विभिन्न राज्यों में कचरा निस्तारण में कोताही किसी से छिपी नहीं है। इससे कई तरह के स्वास्थ्य संकट भी पैदा होते हैं। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल यानी एनजीटी राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में म्यूनिसिपल सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स 2016 और अन्य पर्यावरणीय मानदंडों के अनुपालन की लगातार निगरानी करता रहा है। एनजीटी की इस निगरानी के दौरान कचरा प्रदूषण निस्तारण के मापदंडों में गंभीर खामियां सामने आई हैं। मानकों के अनुरूप कचरे के निस्तारण में राज्यों की विफलता के बाद एनजीटी ने कई राज्यों पर भारी भरकम जुर्माना लगाया है। इस चूक के चलते अब पंजाब पर 2,180 करोड़ का जुर्माना लगाया गया है। उल्लेखनीय है कि इससे पहले महाराष्ट्र पर बारह हजार करोड़ रुपये तथा पश्चिम बंगाल पर साढ़े तीन हजार करोड़ रुपये तथा राजस्थान पर तीन हजार करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया जा चुका है। ठोस व तरल अपशिष्ट उपचार में विफलता के बाद इस राशि को पर्यावरणीय मुआवजे के रूप में भुगतान का आदेश दिया गया था। निस्संदेह, यदि देश के अन्य राज्यों की कारगुजारियों का भी मूल्यांकन किया जायेगा, तो कमोबेश उनकी स्थिति भी शायद ही बहुत बेहतर हो। दरअसल, इस जुर्माने का मकसद राज्य सरकारों से यह अपेक्षा करना होता है कि वे यह राशि अलग-अलग खातों में जमा करें। ताकि इस धन का उपयोग गलतियों को सुधारने के उपायों के लिये किया जा सके। हकीकत यह है कि विभिन्न सरकारें और स्थानीय निकाय कचरा निस्तारण को लेकर चलताऊ रवैया अपनाते रहते हैं। खासकर स्थानीय निकायों की काहिली इस समस्या को और जटिल बना रही है। पूरे देश को इंदौर के सामूहिक प्रयासों को एक प्रेरक उदाहरण के रूप में देखना चाहिए, जिसके चलते यह शहर सफाई व कचरा निस्तारण के लिये सारे देश में लगातार अव्वल आ रहा है। इस लक्ष्य के लिये जहां तंत्र की दृढ़ इच्छाशक्ति की जरूरत है, वहीं जनभागीदारी भी इसमें निर्णायक भूमिका निभाती है।
दरअसल, राज्यों की ठोस व तरल अपशिष्ट प्रबंधन में लगातार लापरवाही के बाद ही एनजीटी यह आर्थिक दंड लगाने को बाध्य हुआ है। एनजीटी ने कचरा निस्तारण के बाबत आदेश जारी करने के बाद भी निस्तारण की तैयारी के लिये समय में पर्याप्त राहत दी थी। मसलन, इस बाबत आदेश जारी करने के बाद ठोस कचरे के निस्तारण हेतु आठ वर्ष व तरल कचरा निस्तारण के लिये पांच वर्ष की छूट भी दी थी। लेकिन इसके बावजूद राज्य सरकारों का तंत्र गंभीर नजर नहीं आया। कानूनी बाध्यताओं व निर्धारित समय सीमा खत्म होने पर भी वे नहीं चेते। दरअसल, उच्चतम न्यायालय के आदेशों, एनजीटी तथा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के निर्देशों का निर्धारित समय में अनुपालन न होने के बाद प्रदूषण के बदले भुगतान का सिद्धांत अपनाया गया जो एक जनवरी 2021 से लागू किया गया। यह सिद्धांत पर्यावरण को होने वाले नुकसान और लापरवाही बरतने वाले राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों पर नुकसान के उपचार की लागत के रूप में भुगतान के दायित्व के लिये बाध्य करता है। जिसका मकसद होता है कि न केवल पिछले नुकसान की क्षतिपूर्ति हो सके बल्कि भविष्य के लिये स्वच्छ वातावरण सुनिश्चित किया जा सके। निस्संदेह, यह एक जरूरी कदम है क्योंकि कचरे से होने वाले प्रदूषण से तमाम बीमारियां फैलती हैं। जिसका सीधा असर नागरिकों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। दरअसल जल और वायु प्रदूषण के निस्तारण के साथ ही कचरे व ई-कचरे के निपटान के लिये शासन-प्रशासन को जवाबदेह बनाने की जरूरत है। प्रशासन की इस चूक का खमियाजा आम नागरिकों को उठाना पड़ता है। वहीं दूसरी ओर गीले, सूखे व इलेक्ट्राॅनिक कचरे को अलग करने में नागरिक व उद्योग भी हरित दिशा-निर्देशों की धज्जियां उड़ाते नजर आते हैं, जिसने समस्या को गंभीर ही बनाया है। दरअसल, स्थिति में सुधार के लिये इस सुधारात्मक कार्रवाई के साथ स्थानीय निकायों, जिला व राज्य स्तर पर जवाबदेही हेतु सख्त निगरानी की जरूरत है। अब इस बात की जरूरत है कि तकनीक व मशीनों के जरिये तुरत-फुरत स्थितियों को नियंत्रित किया जाये। मशीनों के उपयोग के बाद मुक्त हुए सफाई कार्य से जुड़े तमाम पेशेवर लोगों को स्वच्छता के साथ सौंदर्यीकरण जैसे अतिरिक्त दायित्व दिये जायें।