वंदे मातरम का उद्घोष
यह सुखद ही है कि कृतज्ञ राष्ट्र देश के स्वतंत्रता सेनानियों में ओज का संचरण करने वाले गीत वंदे मातरम के सृजन के डेढ़ सौ साल पूरे होने को एक उत्सव की तरह मना रहा है। स्वतंत्रता के लिये संघर्षरत करोड़ों भारतीयों में इस गीत ने आजादी का जज्बा भरा था। लाखों स्वतंत्रता सेनानी इस गीत से प्रेरित होकर स्वतंत्रता संग्राम में सर्वस्व अर्पित करने को तत्पर हो जाते थे। इस पावन वेला में देश के विभिन्न भागों में अनेक कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं। सही मायनों में यह अवसर राष्ट्र के स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को याद करने का भी है। इस गीत की सर्वस्वीकार्यता का आलम ये था कि भारत आने से पहले दक्षिण अफ्रीका में महात्मा गांधी ने वंदे मातरम को राष्ट्रीय गान की दृष्टि से देखा था। इसी आलोक में वंदे मातरम के डेढ़ सौ साल पूरे होने पर लोकसभा में इस पर चर्चा का शुरू होना सुखद ही है। संसद में प्रधानमंत्री ने कहा भी कि जब इस गीत के सृजन के पचास साल पूरे हुए तो देश परतंत्र था। जब इसके सौ साल पूरे हुए तो देश आपातकाल के दौर से गुजर रहा था, फलत: उस दौर में इस गीत को जनता व स्वतंत्रता सेनानियों का सकारात्मक प्रतिसाद नहीं मिला। निस्संदेह,बंकिम चंद्र चटर्जी की इस रचना ने बंगाल में क्रांतिकारियों को गहरे तक प्रेरित किया और स्वतंत्रता संग्राम को गति देने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। हालांकि, विपक्ष इसे सुर्खियों में लाने के फैसले के राजनीतिक निहितार्थों की बात कर रहा है। वे इसके समय को लेकर प्रश्न उठा रहे हैं। अविभाजित बंगाल की पृष्ठभूमि में जन्मे इस ओज के गीत को बंगाली समाज ने अपनी अस्मिता से जोड़कर देखा। खासकर बंगाल विभाजन के बाद इसे बंगाल की अस्मिता पर फिरंगियों के प्रहार के दौर में एक मरहम के तौर पर देखा। निस्संदेह, देश ऐसे स्मरण उत्सव का हकदार है, मगर वे चुनावी नजरियों से मुक्त हों।
विपक्ष की दलील है कि जब पश्चिम बंगाल एक महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव की ओर बढ़ रहा है तो इस गीत के प्रसंगवश राजनीतिक लाभ-हानि के तर्क गढ़े जा रहे हैं। संसद में प्रधानमंत्री के संबोधन में वंदे मातरम को एकता के सूत्रधार के रूप में सराहा गया। लेकिन इसके राजनीतिक निहितार्थों पर भी चर्चा हुई। दरअसल, उन्होंने जब भी कांग्रेस की आजादी से पहले और बाद की नीतियों को कटघरे में खड़ा किया या फिर ऐतिहासिक विवादों का नये सिरे से जिक्र किया, तो विपक्ष ने उसे निशाने पर लिया। विपक्षी दलील है कि राष्ट्रीय गीत का सम्मान करने की कवायद में वैचारिक विभाजन को हवा दी जा रही है। कहा गया कि पश्चिम बंगाल, जहां इस गीत का जन्म हुआ, वहां की सांस्कृतिक पहचान राजनीति से जुड़ी रही है। वंदे मातरम एक भावनात्मक प्रतीक है और इसीलिए एक रणनीतिक प्रतीक भी। दरअसल, विपक्ष की नाराजगी राजग सरकार की उस प्रवृत्ति को लेकर है जिसमें वह सांस्कृतिक प्रतीकों को राजनीतिक अखाड़े में बदल रही है। उन्हें आशंका है कि साझी विरासत पर चिंतन के लिये आयोजित विमर्श का उपयोग चुनावी लाभ अर्जित करने के लिये किए जाने का खतरा है। पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस अपनी जड़ें जमाए हुए है, फिर भी उसे सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ रहा है। संसद में राष्ट्रीय गीत पर चर्चा का ममता बनर्जी द्वारा समर्थन किया जाना दर्शाता है कि वह इस मुद्दे को छोड़ने का इरादा नहीं रखती हैं। विडंबना ही है कि लाखों स्वतंत्रता सेनानियों में ओज भरने वाले गीत के विमर्श में चिंतन की गंभीरता प्रभावित हुई है। निश्चित रूप से पश्चिम बंगाल आज बेरोजगारी, पलायन और राजनीतिक हिंसा से जूझ रहा है। इसमें दो राय नहीं कि हमारा सांस्कृतिक गौरव आवश्यक है, लेकिन यह सुशासन का विकल्प नहीं हो सकता। इस ओज के गीत के 150 साल पूरे होने पर, इसे एकता को मजबूत करने और राष्ट्रवाद को बहुलता से स्वीकार करने के अवसर के रूप में होना चाहिए था। लेकिन इसके बजाय, इस बहस के ध्रुवीकृत माहौल में बदलने के विवाद के पैदा होने की चिंता है। सही मायनों में देश के नेतृत्व का इतिहास का उपयोग राष्ट्र को एकजुट करने वाला होना चाहिए।
