करीब साढ़े तीन दशक बाद देश की शिक्षा नीति में बदलाव राष्ट्रीय आकांक्षाओं व वक्त की जरूरतों को किस हद तक पूरा करेगा, यह इसके क्रियान्वयन के तौर-तरीकों पर निर्भर करेगा। मगर, एक बात तय है कि ग्लोबल आर्थिकी के दौर में रोजगारों के बदलते परिदृश्य के अनुरूप शिक्षा हम अपने नौनिहालों को नहीं दे पा रहे थे। निजी व सरकारी शिक्षा संस्थानों की शैक्षिक गुणवत्ता व संसाधनों के बीच की खाई सामाजिक असंतोष का कारण बन रही थी। बहरहाल, वर्ष 2014 के घोषणापत्र में शिक्षा नीति में बदलाव का उद्घोष करने वाली भाजपा को सरकार बनने के बाद, इसे अंतिम रूप देने में करीब छह साल लग गये, अब कोशिश हो कि इसके क्रियान्वयन में पारदर्शिता व तेजी लायी जाये। यह अच्छी बात है कि सरकार ने नये शैक्षिक ढांचे में जीडीपी का छह प्रतिशत खर्च करने का फैसला किया है जो अब तक 4.4 फीसदी था। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक के ढांचे में बदलाव व बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा देने जैसे बदलाव पहली नजर में सकारात्मक लगते हैं, लेकिन जरूरत इस बात की है कि नये पाठ्यक्रम के अनुसार शिक्षकों को प्रशिक्षित भी किया जाये और शिक्षण संस्थानों को पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध कराये जायें। निजी व सरकारी उच्च शिक्षा संस्थानों में एक तरह के मापदंड लागू करने और फीस को लेकर पारदर्शिता कायम करने की मंशा स्वागत योग्य है, बशर्ते क्रियान्वयन में गंभीरता दिखाई जाये। इसरो के पूर्व प्रमुख के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में विशेषज्ञों की समिति ने नई शिक्षा नीति का मसौदा तैयार किया है, जिसे बुधवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कैबिनेट ने मंजूरी दी। इसमें प्राइमरी से उच्च शिक्षा तक में बड़े बदलाव किये गये हैं। पांचवीं तक मातृभाषा व स्थानीय भाषा को पढ़ाई का माध्यम रखा गया है। विदेशी भाषाओं को दूसरे स्थान पर रखा गया है। निस्संदेह इससे बच्चों को मातृभाषा में शिक्षा की पारी शुरू करने में आसानी रहेगी।
नई शिक्षा नीति का सकारात्मक पहलू यह भी है कि छठी क्लास के बाद व्यावसायिक पाठ्यक्रम शुरू किये जाएंगे और इसके बाद उनकी इंटर्नशिप भी करवायी जायेगी। संगीत व कला से जुड़े विषयों को प्रोत्साहन दिया जायेगा। कानून व मेडिकल शिक्षा को छोड़कर उच्च शिक्षा के लिए भारत उच्च शिक्षा आयोग का गठन किया जायेगा। पहली बार मल्टीपल एंट्री और एग्जिट सिस्टम लागू किया जायेगा, जिसमें बीच में पढ़ाई छोड़ने वाले या कोर्स बीच में छोड़कर दूसरा कोर्स ज्वाइन कर सकते हैं। पहले साल के कोर्स के बाद उन्हें सर्टिफिकेट, दो साल के बाद डिप्लोमा और तीन साल के बाद डिग्री मिल सकेगी। यह सुखद है कि देश में शोध व अनुसंधान संस्कृति विकसित करने के लिए नेशनल रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना की जायेगी। कोरोना संकट के दौर में उत्पन्न विसंगतियों को देखते हुए ई-पाठ्यक्रम क्षेत्रीय भाषाओं में विकसित करने का निर्णय लिया गया है, जिसके लिए वर्चुअल लैब विकसित की जायेगी। साथ ही राष्ट्रीय शैक्षिक टेक्नोलॉजी फोरम बनाया जा रहा है। वहीं दूसरी ओर, सरकार ने नई शिक्षा नीति के तहत भारत में विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए दरवाजे भी खोल दिये हैं। निश्चित रूप से लाखों छात्रों के विदेश जाने पर खर्च होने वाली अरबों डॉलर की बचत होगी। साथ ही प्रतिभा पलायन को भी रोका जा सकेगा। बहरहाल, नई शिक्षा नीति शिक्षा की गुणवत्ता तथा कौशल विकास को बढ़ावा देने की दिशा में एक सकारात्मक कदम है। आवश्यकता इस बात की भी है कि नई जरूरतों के मुताबिक शिक्षकों को नवोन्मेषी बनाया जाये ताकि नये दौर की अावश्यकताओं की पूर्ति हो सके। हमारे युवा अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा के अनुरूप शिक्षित हो सकें। उनमें कौशल विकास व अनुसंधान की प्रवृत्ति का विकास हो सके। जरूरत सरकारी शिक्षा और निजी शिक्षा के बीच की खाई को पाटने की भी है। शिक्षा रोजगारन्मुखी हो। ये लक्ष्य शिक्षा नीति के क्रियान्वयन में समर्पण व सावधानी से ही हासिल किये जा सकेंगे। अन्यथा मानव संसाधन मंत्रालय का नाम शिक्षा मंत्रालय कर देने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा।