यह सुखद ही है कि जब देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है, देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद के लिये पहली बार आदिवासी महिला को सत्तारूढ़ दल द्वारा उम्मीदवार बनाया गया है। यदि कुछ असामान्य न हो तो वोटों के गणित के हिसाब से उनका राष्ट्रपति बनना तय है। निस्संदेह, ऐसे फैसलों के राजनीतिक निहितार्थ भी होते हैं लेकिन सदियों से वंचित रहे आदिवासी समाज को ऐसा प्रतिनिधित्व देना सराहनीय है। राजग गठबंधन के इस कदम से जहां देश में सामाजिक न्याय की प्रतिबद्धता का संदेश गया है वहीं विपक्ष के साझा उम्मीदवार का दावा भी कमजोर हुआ है। विपक्ष ने जैसे शरद पवार, फारूख अब्दुल्ला व गोपाल कृष्ण गांधी को विपक्ष की ओर से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाने की कोशिश की, उससे साफ लगता है कि विपक्षी एकता कमजोर है और नाम के चयन को लेकर गंभीर प्रयास नहीं किये। कालांतर पूर्व प्रशासक व राजनेता यशवंत सिन्हा के नाम पर सहमति बनी है लेकिन उनके जीत के समीकरण निस्संदेह कमजोर हैं। राजग की सधी चाल का यह नतीजा है कि मजबूत विपक्ष का हिस्सा रहने वाले ओडिशा के मुख्यमंत्री ने राजग प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू को न केवल समर्थन दिया है बल्कि ओडिशा के आदिवासी समाज से आने वाली इस प्रत्याशी को सभी दलों से राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर वोट देने की अपील भी की है। ताकि पहली बार ओडिशा की कोई बेटी देश के सर्वोच्च संवैधानिक पद पर आसीन हो सके। ऐसा ही दबाव देश के अन्य आदिवासी बहुल राज्यों मसलन झारखंड के राजनीतिक दलों पर भी होगा। निस्संदेह, ऐसी राजनीतिक परिस्थिति में यदि मुर्मू अगले माह होने वाले चुनाव में जीतती हैं तो वह आदिवासी समुदाय, ओडिशा मूल की पहली प्रतिनिधि और देश के शीर्ष संवैधानिक पद पर आने वाली दूसरी महिला बन जायेंगी। वाकई मुर्मू उन लोगों के लिये प्रेरणास्रोत बनेंगी जिन्होंने गरीबी के बीच बेहद कठिनाइयों का सामना किया है। इस बात का उल्लेख प्रधानमंत्री ने भी अपने ट्वीट के जरिये किया है।
हालांकि, के.आर. नारायणन, वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के बाद वे तीसरी दलित राष्ट्रपति होंगी, लेकिन आदिवासी समाज का वह पहला प्रतिनिधि चेहरा होंगी। वह समाज जिसने विकास से विस्थापन की बड़ी कीमत चुकाई है। ऐसा नहीं है कि उनके उत्थान के लिये देश में कानून नहीं बने, लेकिन वास्तविक धरातल पर उन्हें सामाजिक न्याय नहीं मिल सका। देश में आदिवासी समाज लंबे समय से उपेक्षित रहा है। वैसे भी द्रौपदी मुर्मू का जीवन संघर्ष हर भारतीय के लिये प्रेरणास्पद है। एक स्त्री के जीवन की ऐसी त्रासदी कि उसने पति व दो पुत्रों को खोने के बाद हिम्मत नहीं हारी और पढ़ -लिखकर अपनी मंजिल हासिल की। एक सामान्य सरकारी कर्मचारी, स्कूल शिक्षिका के रूप में जीविका जुटाने के बाद एक पार्षद के रूप में राजनीतिक जीवन की शुरुआत की। फिर दो बार विधायक बनीं और बीजद-भाजपा की सरकार में मंत्री बनीं। उनके राजनीतिक जीवन में झारखंड के राज्यपाल की पारी उल्लेखनीय रही है। लेकिन उसके बावजूद उनका जीवन सहज-सरल ही रहा है। हाल के दिनों में वायरल हुए वीडियो व अखबारों में सुर्खी बनी उनकी एक फोटो में वे एक मंदिर में सफाई करती नजर आ रही हैं। निस्संदेह उनकी सफलता से आदिवासी व महिला समाज को संबल मिलेगा। लेकिन जरूरी है कि यह सिर्फ प्रतीकात्मक महत्व का विषय ही न बन कर रह जाये। जमीनी हकीकत में भी सामाजिक न्याय की कवायद सिरे चढ़े। तभी यह देश के जनजाति समुदाय व भारतीय लोकतंत्र के लिये सार्थक सिद्ध होगा। जरूरी है कि देश के वंचित समुदाय को लेकर राजनीतिक चेतना का भी विकास हो, जिससे सामाजिक न्याय को हकीकत बनाया जा सके। इसके लिये जरूरी है कि इस वर्ग को लेकर सामाजिक सोच में भी बदलाव आये। लेकिन एक बात तो तय है कि उच्च संवैधानिक पदों पर समाज से अलग-थलग रहने वाले वर्ग को यदि प्रतिनिधित्व मिलता है तो बदलाव की नई राहें खुलती हैं। जरूरत इस बात की है कि देश का राजनीतिक नेतृत्व इसके प्रति संवेदनशील रहे। राजग ने मुर्मू को उम्मीदवार बनाकर यही संदेश देने की कोशिश भी की है।