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एसआईआर के सवाल

बूथ-स्तरीय अधिकारियों पर तनाव का असर
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निस्संदेह, किसी लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया पारदर्शी व निष्पक्ष होनी चाहिए। साथ ही मतदाताओं की विश्वसनीयता भी उतनी जरूरी है ताकि वाजिब वोट ही चुनाव प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका निभाए। इसी आलोक में नौ राज्यों व तीन केंद्रशासित प्रदेशों में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर प्रक्रिया को लेकर उठ रहे सवाल तार्किक समाधान मांगते हैं। इस प्रक्रिया में तुरत-फुरत की कार्यनीति के चलते कई राज्यों में अफरा-तफरी का आलम नजर आता है। जिसका दबाव जमीनी स्तर पर इस प्रक्रिया से जुड़े अधिकारियों पर पड़ रहा है। कई बूथ स्तरीय अधिकारी यानी बीएलओ बेहद तनाव में नजर आ रहे हैं। इनका कार्य मतदाता सूचियों को अपडेट करना है। पश्चिम बंगाल और कई अन्य राज्यों में कम समय में अधिक काम के दबाव के चलते कुछ बीएलओ के मरने व आत्महत्या करने के मामले सामने आए हैं। आरोप है कि उनके वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा ही नहीं बल्कि सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों द्वारा भी उन्हें परेशान किए जाने का आरोप है। हालांकि, इस अव्यवस्था के चलते ही चुनाव आयोग ने अब एसआईआर के कार्यक्रम को एक सप्ताह के लिए और बढ़ा दिया है। लेकिन कहना कठिन है कि इस कदम से बीएलओ का तनाव कम करने या विभिन्न हितधारकों की आशंकाओं को दूर करने में कोई खास मदद मिल सकेगी। कहा जा रहा है कि एक माह पहले शुरू हुई राष्ट्रव्यापी एसआईआर प्रक्रिया में कई तरह की बाधाएं आ रही हैं। इस प्रक्रिया में करीब 51 करोड़ मतदाता शामिल हैं, जो तकरीबन भारतीय आबादी का एक-तिहाई से भी ज्यादा। उनकी शिनाख्त से जुड़ी जानकारी को एक निश्चित समय सीमा में प्रमाणित कर पाना आसान नहीं है। कहा जा रहा है कि निर्धारित समय-सीमा व्यावहारिक नहीं है। तीन महीने की अवधि में गणना प्रपत्रों का वितरण, उसके बाद मसौदा मतदाता सूची का प्रकाशन और फिर अंतिम मतदाता सूची जारी करना आसान काम नहीं है। बहुत तेजी से काम को अंजाम देने का जिम्मा अधिकारियों पर अतिरिक्त दबाव बना रहा है।

निस्संदेह, स्वतंत्र-निष्पक्ष चुनावों हेतु मतदाता सूचियों का शुद्धीकरण एक अनिवार्य शर्त है। लेकिन महत्वपूर्ण काम को जल्दबाजी में नहीं किया जाना चाहिए। मतदाता को यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त समय मिले ताकि उनके नाम सूचियों में सही ढंग से दर्ज हो सकें। यही बात बीएलओ के लिए भी लागू होती है, ताकि वे अनुपस्थित, स्थानांतरित, मृत या दोहराव वाले मतदाताओं का डेटा संकलित करने के लिए बूथ-स्तरीय एजेंटों के साथ मिलकर सुचारु रूप से काम कर सकें। यदि एसआईआर की प्रक्रिया किसी विवाद में उलझी रहती है तो इस अभियान का उद्देश्य ही विफल हो सकता है। बिहार की एसआईआर प्रक्रिया के घटनाक्रमों से मिले सबक को अन्य राज्यों में इस प्रक्रिया के दौरान याद रखा जाना चाहिए। निस्संदेह, स्तरहीन व संदिग्ध एसआईआर हमारे चुनावी लोकतंत्र की विश्वसनीयता को ठेस पहुंचा सकता है। उल्लेखनीय है कि विशेष गहन पुनरीक्षण की यह प्रक्रिया मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात, केरल, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, गोवा, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों तथा अंडमान-निकोबार, लक्ष्यद्वीप व पुडुचेरी केंद्रशासित प्रदेशों में जारी है। उल्लेखनीय है कि जहां बीएलओ पर कार्यदबाव व समय सीमा को लेकर सवाल उठ रहे हैं, वहीं कई राज्यों में बीएलओ के खिलाफ मामले दर्ज करने के भी आरोप लगे हैं। इन अधिकारियों का आरोप है कि अतिरिक्त कार्य-दबाव का उनके शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल रहा है। वहीं चुनाव आयोग का आरोप है कि कुछ अधिकारियों की लापरवाही के चलते प्रक्रिया की निष्पक्षता व पारदर्शिता प्रभावित हो रही है। वैसे यदि वास्तव में बीएलओ पर अतिरिक्त दबाव है तो चुनाव आयोग को इस मुद्दे का समाधान संवेदनशील ढंग से करना चाहिए। वहीं दूसरी ओर मतदाता पहचान से जुड़े प्रमाणपत्रों को जुटाने में आ रही परेशानियों के चलते लोग भी बीएलओ पर दबाव बनाते हैं। कई राज्यों में बीएलओ संगठनों ने प्रदर्शन करके अधिक समय दिए जाने की मांग भी की है। कुछ लोग चुनाव आयोग की जल्दबाजी को लेकर सवाल उठा रहे हैं। उनका कहना है कि दो-तीन महीने का काम एक माह में पूरा नहीं किया जा सकता। वे समय पर दायित्व न निभा पाने वाले बीएलओ के खिलाफ कानूनी कार्रवाई को अनुचित बताते हैं।

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