व्यक्ति व सरकार की सजगता जरूरी
मैसेजिंग एप व्हाट्सएप द्वारा पॉलिसी अपडेट के नाम पर की गई कवायद से मुफ्त में सेवाएं उपलब्ध कराने के असली मंसूबे समझ में आ जाने चाहिए। हालांकि, व्यापक विरोध तथा लोगों द्वारा इसके विकल्प तलाशने से कारोबार में आई गिरावट के बाद भले ही कंपनी ने अपने मंसूबे कुछ समय के लिए टाल दिये हों, लेकिन हमें इस खेल की हकीकत समझ में आ जानी चाहिए। यह याद रखना चाहिए कि बाजार में यदि कुछ मुफ्त मिल रहा है तो उसकी बड़ी कीमत हमें चुकानी होती है। मुफ्त में चंदन घिसने के दिन अब नहीं रहे। यानी मुफ्त के लिए हम बाजार के उत्पाद बन जाते हैं और फिर कंपनियां हमारी जानकारी और डेटा को साझा करके बड़ा मुनाफा कमाती हैं। दरअसल, फेसबुक द्वारा व्हाट्सएप को खरीदने के बाद दावा किया गया था कि व्हाट्सएप के उपभोक्ताओं का डेटा साझा नहीं किया जायेगा। लेकिन कुछ वर्षों बाद फेसबुक ने अपने बयान से हटते हुए संस्थागत डेटा साझा करना शुरू कर दिया। अब निजी डेटा साझा करने की तैयारी की जा रही है। अमेरिका की ये नामी कंपनियां अपने कारोबार को विस्तार देने के लिये तमाम ऐसे हथकंडे अपना रही हैं। जहां यूरोप व अन्य विकसित देशों में निजता से जुड़े सख्त कानून लागू हैं, वहां इन कंपनियों को खेलना आसान नहीं होता। वहां इस बाबत सख्त जुर्माने के प्रावधान हैं, जिसका अतिक्रमण करने से ये कंपनियां कतराती हैं। लेकिन विडंबना यह है कि भारत में सोशल मीडिया से जुड़ी ऐसी कंपनियों पर नकेल कसने और निजता का संरक्षण करने वाला कानून अभी अस्तित्व में नहीं आया है। यही वजह है कि यूरोपीय देशों के व्हाट्सएप यूजरों और भारतीय यूजरों के लिये सेवा शर्तों में फर्क हैं, जिसके चलते लोगों में अधिक गुस्सा देखा गया है। नागरिकों की निजता की जानकारी से खिलवाड़ न हो पाये इसके लिये सरकार को सख्त कानून बनाने चाहिए।
दरअसल, इंटरनेट के युग में निजता की बात करने के कई तरह के अंतर्विरोध सामने आ रहे हैं। कहना मुश्किल है कि कोई जानकारी इंटरनेट पर आने के बाद क्या निजी रह सकती है? इंटरनेट के मायाजाल के तले देश-विदेश में जिस तरह के ठगी के खेल हो रहे हैं, उससे बचना कठिन लगता है। दरअसल, आज व्हाट्सएप जिन शर्तों को प्रयोक्ताओं पर थोपना चाहता है यानी आपकी स्थिति, व्यक्तिगत और आर्थिक जानकारियां साझा करने का जो अधिकार चाह रहा है, उनका उपयोग गूगल व अन्य कंपनियां पहले से ही कर रही हैं और हर साल अरबों रुपये का मुनाफा कमा रही हैं। गूगल को आपकी स्थिति, अभिरुचियों, कारोबार व आर्थिक लेनदेन की पूरी जानकारी होती है। यह कहना कठिन है कि मुफ्त में मिलने वाली इन सेवाओं की कीमत हमें सूचनाओं के साझा होने के रूप में नहीं चुकानी पड़ रही होगी। सोशल मीडिया के माध्यम हमारी अर्थव्यवस्था की धमनियों में इतनी गहरी पैठ बना चुके हैं कि जिससे हमारा बच पाना मुश्किल है। कहीं घूमने जाने या खरीदारी का कार्यक्रम मेल द्वारा साझा करते हैं तो हमारी जरूरतों व अभिरुचियों से जुड़े विज्ञापन नजर आने लगते हैं। दरअसल, इन कंपनियों के आर्थिक व्यवहार से छोटे व देशी कारोबारों की धमनियों का आर्थिक रक्त सिकुड़ने लगा है। हम यह नहीं सोचते कि जो कंपनियां अरबों रुपये लगाकर शोध-अनुसंधान, इंटरनेट विस्तार, अपडेट में निवेश और महंगे वेतनभोगी कर्मचारियों तथा आलीशान भवनों के जरिये इन माध्यमों का संचालन कर रही हैं, तो क्या हमें मुफ्त में सेवाओं देने के लिये? हम यही नहीं सोचते हैं कि यदि इन सेवाओं का भुगतान करना पड़े तो ये सेवायें हमें किस कीमत पर मिलेंगी? यदि उसमें देशी कर जीएसटी आदि जोड़ा जाये तो क्या हम उस कीमत का सहज भुगतान करने में सक्षम होंगे? ऐसे में हमारी निजता का तर्क कमजोर पड़ता है। हमें इन माध्यमों का सतर्कता से उपयोग करना चाहिए। साथ ही सरकार को भी अविलंब इन कंपनियों के आर्थिक व्यवहार, निगरानी और नागरिकों की सूचनाओं को संरक्षण के लिये सख्त कानून लाना चाहिए।