीं दी, पर 15 जून को अचानक चीनी सेना ने भारत की एक टुकड़ी पर हमला बोल दिया। इस टकराव में 20 भारतीय सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। इस टकराव से देश में चीन को लेकर भारी नाराजगी फैल गई। चीन का रुख इस दौरान टालमटोल वाला रहा। बातचीत के दौर होते रहे, पर परिणाम शून्य। आखिरकार 29-30 अगस्त की रात भारतीय सेना ने कार्रवाई करके पेंगोंग झील के दक्षिणी किनारे की कुछ ऊंची चोटियों पर कब्जा कर लिया। इसके बाद चीन के मुकाबले भारतीय सेना ज्यादा ऊंचाई पर आ गई और चीनी सेना उसकी तोपों की मार के दायरे में। दोनों देशों के बीच बातचीत के आठ दौर हो चुके हैं और बात बन नहीं रही है। चीन के इस दबाव का प्रतिफल यह हुआ कि भारत अब अमेरिका के और करीब है। गत 6-7 अक्तूबर को तोक्यो में क्वाड के विदेश मंत्रियों की बैठक ऐसे समय में हुई, जब चीन को लेकर एक तरफ लद्दाख में और दूसरी तरफ दक्षिण चीन सागर में तनाव पैदा हो गया था। नवंबर के महीने में ‘मालाबार युद्धाभ्यास’ में ऑस्ट्रेलिया के शामिल हो जाने के बाद यह सहयोग पूरा हो गया है। दुनिया में फिर से शीत-युद्ध के बादल घिर रहे हैं। साल की शुरुआत आंदोलनों से हुई थी और अंत भी आंदोलन के साथ हो रहा है। भारत सरकार ने आर्थिक सुधारों के कार्यक्रम को बढ़ाते हुए पहले तीन अध्यादेशों के माध्यम से और बाद में संसद से विधेयक पास कराते हुए तीन नये कृषि कानून बनाए हैं, जिनके खिलाफ अक्तूबर के अंत में पंजाब में शुरू हुआ किसान आंदोलन दिल्ली के दरवाजे पर है।
‘घसेका’ यानी घर में दफ्तर
हिंदी में घसेका (घर से काम) शब्द इस साल की देन है। यह साल जीवन-शैली और कामकाज के बदलाव का साल है। लोगों के खान-पान में बदलाव आया है। लोग ‘इम्यूनिटी’ को लेकर जागरूक हैं। हाथ धोना और सेनेटाइज करना आदत में शामिल हो गया है। बाहर की जगह घर के खाने का चलन बढ़ा है। अश्वगंधा, गिलोय, दालचीनी वगैरह-वगैरह की मांग बढ़ी। मार्च अप्रैल में ज्यादातर शहरों की आबोहवा स्वच्छ हो गई। आकाश नीला नजर आने लगा। पक्षियों का कलरव सुनाई पड़ने लगा। पर सबसे बड़ा असर कामकाज पर हुआ। दफ्तर की परिभाषा बदल गई। तमाम कंपनियां बड़े-बड़े ताम-झाम की जगह पर कर्मचारियों को घर पर जरूरी सुविधाएं देकर दफ्तर के भारी खर्चों से पूरी तरह या आंशिक रूप से मुक्ति पाने के रास्ते खोज रही हैं। सरकार ने भी घर से काम करने के लिए नियमों को सरल बनाने की दिशा में काम शुरू कर दिया है। टेक्नोलॉजी इंडस्ट्री के लिए ‘वर्क फ्रॉम होम’ और ‘वर्क फ्रॉम एनी ह्वेयर’ की सुविधा को स्थायी बनाने पर विचार हो रहा है। दस साल पहले यह संभव नहीं था। इंटरनेट की बढ़ती स्पीड और देश में ऑप्टिकल फाइबर के बढ़ते जाल के कारण अब यह संभव होगा। जो लोग ग्रामीण क्षेत्र में रह रहे हैं, वे गांव के अपने घर से भी काम कर सकेंगे। ऑनलाइन शिक्षा ने स्कूल की अवधारणा को बदला है। गूगल ने अगले साल यानी 2021 में भी कर्मचारियों के लिए वर्क फ्रॉम होम की सुविधा जारी रखने का निर्णय किया है। गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई ने अपने स्टाफ को भेजे ईमेल में कहा है कि, कोरोना महामारी को देखते हुए वर्क फ्रॉम होम को अगले कुछ महीनों के लिए जारी रखा जाएगा। ऐसे में वैक्सीन आने और कामकाजी माहौल ठीक होने के बाद जब कर्मचारी ऑफिस लौटने लगेंगे तब भी गूगल सप्ताह में कुछ दिन घर से काम करने की सहूलियत देगा। कर्मचारियों को सप्ताह में केवल तीन दिन ऑफिस जाना होगा और बाकी के दिन घर से काम करने की सुविधा मिलेगी।
सोनू सूद और लंगर-संस्कृति
मार्च के महीने में देश-व्यापी लॉकडाउन के बाद लाखों प्रवासी मजदूरों के सामने घर जाने की समस्या पैदा हो गई। उस दौरान फिल्म अभिनेता सोनू सूद गरीबों के मसीहा के रूप में सामने आए। उनके ‘घर भेजो अभियान’ ने देखते ही देखते उन्हें करोड़ों लोगों के बीच पहचान दिला दी। दूसरों की मदद करने का उनका यह कार्यक्रम रुका नहीं है, बल्कि कई नयी शक्लों में सामने आ रहा है। हाल में उन्होंने एक नयी पहल की शुरुआत की, जिसका नाम ‘खुद कमाओ घर चलाओ’ है। इसके तहत वे उन लोगों को ई-रिक्शे दिलवा रहे हैं, जो इस दौरान बेरोजगार हो गए हैं। लॉकडाउन के दौरान जहां सड़कों पर पुलिस के डंडे खाते प्रवासी मजदूरों की खबरें थीं, वहीं इस आशय की खबरें भी थीं कि लोगों ने दिहाड़ी पर काम करने वाले मजदूरों के भोजन की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली। फिर भी यह पर्याप्त नहीं था। हाल में पंजाब के किसानों के दिल्ली आंदोलन के दौरान लगे लंगरों में उन गरीबों को भी देखा गया है, जो आसपास रहते हैं। इन बातों ने देश की अंतरात्मा को झकझोरा है। पीपुल्स आर्काइव्स ऑफ रूरल इंडिया की वेबसाइट की हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि इन लंगरों में आसपास के फुटपाथों और झुग्गी बस्तियों में रहने वाले कई परिवार शामिल हैं, जो विरोध प्रदर्शन वाली जगह पर मुख्य रूप से लंगर के लिए आते हैं जो दिन भर चलता है। यहां भोजन के अलावा कई तरह की उपयोगी वस्तुएं जैसे दवा, कंबल, साबुन, चप्पल, कपड़े आदि मुफ़्त में मिलते हैं। ‘डाउन टु अर्थ’ की एक रिपोर्ट के अनुसार लॉकडाउन के कारण पैदा हुआ आर्थिक संकट गरीब व कमजोर तबके के लिए मुसीबतों के पहाड़ लेकर आया। सर्वे में शामिल आबादी के एक बड़े हिस्से को भूखा भी रहना पड़ा। सितंबर और अक्तूबर में जब हंगर वॉच को लेकर सर्वे किया गया था, तो पता चला कि हर 20 में से एक परिवार को अक्सर रात का खाना खाए बगैर सोना पड़ा। नकारात्मक माहौल में ऐसी बातें, हमारी चेतना को चुनौती देती हैं और बदहाल लोगों के लिए कुछ करने का आह्वान करती हैं।