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महंगाई में कमी

मगर घरेलू बजट पर अभी भी दबाव

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सरकारी आंकड़े हमेशा सार्वजनिक विमर्श में रहते हैं। राहत और तरक्की के दावे विभिन्न सरकारों के दौर में अकसर सामने आते हैं। टकसाली सत्य यही है कि राहत व तरक्की का जमीनी प्रभाव भी नजर आना चाहिए। मसलन, जिस जनहित की बात की जा रही है, उसका अहसास भी आमजन को होना चाहिए। प्रथम दृष्टया यह राहतकारी माना जाना चाहिए कि देश में खुदरा महंगाई की दर में गिरावट दर्ज की गई है। बताया जा रहा है कि अक्तूबर में देश की मुद्रास्फीति की दर घटकर 0.25 रह गई है। यह स्थिति साल 2013 के बाद से सबसे कम बताई जा रही है। जाहिर है सरकार ने इसे अपनी बड़ी उपलब्धि माना है। सरकार का दावा है कि मुद्रास्फीति में यह बड़ी गिरावट कीमतों पर मजबूत नियंत्रण और कुशल वित्तीय प्रबंधन को ही दर्शाती है। लेकिन वहीं दूसरी ओर आम परिवारों के लिये इस राहत का अहसास करना इतना भी आसान नहीं है। दरअसल, मुद्रास्फीति में इस गिरावट में मुख्य रूप से खाद्य पदार्थों की कम कीमतों की भूमिका देखी जा रही है। वहीं दूसरी ओर हाल ही में की गई जीएसटी दरों में कटौती का प्रभाव भी बताया जा रहा है। जिसके चलते उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में गिरावट आई है। वहीं दूसरी ओर मुद्रास्फीति में यह तीव्र गिरावट पिछले साल की ऊंची कीमतों के आधार प्रभाव को भी दर्शाती है, जो शायद लंबे समय तक न रहे। प्रथम दृष्टया भले ही यह प्रभावशाली लगे, लेकिन कई लोग अभी भी उच्च घरेलू खर्चों का दबाव महसूस कर रहे हैं। दूध, दालों और सब्जियों जैसी रोजमर्रा की वस्तुओं की कीमतों में अभी भी उतार-चढ़ाव देखा जा रहा है। जिससे लोगों का पारिवारिक बजट प्रभावित हो रहा है। इसलिए, जहां समग्र मुद्रास्फीति दर में गिरावट आई है, वहीं आम लोगों के लिये व्यावहारिक जीवन यापन की लागत में उसी तरह की गिरावट महसूस नहीं की जा रही है। वैसे देखा जाए तो भारतीय रिजर्व बैंक यानी आरबीआई के लिये यह स्थिति राहत और चुनौती दोनों ही लेकर आ रही है।

दरअसल, ध्यान देने योग्य बात यह है कि मुख्य मुद्रास्फीति, जिसमें खाद्य और ईंधन शामिल नहीं हैं, ऊंची बनी हुई है। जो यह भी दर्शाती है कि मूल्य दबाव पूरी तरह से कम नहीं हुआ है। ऐसे में फुटकर मुद्रास्फीति इतनी कम होने के कारण उद्योग जगत की तरफ से दलील दी जा सकती है कि भारतीय रिजर्व बैंक दिसंबर की अपनी बैठक में उधार लेने और खर्च को प्रोत्साहित करने के लिये बैंक ब्याज दरों में कटौती पर विचार करे। लेकिन केंद्रीय बैंक को इस दिशा में सावधान भी रहना होगा। यदि केंद्रीय बैंक इस दिशा में कोई कदम उठाता है तो मुद्रास्फीति फिर से बढ़ भी सकती है। खासकर, अगर वैश्विक तेल की कीमतों में कोई अप्रत्याशित उछाल आ जाता है। वहीं दूसरी ओर यदि वैश्विक अनिश्चितता के माहौल में रुपया कुछ कमजोर होता है। वैसे देखा जाए तो इस दौरान, मुद्रास्फीति में गिरावट का बेहतर ढंग से उपयोग मांग बढ़ाने, आय बढ़ाने और खाद्य कीमतों को स्थिर बनाने में भी किया जा सकता है। इसमें दो राय नहीं कि किसी भी देश में मुद्रास्फीति की कम दर एक छोटी अवधि में विकास को पुनर्जीवित करने में मदद भी कर सकती है। लेकिन इसकी शर्त यही है कि लापरवाही से सरकारी खर्च न बढ़ाया जाए या कोई खराब योजना का क्रियान्वयन न हो। ऐसे में आंकड़े तो दिखा सकते हैं कि कीमतें नियंत्रण में हैं, लेकिन लोगों के अनुभव कुछ और ही कहानी बयां कर सकते हैं। देश में सच्ची प्रगति तभी मानी जा सकती है, जब राहत हर घर तक पहुंचेगी। लेकिन जरूरत इस बात की है कि राहत सिर्फ सरकारी आकंड़ों में ही नजर न आए। यह भी हकीकत है कि कीमतों का संतुलन मांग व आपूर्ति के संतुलन पर निर्भर करता है। जिसकी ओर भी सत्ताधीशों को ध्यान देने की जरूरत होती है। निस्संदेह, ऐसे में खुदरा महंगाई में गिरावट सुखद ही है, लेकिन जरूरत इस बात की भी कि यह राहत आम आदमी को भी महसूस होनी चाहिए।

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