संसद के मानसून सत्र में शुरुआत से ही जैसी अप्रिय स्थिति देखने को मिल रही है वह सवाल पैदा करती है कि आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे देश के नीति-नियंता 75 साल में कितने परिपक्व, जवाबदेह व जिम्मेदार हो पाए हैं? महंगाई के मुद्दे तथा दैनिक उपभोग की वस्तुओं पर जीएसटी लगाने का विरोध कर रहे नेता न सरकार को सुन रहे हैं और न ही सरकार भी इसे गंभीरता से ले रही है। ऐसा लगता है कि देश के लिये कानून बनाने वाली बिरादरी कानून सम्मत तरीके से सदन की कार्यवाही चलाने में रुचि नहीं दिखा रही है। सत्ता पक्ष द्वारा कोरोना संकट से उबरते देश में आय संकुचन के बावजूद कुलांचे भरती महंगाई पर संवेदनशीलता न दिखाना आम आदमी को परेशान करता है। विपक्ष दैनिक उपभोग की आम वस्तुओं को जीएसटी के दायरे में लाने को आमजन के जले पर नमक छिड़कना बताता है। लगता है कि पक्ष-विपक्ष जनसरोकारों को तरजीह देने के बजाय अपने राजनीतिक निहितार्थों को तरजीह दे रहे हैं। दरअसल, जब से संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू हुआ है तब से गतिरोध व हो-हल्ले की प्रवृत्ति में तेजी आई है। लगता है विपक्ष संसद की कार्रवाई के जरिये अपने मतदाता को संबोधित कर रहा है। यही वजह है कि गतिरोध बढ़ने पर लोकसभा की कार्यवाही में बाधा डालने के लिये पहले चार सांसदों को और फिर मंगलवार को राज्यसभा के 19 विपक्षी सांसदों को एक सप्ताह के लिये निलंबित कर दिया गया। बुधवार को फिर राज्यसभा के उपसभापति ने आप के एक सांसद को निलंबित किया। दरअसल, सदन की कार्यवाही को निर्बाध रूप से चलाने के लिये लोकसभाध्यक्ष व राज्यसभा के सभापति को सांसदों को निलंबित करने का अधिकार होता है। देश के लोकतंत्र के इतिहास में सांसदों का सबसे बड़ा निलंबन वर्ष 1989 में हुआ था जब एक साथ लोकसभा के 63 सांसदों को निलंबित कर दिया गया था। दरअसल, ये सांसद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या की जांच करने वाले ठक्कर कमीशन की रिपोर्ट सदन में रखने की मांग कर रहे थे।
निस्संदेह, टकराव की यह राजनीति लोकतंत्र के हित में नहीं कही जा सकती। सदन की कार्यवाही को लेकर विशुद्ध राजनीति के बजाय लोकतंत्र व देश के सरोकारों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। लाखों लोग अपने प्रतिनिधियों को चुनकर संसद में भेजते हैं ताकि जनहित में कानून बनें और आम आदमी को राहत मिले। फिर सदन की कार्यवाही में आयकरदाताओं का करोड़ों रुपया खर्च होता है। ऐसे में सत्र के कई महत्वपूर्ण कार्य दिवसों का यूं ही व्यर्थ चले जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। जो दुनिया में सबसे बड़े लोकतंत्र की आकांक्षाओं के अनुरूप नहीं है। विडंबना ही है कि सत्तापक्ष व विपक्ष की ओर से संसद में जारी गतिरोध को टालने की गंभीर कोशिश नहीं होती। सत्ता पक्ष की ओर से टकराव टालने के लिये जो गंभीर पहल होनी चाहिए थी, वह भी होती नजर नहीं आती। संसद की गरिमा का तकाजा है कि सत्तापक्ष निरंकुश व्यवहार न करे। वह विपक्षी आवाज को ध्यान से सुने और सांसदों की शंकाओं का समाधान करे। नाराज विपक्ष को मनाने की भी सार्थक पहल होनी चाहिए। एक समय था कि संसद में तमाम धीर-गंभीर,विद्वान व ओजस्वी वक्ता हुआ करते थे। उनकी तार्किक बहस को आम जन ही नहीं, सांसद भी गंभीरता से सुनते थे। वे खूब तैयारी के साथ सदन में आते थे और मुखर होकर तार्किक बहस को निर्णायक स्तर तक ले जाने का प्रयास करते थे। एक बार वर्ष 1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने कश्मीर के मुद्दे पर यूएन में भारत का पक्ष रखने के लिये विपक्षी नेता अटल बिहारी वाजपेयी जैसे मुखर-प्रखर वक्ता को भेजा था। वहीं जब 1971 में भारत ने बांग्लादेश की आजादी में निर्णायक भूमिका निभाई तो अटल जी ने इंदिरा गांधी को दुर्गा की संज्ञा दी थी। काश, आज सदन में गतिरोध खत्म करने के लिये सत्तापक्ष और विपक्ष जिम्मेदार भूमिका का निर्वहन करते। यह लोकतंत्र की गरिमा के लिये वक्त का तकाजा भी है।