केंद्र सरकार ने वैश्विक संकट के मद्देनजर गेहूं का निर्यात बढ़ाने का जो लक्ष्य तय किया था, अब उस पर रोक का अप्रत्याशित निर्णय लेकर सरकार ने सभी को चौंकाया है। निस्संदेह यह फैसला वक्त की जरूरत बन गया था। देश में पेट्रोलियम पदार्थों व खाद्य पदार्थों की अप्रत्याशित मुद्रास्फीति के चलते यदि आम आदमी की मौलिक आवश्यकता आटा और महंगा होता तो निस्संदेह सरकार को जनाक्रोश का सामना करना पड़ सकता था। जो सदी के पहले दशक में गेहूं के निर्यात और उससे उत्पन्न संकट के बाद महंगे आयात की याद ताजा करा देता। निस्संदेह, प्रतिबंध का फैसला घरेलू आवश्यकताओं और उपभोक्ताओं के हितों को ध्यान में रखते हुए लिया गया। दरअसल, मौसम की मार के चलते इस वर्ष गेहूं का उत्पादन लक्ष्य के अनुरूप नहीं हो सका। वहीं बड़ी कंपनियां व व्यापारी किसानों के खेतों से ही एमएसपी से ज्यादा मूल्य पर गेहूं की खरीद करने लगे थे, जिसके चलते इस बार पिछले डेढ़ दशक में सबसे कम खरीद सरकारी एजेंसियों द्वारा की गई है। ऐसे वक्त में जब केंद्र सरकार ने कोरोना संकट से उबरते देश में अस्सी करोड़ लोगों को सितंबर तक मुफ्त गेहूं उपलब्ध कराने का वादा किया हुआ है तो फिलहाल के हालात में उसे पूरा करने का लक्ष्य चुनौती बन सकता था। इसके अलावा सरकार को सार्वजनिक वितरण प्रणाली के लिये भी गेहूं उपलब्ध कराना होता है। ऐसे वक्त में जब खाद्य पदार्थों की खुदरा व थोक कीमतें नई ऊंचाइयां छू रही हैं, निर्यात के चलते आटा और महंगा होता तो यह निर्यात जारी रखना राजनीतिक रूप से आत्मघाती भी साबित हो सकता था। प्याज संकट के चलते राजनीतिक बदलाव के प्रसंगों को राजनेता भूले नहीं होंगे। वैसे भी खाद्य सुरक्षा की जवाबदेही के चलते सरकार का यह फैसला वक्त की जरूरत कहा जा सकता है। हालांकि, इस प्रतिबंध के चलते भारत का वह संकल्प पूरा नहीं हो सकता, जिसमें रूस-यूक्रेन संकट से उत्पन्न खाद्यान्न संकट के बीच दुनिया की सेवा की बात कही गई थी, जिसके चलते कुछ देशों ने भारत के फैसले की आलोचना भी की है।
निस्संदेह, वैश्विक प्रतिबद्धता अपनी जगह है लेकिन घरेलू खाद्य सुरक्षा हर सरकार की प्राथमिकता है। कहा जा रहा है कि इस फैसले से किसानों को मिलने वाला अधिक दाम अब न मिल सकेगा और उसे गेहूं न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बेचना पड़ेगा। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संकट में अवसर तलाशने वाले जमाखोरों ने घरेलू बाजार में कालाबाजारी शुरू कर दी थी। आटे के दाम में तेरह फीसदी की वृद्धि हुई, जिससे तमाम बेकरी उत्पाद भी महंगे हो गये। ऐसे में सरकार को ऐसे लोगों पर निगरानी व कार्रवाई का तंत्र विकसित करना होगा जो कालाबाजारी व जमाखोरी से खाद्यान्नों की कीमतों से खेलते हैं। बहरहाल, भले ही केंद्र ने घरेलू जरूरतों के मद्देनजर कीमतों को संतुलित करने के लिये निर्यात पर रोक लगाई है, लेकिन स्पष्ट किया गया है कि सरकार जरूरतमंद देशों को गेहूं के निर्यात की अनुमति दे सकती है। हालांकि, अभी भी जारी किये गये लेटर ऑफ क्रेडिट के लिये गेहूं का निर्यात होता रहेगा। ऐसे में कह सकते हैं कि जरूरी खाद्य वस्तुओं की कीमतों पर नियंत्रण के नजरिये से निर्यात प्रतिबंध वक्त का फैसला है। यह इसलिए भी जरूरी था कि यदि रूस-यूक्रेन युद्ध लंबा खिंचता और भारतीय निर्यात जारी रहता है और परिस्थितिवश भारत को गेहूं आयात करना पड़ता तो वह मौजूदा संकट में किसी भी कीमत पर उपलब्ध नहीं होता। वह भी तब जब इस बार सरकारी एजेंसियों ने निर्यात के चलते पिछले डेढ़ दशक में सबसे कम गेहूं की खरीद की है। वैसे भी निजी हाथों में गेहूं आपूर्ति का संतुलन जाना आम आदमी के हित में नहीं कहा जा सकता। ऐसे में निर्यात पर रोक का फैसला संकट में अवसर तलाशने के लिये तैयार जमाखोर व मुनाफाखोरों के मंसूबों पर पानी फेरने के लिये जरूरी कदम है। खाद्य सुरक्षा कानून के चलते ऐसा करना सरकार की जवाबदेही भी है?