अमृतसर में सीमा सुरक्षा बल के एक शिविर में एक जवान द्वारा चार साथियों की हत्या के बाद आत्महत्या करने की घटना विचलित करती है। इससे पहले पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में बीएसएफ के एक जवान ने अपने साथी की हत्या करने के बाद खुद को गोली मार ली थी। इसी तरह बीते साल छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में सीआरपीएफ के चार जवानों की एक जवान ने गोली मारकर हत्या कर दी थी। ये तमाम घटनाएं न केवल हमें परेशान करती हैं बल्कि अर्द्धसैनिक बलों के जवानों के मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों को प्रभावी ढंग से संबोधित करने की जरूरत बताती हैं। दरअसल, नये जमाने के पढ़े-लिखे जवान अपनी कार्य परिस्थितियों से सामंजस्य स्थापित नहीं कर पा रहे हैं। वे तनाव, अवसाद व मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मामलों से संयत ढंग से नहीं निबट पा रहे हैं। ऐसे में इस समस्या से निजात के लिये उठाये गये कदमों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन भी जरूरी हो जाता है। दरअसल, वर्ष 2021 में घटी घटना के बाद केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स ने संगठन के अधिकारियों को सलाह दी है कि जवानों के मानसिक तनाव की संवेदनशील ढंग से निगरानी की जाये। गंभीर चुनौती यह है कि सीआरपीएफ में सहकर्मियों के घात के 13 मामलों में वर्ष 2018 के बाद कम से कम 18 जवानों की जान जा चुकी है। दरअसल, डिफेंस इंस्टीट्यूट ऑफ साइकोलॉजिकल रिसर्च ने जवानों के मध्य पैदा होने वाले तनाव के कारकों का पता लगाने के लिये कई अध्ययन किये हैं। उसने इस समस्या के निदान के लिये कई सिफारिशें पेश भी कीं जिसमें जवानों को दी जाने वाली छुट्टी की प्रक्रिया को युक्तिसंगत बनाने, काम के दबाव को कम करने, एक जगह तैनाती के कार्यकाल में कमी, वेतन-भत्तों व रहने की स्थिति में सुधार, अधिकारियों व जवानों के बीच सौहार्दपूर्ण संबंध बनाने, तनाव प्रबंधन तथा मनोवैज्ञानिक परामर्श पर प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने की जरूरत पर बल दिया गया।
भविष्य में इस तरह की आत्मघात-प्रतिघात की घटनाओं में वृद्धि न हो, जवानों के मध्य मनोरंजक गतिविधियों को बढ़ाने पर भी बल दिया गया। इसके साथ ही केंद्र सरकार ने योग व ध्यान की कक्षाएं लगाने पर बल दिया है। जवानों के कल्याण से जुड़ी बैठकों का निरंतर आयोजन तथा मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मामलों के निपटारे के लिये जवानों हेतु हेल्पलाइन शुरू करने को कहा गया । कुल मिलाकर अर्द्धसैनिक बलों के लिये ऐसा स्वस्थ वातावरण बनाने पर बल दिया गया कि जिसमें वे तनावमुक्त होकर अपने दायित्वों का निर्वहन कर सकें। हालांकि, इन उपायों के अनुपालन पर लगातार बल दिया जाता रहा है लेकिन इस बात का मूल्यांकन जरूरी हो जाता है कि जमीन पर ये उपाय कितने प्रभावी हैं। निस्संदेह, जिन कठिन परिस्थितियों में ये जवान काम करते हैं, विभागीय जटिलताएं इन्हें हताश करती हैं। यदि हम समस्या का समय रहते मनोवैज्ञानिक उपाय करें, तो इस तरह की हिंसा की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है। साथ ही वे विषम परिस्थितियों में भी उत्साहपूर्वक अपनी ड्यूटी को अंजाम दे सकते हैं। दरअसल, जवानों की समस्या को संवेदनशील ढंग से सुना जाना चाहिए। बातचीत के जरिये तनाव कम करें। जो अधिकारी अपने अधीनस्थों के उत्पीड़न व रूखा व्यवहार करने में लिप्त रहते हैं, उन्हें सुधरने के लिये कड़ी चेतावनी दी जानी चाहिए। यदि वे इस दिशा में ठोस पहल नहीं करते तो उनके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई शुरू की जानी चाहिए। अनुकरणीय कार्रवाई समस्या के निवारक के रूप में कार्य करेगी। तभी सभी स्तरों पर जवान व अधिकारी सामंजस्य के साथ काम करेंगे। सेवानिवृत्त पैरामिलिट्री बल कल्याण संगठन के अनुसार पिछले एक दशक में केंद्रीय अर्द्धसैनिक बलों में इक्कासी हजार जवानों ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली है। वहीं वर्ष 2011-20 के बीच करीब सोलह हजार जवानों ने अपनी नौकरी से त्यागपत्र दिया। जाहिर है जटिल इलाकों में तैनाती, परिवार से दूरी, समय पर अवकाश न मिलना, अधिकारियों का सख्त व्यवहार, आपदाओं में तैनाती से जवान लगातार शारीरिक- मानसिक रूप से थक जाते हैं। इन समस्याओं के समाधान से ही जवानों की हिंसक प्रतिक्रिया पर लगाम लगायी जा सकती है।