
बालेन्दु शर्मा दाधीच
लेखक प्रसिद्ध तकनीकविद् हैं
भाषाओं के तकनीकी परिदृश्य में तीन पक्षों की प्रधान भूमिका है- तकनीक विकसित करने वाला समूह यानी कि आईटी कंपनियां, भाषायी तकनीक के लिए पारिस्थितिकी तैयार करने वाला दूसरा वर्ग यानी कि सरकार, नियामक, मानक-संस्थान, शोध संस्थान आदि और तकनीक का प्रयोग करने वाला समूह अर्थात यूज़र। खुशी की बात है कि हिंदी को विविध क्षेत्रों में आगे बढ़ाने के लिए आज तकनीकी दृष्टि से कोई विशेष चुनौती शेष नहीं रह गई है। पहले वर्ग ने अपना काम बखूबी कर दिखाया। दूसरा यानी पारिस्थितिकी के स्तर पर भी ठीक-ठाक काम हो चुका है और आज भी जारी है। अब दारोमदार तीसरे वर्ग पर है। देखने की ज़रूरत है कि वह वर्ग, जिसे आप और हम बनाते हैं, हिंदी के तकनीकी विकास में कैसी भूमिका निभा रहा है। साथ ही साथ हमारे युवा, हमारे उद्यमी, नए दौर के डेवलपर, स्टार्टअप आदि की भूमिका को भी आंकने की ज़रूरत है।
दशकों से हम हिंदी में इस सॉफ्टवेयर, उस फीचर, इस टूल या उस युटिलिटी की मांग करते रहे हैं। मौजूदा सुविधाओं को बेहतर बनाने, नए-नए आधुनिक अनुप्रयोगों का विकास करने के हक में आवाज बुलंद करते रहे हैं। साथ ही हम हमारे संख्याबल को रेखांकित करते हुए हिंदी में उभर रहे बाजार और विशाल उपभोक्ता संसार के प्रति भी गर्व से भरे रहे हैं। लेकिन हर बात की एक उम्र होती है और होनी चाहिए। तकनीकी क्षेत्र में हिंदी में क्या कुछ नया घटित हो गया है इसे लेकर अब उत्सव मनाते नहीं चले जाना चाहिए। वह नया घटित होने के बाद हिंदी विश्व को जो कुछ करना था, अब उस पर ध्यान केंद्रित करने का समय है।
हिंदी में अच्छे फॉन्ट आ गए। कई किस्म के टाइपिंग कीबोर्ड आ गए। यूनिकोड आ गया। ध्वनि से टाइपिंग की तकनीक भी आ गई। व्याकरण की जांच भी होने लगी। पुराना टेक्स्ट भी कनवर्ट होने लगा। हिंदी में खोज होने लगी। हिंदी में मोबाइल ऐप आ गए। हिंदी में सोशल नेटवर्किंग आ गई। ईमेल और ब्लॉगिंग आ गई। अखबारों से लेकर वीडियो चैनलों तक के अनुप्रयोगों में हिंदी चलने लगी। ग्राफ़िक्स और एनिमेशन में हिंदी आ गई। ओसीआर, हस्तलिपि की पहचान जैसे आधुनिक अनुप्रयोग भी आ गए। सभी ज़रूरी सॉफ्टवेयरों का हिंदीकरण भी हो गया। क्या अब भी हम बस मांग ही करते चले जाएंगे?
हिंदी में हमें यह सोचने की ज़रूरत है कि इन सब चीज़ों की मांग आखिर हम क्यों कर रहे थे? कोई तो गंतव्य रहा होगा, जिस तक पहुंचने के लिए हमें इन सबकी ज़रूरत थी। क्या अब हम मांग की मानसिकता छोड़कर उस गंतव्य की यात्रा शुरू कर सकते हैं? तकनीक एक साधन मात्र है, वह उद्देश्य नहीं है और मर्म भी नहीं है। तकनीक की कमी और उसकी सीमाएं एक बहाना हो सकती हैं लेकिन वह स्थायी रूप से व्यस्त बने रहने का सार्थक माध्यम नहीं है।
सवाल उठता है कि अगर यह सब आ गया तो अब करें क्या? बहुत खूब! हम अपनी मांगों और आकांक्षाओं का चार्टर बनाने में इतने व्यस्त रहे कि कभी सोचा ही नहीं कि खुदा न ख्वास्ता ये मांगें पूरी हो गईं तो हम क्या करेंगे। खैर.. एक पंक्ति में कहा जाए तो हमारे द्वारा हिंदी की तकनीकी समृद्धि और ताकत का इस्तेमाल अपने, अपने संस्थान, परिवार और देश की तरक्की के लिए करने का समय आ गया है।
हिंदी की तकनीकी सुविधाओं का इस्तेमाल देश में उत्पादकता बढ़ाने, शिक्षा का प्रसार करने, बाजार को मजबूती देने, लोगों को रोजगार देने, नवोन्मेष को बढ़ावा देने, रचनात्मकता बढ़ाने, कन्टेन्ट तैयार करने, सेवाएं शुरू करने, सेवाएं मुहैया कराने, समाज में तकनीकी मिजाज को प्रोत्साहित करने में किया जाना चाहिए। हिंदी में रचनात्मकता बढ़े, हिंदी में अंग्रेजी की ही तरह तकनीक की आर्थिक-रचनात्मक दृष्टि से आत्मनिर्भर पारिस्थितिकी (इको-सिस्टम) पैदा हो, हिंदी नारायणमूर्ति, अजीम प्रेमजी और सत्य नडेला जैसे तकनीकी दृष्टाओं तथा उद्यमियों को पैदा करे, हिंदी आधारित स्टार्टअप्स की बाढ़ आ जाए, जहां भी ई शब्द का प्रयोग होता है (जैसे ई-कॉमर्स, ई-गवर्नेंस, ई-हेल्थ व ई-एजुकेशन आदि) वहां हिंदी की स्वाभाविक और मजबूत उपस्थिति हो। हमें थोड़ा भविष्योन्मुखी और व्यावहारिक होकर सोचने की ज़रूरत है कि अब आगे क्या।
फिलहाल हम हिंदी की तकनीकी तरक्की का बहुत अधिक उपयोग नहीं कर पा रहे। हमारा जोर औपचारिक दफ्तरी कामकाज, संचार और मनोरंजक-सूचनात्मक सामग्री के उपभोग पर है। चाहे वीडियो देखे जाने के लिहाज से, चाहे फेसबुक तथा व्हाट्सऐप जैसे सोशल नेटवर्किंग माध्यमों के इस्तेमाल के लिहाज से हम हिंदी वाले सबसे आगे हैं। लेकिन क्या इस पर बहुत अधिक खुश होने की ज़रूरत है? बिल्कुल नहीं क्योंकि हम कन्टेन्ट, सेवाओं और सुविधाओं की खपत करने वाले समाज के रूप में उभर रहे हैं। इसमें तो खुशी उन लोगों की अधिक है जिनके कन्टेन्ट, उत्पादों, सेवाओं आदि का प्रयोग हम कर रहे हैं क्योंकि हम उनका प्रयोक्ता-आधार बढ़ा रहे हैं। फेसबुक के प्रयोक्ताओं के लिहाज से भारत पहले नंबर पर है। इसमें फेसबुक का अधिक लाभ है, हमारा कम। अगर हम फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म खड़े करने लगें या फिर वह न हो सके तो कम से कम फेसबुक को ही हमारी उद्यमिता का जरिया बना लें तो उसमें हमारा फायदा है। चीन को देखिए। वहां किशोरों से लेकर युवक तक ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्मों पर सक्रिय हैं और इधर-उधर से कोई न कोई माल जुटाकर बेचने में लगे हैं। वह भी हमारी तरह सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश है लेकिन वह मेज के इस ओर नहीं बल्कि उस ओर भी जा चुका है। हम अपनी भाषा को तकनीकी उपभोक्ताओं की फैक्टरी बनाकर अपने या देश के लिए बहुत अधिक हासिल नहीं कर सकेंगे।
एक दिलचस्प तथ्य यह है कि हिंदी में हम मांग अवश्य करते हैं लेकिन जब वह उस मांग को पूरा करते हुए कोई सॉफ्टवेयर उत्पाद या फीचर जारी हो जाता है तो उसमें हमारी दिलचस्पी नहीं रह जाती। हिंदी में काम करने वाले कितने सॉफ्टवेयरों को हम वास्तव में खरीदते हैं? अनुवाद को छोड़कर दूसरे कितने आधुनिक तकनीकी अनुप्रयोगों का इस्तेमाल हम करते हैं? हिंदी में लाए गए कितने ऑपरेटिंग सिस्टमों के यूज़र इंटरफेस का प्रयोग हम करते हैं। हिंदी में आने वाले प्लेटफॉर्मों को हमें बढ़ावा देना चाहिए लेकिन क्या हम ऐसा करते हैं। हिंदी वेबसाइटों पर कितने विज्ञापनों को हम देखते और क्लिक करते हैं। कितने एप्लीकेशनों का हम दोबारा प्रयोग करते हैं क्योंकि हिंदी में किसी चीज़ को एक बार आजमाने वाले तो बहुत हैं लेकिन दोबारा वहां पर आकर उपयोग करने वालों की संख्या बेहद सीमित है।
कंटेंट वृद्धि की चुनौती
मैं यहां पर भाषा तकनीकों के गुणवत्तापूर्ण तथा उत्पादकतापूर्ण प्रयोग की बात कर रहा हूं। चाहे जितना तकनीकी विकास हो जाए, यदि उपभोक्ता उसे समर्थन नहीं देंगे तो भारतीय भाषाएं उस किस्म की तकनीकी सक्षमता प्राप्त नहीं कर सकेंगी जैसी हमारी आकांक्षा है। संख्याबल का उत्सव मनाने से आगे बढ़कर हमें खुद अपनी भाषाओं में तकनीकी तरक्की का नियंत्रण संभालना होगा। एक उदाहरण देखिए- बोलने वालों की संख्या के लिहाज से दुनिया की शीर्ष बीस भाषाओं में से छह भाषाएं भारत की हैं जिनमें हिंदी तीसरे नंबर पर है (हममें से बहुत से लोग इसे दूसरे नंबर पर मानते हैं)। लेकिन इंटरनेट पर कन्टेन्ट के लिहाज से हिंदी का स्थान 39वां है। आइए, हम खपत तक सीमित न रहें। हम बातों से आगे बढ़ें और वर्तमान अनुकूल परिस्थितियों का अधिकतम लाभ उठाते हुए आगे के लिए सुदृढ़ आधारशिला के निर्माण में जुटें।
जहां देखो भारत, जहां देखो हिंदी
बहुत सी बहुराष्ट्रीय तकनीकी कंपनियों की तरक्की में भारत का हाथ है क्योंकि उनके उपभोक्ताओं की संख्या के लिहाज से भारत सबसे बड़ा सप्लाई केंद्र है। एक तो भारत दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा जनसंख्या वाला देश है और दूसरे चीन के विपरीत, भारत में बहुराष्ट्रीय तकनीकी कंपनियों को प्रतिबंधों के दायरे में नहीं बांधा गया है। जाहिर है कि कोई भी वैश्विक तकनीकी कंपनी भारत से दूरी बनाने की कल्पना भी नहीं कर सकती और इसीलिए सबका फोकस भारत तथा भारतीय भाषाओं पर है। टिकटॉक को भारत से जाना पड़ा तो उसके उपभोक्ताओं की संख्या में एक झटके में भारी कमी आई। आज यूट्यूब के सबसे ज्यादा दर्शक भारत में हैं जिनकी कुल संख्या 46.7 करोड़ है। अमेरिका में यह संख्या 21 करोड़ होने का अनुमान है। यही बात फेसबुक पर लागू होती है जिसके उपभोक्ता भारत में 32 करोड़ के लगभग हैं और अमेरिका में 18 करोड़ के करीब। जाहिर है कि यूट्यूब और फेसबुक दोनों पर भारत पहले तथा अमेरिका दूसरे नंबर पर है। लेकिन बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। इन्स्टाग्राम में भी भारत पहले नंबर पर है जहां उसके 23 करोड़ यूज़र हैं जबकि अमेरिका के 16 करोड़। और व्हाट्सएप्प की तो बात ही छोड़ दीजिए। भारत फिर से पहले नंबर पर है जहां उसके उपभोक्ताओं की संख्या लगभग 49 करोड़ है। अमेरिका में हमसे एक चौथाई भी उपभोक्ता नहीं हैं जहां का आंकड़ा है 11 करोड़। ध्यान रहे, ये आंकड़े स्टेटिस्टा वेबसाइट के हैं जो दुनिया भर के डेटा का हिसाब-किताब रखती है। इन सोशल मीडिया मंचों पर हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं का कन्टेन्ट प्रमुखता से देखा जाता है तथा अंग्रेजी की तुलना में ज्यादा तेज रफ्तार से बढ़ भी रहा है। यूट्यूब की तरफ से जारी किए गए आंकड़े बताते हैं कि इस प्लेटफ़ॉर्म पर 93 फीसदी से ज्यादा दर्शक भारतीय भाषाओं में वीडियो देखना पसंद करते हैं।
हिंदी क्यों हो रही है मजबूत
हिंदी में तकनीकी विकास तो होना अवश्यंभावी है। इसके कुछ सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक कारण हैं तो कुछ तकनीकी भी। वैश्विक स्तर पर भारत का आर्थिक तथा भू-राजनैतिक दृष्टि से मजबूत होकर उभरना एक अहम कारण है। आज जो देश आर्थिक दृष्टि से मजबूत है और जहां पर बाजार है, वैश्विक परिदृश्य में उसका उतना ही महत्व है। भारत का सकल घरेलू उत्पाद लगातार 7-8 फीसदी की दर से बढ़ रहा है और दुनिया को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। भारत ब्रिटेन को पीछे छोड़कर पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। आर्थिक ठहराव से चिंतित वैश्विक कंपनियों के लिए भारत संभावनाओं का नया स्रोत बनकर उभरा है। उन्हें बाजार की तलाश है और हम बाजार उपलब्ध करा रहे हैं। ऐसे में हर क्षेत्र की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत की ओर आकर्षित हो रही हैं और तकनीकी कंपनियां इसका अपवाद नहीं हैं। सीधे शब्दों में कहें तो भारत के पास अब संख्याबल भी है और खर्च करने के लिए पैसा भी। पिछले वित्त वर्ष में आम भारतीय की प्रति व्यक्ति वार्षिक आय लगभग 18 प्रतिशत बढ़कर डेढ़ लाख रुपए हो गई है। सन 2000-2001 में यह महज 16,173 रुपए हुआ करती थी। यानी आम भारतीय की आय पिछले बीस साल में लगभग नौ गुना हो गई है। इधर शिक्षा का स्तर भी बेहतर हुआ है तथा तकनीकी जागरूकता भी बढ़ी है। आर्थिक क्षमता बढ़ने के साथ-साथ भारतीय नागरिकों की ज़रूरतें भी बढ़ी हैं और महत्वाकांक्षाएं भी। बेहतर जीवनशैली की ओर उनकी यात्रा बाजार में मांग पैदा कर रही है। यह मांग तमाम क्षेत्रों में है, जिनमें तकनीकी उत्पाद और सेवाएं भी शामिल हैं। बाजार मांग और आपूर्ति के नियम के आधार पर चलता है। मांग पैदा हो रही है तो नए उत्पाद भी आएंगे और चूंकि बाजार में ग्राहक ही राजा है इसलिए सप्लायर को ग्राहक की ज़रूरतों के लिहाज से ढलना पड़ेगा। ई-कॉमर्स कंपनियों का उदाहरण आपके सामने है जिन्हें देश के कोने-कोने तक लोगों के पास पहुंचने की जल्दी है और भारतीय भाषाएं उनकी अनिवार्यता बन गई हैं। किसी भी क्षेत्र की विदेशी कंपनियां, जो भारत में अपने उत्पाद ला रही हैं, वे हिंदी तथा दूसरी भाषाओं में सूचनाएं (कन्टेन्ट) तैयार कर रही हैं। लोकलाइजेशन का दौर है। राजनैतिक कारण भी हैं। सरकार गांव-गांव में अपनी सेवाओं को पहुंचाने के लिए इंटरनेट और मोबाइल को माध्यम बना रही है। बिना स्थानीय भाषा के यह संभव नहीं है इसलिए सरकारी वेब पोर्टल, मोबाइल एप्लीकेशन और ऑनलाइन सेवाएं बहुभाषी हो रही हैं। जहां तक तकनीकी पहलुओं का सवाल है- रिलायंस जियो और उसके प्रतिद्वंद्वियों ने गांव-गांव में मोबाइल के जरिए इंटरनेट पहुंचा दिया है और हर व्यक्ति कन्टेन्ट का उपभोग करने की स्थिति में है। यह कन्टेन्ट भारतीय भाषाओं में चाहिए क्योंकि हर दस में से नौ नए मोबाइल उपभोक्ता भारतीय भाषाओं की पृष्ठभूमि से आते हैं। यूनिकोड नाम की एनकोडिंग प्रणाली ने भारतीय भाषाओं में कंप्यूटर, मोबाइल, इंटरनेट आदि पर काम करना सरल और सुगम बना दिया है। अब भाषायी सॉफ़्टवेयर, वेबसाइटें और एप बनाना बहुत जटिल काम नहीं रहा। लगभग हर तरह का सॉफ़्टवेयर आज हिंदी में काम करता है। पहले हिंदी के लिए अलग से सॉफ़्टवेयर बनाने पड़ते थे लेकिन यूनिकोड के आने के बाद इसकी ज़रूरत नहीं रही। माइक्रोसॉफ़्ट वर्ड, एक्सेल, पावरप्वाइंट से लेकर फोटोशॉप और कोरल ड्रॉ तक में हिंदी चलती हैं। चीजें सुगम हो गई हैं तो प्रयोग भी बढ़ रहा है।
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