संयुक्त राष्ट्र आम सभा व सुरक्षा परिषद में यूक्रेन पर रूसी हमले के खिलाफ लाये गये निंदा प्रस्तावों से अलग रहकर भारत ने जहां अपने दूरगामी हितों को ध्यान में रखा है, वहीं यूक्रेन की संप्रभुता की भी वकालत की है। बहुत संभव है कि कुछ लोग वक्त की संवेदनशीलता के चलते इस फैसले को लेकर सवाल खड़े करें, लेकिन इस फैसले से कूटनीतिक संतुलन बनाने की भी कवायद हुई। भले ही भारत ने निंदा प्रस्ताव का समर्थन न किया हो, मगर रूसी हमले की वकालत भी नहीं की है। भारत ने यूक्रेन की संप्रभुता व स्वतंत्रता का पुरजोर समर्थन किया। साथ ही भारत ने शांतिपूर्ण ढंग से बातचीत के विकल्प को प्राथमिकता दी है। यही बात भारतीय विदेश मंत्रालय व संयुक्त राष्ट्र में भारत के स्थायी प्रतिनिधि ने दोहराई है। देश में विपक्ष ने भी वैचारिक मतभेद के बावजूद इसका समर्थन किया है। निस्संदेह, युद्ध किसी विवाद का समाधान नहीं कहा जा सकता। विगत में भारत ने कभी किसी देश पर हमले की पहल नहीं की, युद्ध का विकल्प केवल अपनी सुरक्षा के अंतिम विकल्प के रूप में चुना है। कभी किसी भी स्वतंत्र राष्ट्र की संप्रभुता पर हमले को न्यायोचित नहीं ठहराया है। अपने पड़ोसियों से भी विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से सुलझाने का प्रयास किया। देश द्वारा कई दशकों तक अपनायी गई गुटनिरपेक्षता की नीति का भी यही आधार रहा है। यही नहीं दुनिया के कई देशों में शांति स्थापना में भारत की भूमिका निर्णायक रही है। यूक्रेन-रूस संघर्ष में भी भारत ने सभी पक्षों के नेताओं से बातचीत में विवाद के शांतिपूर्ण समाधान की बात कही है। जल्दी से जल्दी युद्ध विराम की जरूरत को बताते हुए प्रधानमंत्री ने कई देशों के राष्ट्रपतियों से बातचीत की है। यहां हमें राष्ट्रीय हितों के मद्देनजर इस बात का ध्यान रखना भी जरूरी था कि रूस हमारा एक भरोसेमंद साथी रहा है और दोनों देशों के रिश्ते दशकों तक गहरे रहे हैं। संकट के कई मौकों पर उसने भारत का साथ दिया है।
हमें सचेत रहना चाहिए कि चीन पिछले कुछ वर्षों से एलएसी पर जिस तरह अपने साम्राज्यवादी मंसूबों को अंजाम देता रहा है, उसके मंसूबों पर नकेल डालने के लिये रूस से भरोसे के रिश्ते बनाये रखना जरूरी है। इसलिये भी कि भारत की रक्षा जरूरतों की बड़ी निर्भरता रूस पर बनी हुई है। हाल ही में अचूक और उन्नत मिसाइल प्रतिरक्षा प्रणाली सौदे का सिरे चढ़ना इसकी मिसाल है। लेकिन ऐसे वक्त में जब यूक्रेन में बड़ा मानवीय संकट खड़ा हो गया है भारत अपने दायित्वों से विमुख नहीं हो सकता है। निस्संदेह, किसी देश पर हमला इतिहास को फिर से लिखने की निर्मम कोशिश ही कही जायेगी, उसे मानवता व किसी देश की संप्रभुता की दृष्टि से कतई तार्किक नहीं ठहराया जा सकता। ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ रूस ही इस विवाद का अकेला दोषी है। अमेरिका व पश्चिमी देशों की यूक्रेन को नेटो में शामिल करने की जिद भी कहीं न कहीं इस संघर्ष की मूल वजह रही है, जिसके चलते रूस को लगता था कि नेटो उसके दरवाजे पर आ सकता है। सोवियत संघ के विघटन के समय रूस को भरोसा दिया गया था कि सोवियत संघ से अलग हुए देशों को नेटो में शामिल करने को बाध्य नहीं किया जायेगा। लेकिन यूक्रेन के अलावा अधिकांश देशों को अमेरिका व पश्चिमी देशों ने नेटो में शामिल कर लिया, जिसके चलते रूस में बेचैनी होनी स्वाभाविक थी। इसके बावजूद युद्ध कभी भी शांति का विकल्प नहीं हो सकती। वह भी आज के उन्नत 21वीं सदी के विश्व में। वहीं ऐसे समय में जबकि दुनिया के देश करीब दो साल तक कोरोना महामारी से उबरकर जीवन सामान्य बनाने की कवायद में जुटे हैं। महामारी से जहां लाखों लोगों का जीवन खत्म हुआ, वहीं करोड़ों लोग गरीबी की दलदल में समा गये। रूस-यूक्रेन संघर्ष निस्संदेह मानवीय त्रासदियों में इजाफा ही करेगा। ऐसे में भारत को यूक्रेन की मानवीय मदद के लिये भी आगे आना चाहिए। वहीं रूस पर दबाव बनाकर युद्ध को समाप्त करने की पहल करनी चाहिए।